श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1099 पउड़ी ॥ अकल कला नह पाईऐ प्रभु अलख अलेखं ॥ खटु दरसन भ्रमते फिरहि नह मिलीऐ भेखं ॥ वरत करहि चंद्राइणा से कितै न लेखं ॥ बेद पड़हि स्मपूरना ततु सार न पेखं ॥ तिलकु कढहि इसनानु करि अंतरि कालेखं ॥ भेखी प्रभू न लभई विणु सची सिखं ॥ भूला मारगि सो पवै जिसु धुरि मसतकि लेखं ॥ तिनि जनमु सवारिआ आपणा जिनि गुरु अखी देखं ॥१३॥ {पन्ना 1099} पद्अर्थ: कला = (digit) हिस्सा, टुकड़ा (जैसे चंद्रमा की कलाएं बढ़ती घटती हैं)। अकल = जिसकी कलाएं ना हों, जिसके टुकड़े ना हो सकें, जो चँद्रमा की तरह घटता बढ़ता नहीं, अखण्ड शक्ति वाला। लख = लक्ष, निशान, चिन्ह। अलेख = जो बयान ना किया जा सके। खटु दरसन = छे भेषों के साधू (जोगी, जंगम, सरेवड़े, सन्यासी, बैरागी, बौधी)। चंद्राइण वरत = चँद्रमा के साथ संबंध रखने वाले व्रत। सार = अस्लियत। न पेखं = नहीं देखतें। मारगि = रास्ते पर। जिनि = उसने। अर्थ: जिस प्रभू का कोई चक्र-चिन्ह नहीं, जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, जो बढ़ता-घटता नहीं है उसका भेद (कला) नहीं पाया जा सकता। छे भेखों के साधू (व्यर्थ) भटकते फिरते हैं, प्रभू भेष से नहीं मिलता। (कई लोग) चँद्रायण व्रत रखते हैं, पर उनका कोई लाभ नहीं (वह किसी गिनती में नहीं)। जो सारे के सारे वेद पढ़ते हैं, वे भी सच्चाई को नहीं देख सकते। कई स्नान कर के (माथे पर) तिलक लगाते हैं, पर उनके मन में (विकारों की) कालिख होती है (उनको भी रॅब नहीं मिलता)। परमात्मा भेषों से नहीं मिलता, (गुरू के) सच्चे उपदेश के बिना नहीं मिलता। जिस मनुष्य के माथे पर धुर से (बख्शिश का लिखा) लेख उघड़ आए, वह (पहले अगर) गलत रास्ते पर पड़ा हुआ (हो तो भी ठीक) रास्ते पर आ जाता है। जिस मनुष्य ने अपनी आँखों से गुरू के दर्शन कर लिए, उसने अपना जन्म सफल कर लिया है।13। डखणे मः ५ ॥ सो निवाहू गडि जो चलाऊ न थीऐ ॥ कार कूड़ावी छडि समलु सचु धणी ॥१॥ {पन्ना 1099} पद्अर्थ: निवाहू = तोड़ निभाने वाला, पूरा साथ निभाने वाला। गडि = (हृदय में) पक्का कर के रख। चलाऊ = चला जाने वाला, साथ छोड़ जाने वाला। थीअै = होए। संमलु = संभाल के (मन में) रख। धणी = मालिक। अर्थ: जो (मालिक-प्रभू) साथ छोड़ जाने वाला नहीं है उस तोड़ निभाने वाले को (दिल में) पक्का कर के रख। सदा-स्थिर रहने वाले मालिक को (मन में) संभाल के रख, (जो काम उसकी याद को भुलाए, उस) झूठी कार को छोड़ दे (माया संबंधी काम में चिक्त को नहीं बसा)।1। मः ५ ॥ हभ समाणी जोति जिउ जल घटाऊ चंद्रमा ॥ परगटु थीआ आपि नानक मसतकि लिखिआ ॥२॥ {पन्ना 1099} पद्अर्थ: हभ = हर जगह। घटाऊ = घड़ों में। मसतकि = माथे पर। अर्थ: हे नानक! प्रभू की ज्योति हर जगह समाई हुई है (मौजूद है) जैसे पानी के घड़ों में चँद्रमा (का प्रतिबिंब) है। (पर माया ग्रसित जीव को अपने अंदर उसका दीदार नहीं होता)। जिस मनुष्य के माथे पर (पूर्बले) लिखे लेख जागते हैं, उसके अंदर प्रभू की ज्योति प्रत्यक्ष हो जाती है।2। मः ५ ॥ मुख सुहावे नामु चउ आठ पहर गुण गाउ ॥ नानक दरगह मंनीअहि मिली निथावे थाउ ॥३॥ {पन्ना 1099} पद्अर्थ: सुहावे = सुंदर। चउ = उचार (के)। मंनीअहि = आदर प्राप्त करते हैं। अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य प्रभू का नाम सिमरते हैं जो आठ पहर प्रभू की सिफत सालाह करते हैं उनके मुँह सुंदर (दिखते) हैं। हे नानक! (भाग्यशाली) बंदे प्रभू की हजूरी में सम्मान पाते हैं। जिस मनुष्य को (पहले) कहीं भी आसरा नहीं था मिलता (नाम की बरकति से) उसको (हर जगह) आदर मिलता है।3। पउड़ी ॥ बाहर भेखि न पाईऐ प्रभु अंतरजामी ॥ इकसु हरि जीउ बाहरी सभ फिरै निकामी ॥ मनु रता कुट्मब सिउ नित गरबि फिरामी ॥ फिरहि गुमानी जग महि किआ गरबहि दामी ॥ चलदिआ नालि न चलई खिन जाइ बिलामी ॥ बिचरदे फिरहि संसार महि हरि जी हुकामी ॥ करमु खुला गुरु पाइआ हरि मिलिआ सुआमी ॥ जो जनु हरि का सेवको हरि तिस की कामी ॥१४॥ {पन्ना 1099} पद्अर्थ: बाहरि भेखि = बारी भेखों से। अंतरजामी = दिल की जानने वाला। बाहरी = बिना। निकामी = निकम्मी, व्यर्थ। गरबि = अहंकार में। फिरामी = फिरती है। गुमानी = अहंकारी। गरबहि = अहंकार करते हैं। दामी = पैसे वाले, माया धारी। बिलामी = विलम्ब, देर। हुकामी = हुकम में, हुकम अनुसार। करमु = कृपा। कामी = काम आता है। तिस की कामी = उसके काम आता है, उसका काम सवारता है। अर्थ: ईश्वर बाहरी भेषों से नहीं मिलता (क्योंकि) वह हरेक के दिल की जानता है, और, एक रॅब के मिलाप के बिना सारी सृष्टि व्यर्थ विचरती है। जिन लोगों का मन परिवार के मोह में रंगा रहता है, वे सदा अहंकार में फिरते हैं, माया-धारी बंदे जगत में अकड़-अकड़ के चलते हैं, पर उनका अहंकार किसी अर्थ का नहीं, (क्योंकि) जगत से चलने के वक्त माया जीव के साथ नहीं जाती, छिन पल में ही साथ छोड़ जाती है। ऐसे लोग परमात्मा की रजा के अनुसार संसार में (व्यर्थ ही) जीवन गुजार जाते हैं। जिस मनुष्य पर प्रभू की मेहर (का दरवाजा) खुलता है, उसको गुरू मिलता है (गुरू के द्वारा) उसको मालिक प्रभू मिल जाता है। जो मनुष्य प्रभू का सेवक बन जाता है, प्रभू उसका काम सँवारता है।14। डखणे मः ५ ॥ मुखहु अलाए हभ मरणु पछाणंदो कोइ ॥ नानक तिना खाकु जिना यकीना हिक सिउ ॥१॥ {पन्ना 1099} पद्अर्थ: अलाऐ = उचारता है, कहता है। हभ = सारी (सृष्टि)। कोइ = कोई विरला। खाकु = चरण धूड़। यकीना = प्रतीत, श्रद्धा। हिक = एक। अर्थ: सारी सृष्टि ही मुँह से कहती है (कि) मौत (सिर पर खड़ी है), पर कोई विरला बंदा (ये बात यकीन से) समझता है। हे नानक! (कह-) मैं उन (गुरमुखों) की चरण-धूड़ (माँगता) हूँ जो (मौत को सच जान के) एक परमात्मा के साथ संबंध जोड़ते हैं।1। मः ५ ॥ जाणु वसंदो मंझि पछाणू को हेकड़ो ॥ तै तनि पड़दा नाहि नानक जै गुरु भेटिआ ॥२॥ {पन्ना 1099} पद्अर्थ: जाणु = अंतरजामी। मंझि = (हरेक जीव के) अंदर। को होकड़ो = कोई विरला एक। तै तनि = उस मनुष्य के शरीर में। पड़दा = परमात्मा से दूरी। जै = जिस को। भेटिआ = मिला। अर्थ: अंतरजामी परमात्मा (हरेक जीव के) अंदर बसता है, पर इस बात को कोई विरला व्यक्ति ही समझता है। हे नानक! (जिस) मनुष्य को गुरू मिल जाता है उसके हृदय में (शरीर में परमात्मा से) दूरी नहीं रह जाती (और वह परमात्मा को अपने अंदर देख लेता है)।2। मः ५ ॥ मतड़ी कांढकु आह पाव धोवंदो पीवसा ॥ मू तनि प्रेमु अथाह पसण कू सचा धणी ॥३॥ {पन्ना 1099} पद्अर्थ: कुआहु = बुरी, खोटी (कुलाह), घाटे वाली। मतड़ी = कोझी मति। कांढ = काढने वाला, निकालने वाला। कांढ पाव = निकालने वाले पैर। मू तनि = मेरे शरीर में, मेरे दिल में। अथाह = बेअंत। पसण कू = देखने के लिए। धणी = मालिक। अर्थ: सदा कायम रहने वाले मालिक के दर्शन करने के लिए मेरे हृदय में अथाह प्रेम है (पर मेरी खोटी मति दर्शनों के रास्ते पर रोक डालती है); जो मनुष्य मेरी इस खोटी मति को (मेरे अंदर से) निकाल दे, मैं उसके पैर धो-धो के पीऊँगा।3। पउड़ी ॥ निरभउ नामु विसारिआ नालि माइआ रचा ॥ आवै जाइ भवाईऐ बहु जोनी नचा ॥ बचनु करे तै खिसकि जाइ बोले सभु कचा ॥ अंदरहु थोथा कूड़िआरु कूड़ी सभ खचा ॥ वैरु करे निरवैर नालि झूठे लालचा ॥ मारिआ सचै पातिसाहि वेखि धुरि करमचा ॥ जमदूती है हेरिआ दुख ही महि पचा ॥ होआ तपावसु धरम का नानक दरि सचा ॥१५॥ {पन्ना 1099} पद्अर्थ: रचा = खचित, मस्त। नचा = नाचता, भटकता फिरता। तै = और। थोथा = खाली। कूड़िआरु = झूठा। खचा = गॅप। पातिसाहि = पातशाह ने। वेखि = देख के। करमचा = कर्म, किए हुए काम। हेरिआ = देखा। जमदूती = जमदूतों ने। पचा = ख्वार किया। तपावसु = न्याय। दरि = दर से। अर्थ: जिस मनुष्य ने निर्भय प्रभू का नाम भुला दिया है और जो माया में ही मस्त रहता है, वह जनम-मरण के चक्कर में पड़ जाता है वह अनेकों जूनियों में भटकता है। (माया में मस्त मनुष्य यदि कोई) वचन करता है तो उससे फिर जाता है, सदा झूठी बात ही करता है। वह झूठा अपने मन में से खाली होता है (उसकी नीयत पहले ही बुरी होती है, इस वास्ते) उसकी (हरेक बात) झूठी होती है गॅप होती है। ऐसा बंदा झूठी लालच में फस के निर्वैर व्यक्ति के साथ भी वैर कमा लेता है, शुरू से ही उस लालची के कामों को देख के सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू-पातिशाह ने (उसकी ज़मीर को) मार दिया हुआ है। ऐसा मनुष्य सदा जमदूतों की ताक में रहता है, दुखों में ही ख़्वार होता है। हे नानक! सच्चे प्रभू के दर पर धर्म का इन्साफ (ही) होता है।15। डखणे मः ५ ॥ परभाते प्रभ नामु जपि गुर के चरण धिआइ ॥ जनम मरण मलु उतरै सचे के गुण गाइ ॥१॥ {पन्ना 1099} पद्अर्थ: प्रभ नामु = प्रभू का नाम। धिआइ = ध्यान धर। अर्थ: (हे भाई!) अमृत बेला में उठ के प्रभू का नाम सिमर, और अपने गुरू के चरणों का ध्यान धर (भाव, प्रभू के नाम में जोड़ने वाले गुरू का आदर सत्कार पूरी विनम्रता से अपने दिल में टिका)। सदा कायम रहने वाले प्रभू की सिफत सालाह करने से जनम-मरण के चक्कर में डालने वाली विकारों की मैल मन से उतर जाती है।1। मः ५ ॥ देह अंधारी अंधु सुंञी नाम विहूणीआ ॥ नानक सफल जनमु जै घटि वुठा सचु धणी ॥२॥ {पन्ना 1099} पद्अर्थ: देह = काया। अंधु अंधारी = पूरी तौर पर अंधी। सुंञी = सुंनी, आत्मिक जीवन से वंचित। जै घटि = जिस मनुष्य के हृदय में। सचु = सदा स्थिर। वुठा = आ बसा। अर्थ: नाम से टूटा हुआ शरीर (आत्मिक जीवन से) वंचित रहता है, पूरी तौर पर (आत्मिक जीवन की सूझ से) अंधा हो जाता है (भाव, सारी ज्ञानेन्द्रियां सदाचारी उपयोग से अंधी हो के विकारों में प्रवृति हुई रहती हैं)। हे नानक! जिस मनुष्य के हृदय में सदा-स्थिर मालिक प्रभू आ बसता है, उसकी जिंदगी मुबारक है।2। मः ५ ॥ लोइण लोई डिठ पिआस न बुझै मू घणी ॥ नानक से अखड़ीआ बिअंनि जिनी डिसंदो मा पिरी ॥३॥ {पन्ना 1099} पद्अर्थ: लोइण = आँखों से। लोई = लोग, जगत, मायावी पदार्थ। पिआस = मायावी पदार्थों की लालसा। मू = मेरी। घणी = बहुत बढ़ी हुई। अखड़ीआ = आँखें। बिअंनि = और किस्म की। मा = मेरा। अर्थ: (ज्यों-ज्यों) मैं इन आँखों से (निरे) जगत को (भाव, दुनिया के पदार्थों को) देखता हूँ (इन पदार्थों के प्रति) मेरी लालसा और भी बढ़ती जाती है, लालसा खत्म नहीं होती। हे नानक! (तृष्णा-मारी आँखों से प्यारा प्रभू दिखाई नहीं दे सकता) वह आँखें (इन तृष्णा-ग्रसित आँखों से अलग) औैर ही किस्म की हैं, जिनसे प्यारा प्रभू-पति दिखाई देता है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |