श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1100

पउड़ी ॥ जिनि जनि गुरमुखि सेविआ तिनि सभि सुख पाई ॥ ओहु आपि तरिआ कुट्मब सिउ सभु जगतु तराई ॥ ओनि हरि नामा धनु संचिआ सभ तिखा बुझाई ॥ ओनि छडे लालच दुनी के अंतरि लिव लाई ॥ ओसु सदा सदा घरि अनंदु है हरि सखा सहाई ॥ ओनि वैरी मित्र सम कीतिआ सभ नालि सुभाई ॥ होआ ओही अलु जग महि गुर गिआनु जपाई ॥ पूरबि लिखिआ पाइआ हरि सिउ बणि आई ॥१६॥ {पन्ना 1100}

पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। जनि = जन ने। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के। तिनि = उस ने। सभि = सारे। संचिआ = जोड़ा, इकट्ठा किया। ओनि = उस ने। ओसु घरि = उसके हृदय घर में। सखा = मित्र। सम = एक समान। सुभाई = अच्छे स्वभाव वाला। ओहीअलु = प्रकट, मशहूर, नाम वाला। (ओझल = आँखों से ओझल। ओहीअलु = आँखों के सामने)।

अर्थ: जिस मनुष्य ने गुरू के सन्मुख हो के प्रभू को सिमरा है उसने सारे सुख पा लिए हैं, वह अपने परिवार समेत स्वयं भी (संसार-समुंद्र से) पार हो जाता है, सारे जगत को भी पार लगा लेता है। उस मनुष्य ने परमात्मा का नाम धन इतना जोड़ा है कि माया वाली सारी ही तृष्णा उसने मिटा ली है। उसने दुनिया के सारे लालच छोड़ दिए हैं (लालच में नहीं फसता) उसने प्रभू-चरणों में सुरति जोड़ी हुई है। उसके हृदय में सदा खुशी-आनंद है, प्रभू सदा उसका मित्र है सहायता करने वाला है। उसने वैरी और मित्र एक-समान समझ लिए हैं (हरेक को मित्र समझता है), सबके साथ अच्छा बरताव करता है।

वह मनुष्य गुरू से मिले उपदेश को सदा चेते रखता है और जगत में नामवाला हो जाता है, पिछले जन्मों में किए भले कर्मों के लेख उसके माथे पर उघड़ आते हैं और (इस जन्म में) परमात्मा के साथ बिल्कुल ही पक्की प्रीति बन जाती है।16।

डखणे मः ५ ॥ सचु सुहावा काढीऐ कूड़ै कूड़ी सोइ ॥ नानक विरले जाणीअहि जिन सचु पलै होइ ॥१॥ {पन्ना 1100}

पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला नाम धन। सुहावा = सुखावां, सुख देने वाला। काढीअै = कहा जाता है, हर कोई कहता है। कूड़ै = झूठा धन, नाशवंत पदार्थ। कूड़ी सोइ = बुरी खबर, दूषणबाजी उपाधि भरी खबर। जाणीअहि = जाने जाते हैं, पता लगता है।

अर्थ: हे नानक! हर कोई कहता है कि (परमात्मा का) नाम-धन सुख देने वाला है और दुनियावी धन (के एकत्र करने) में कोई ना कोई झगड़े-दूषणबाजी वाली उपाधि वाली खबर ही सुनी जाती है। फिर भी, ऐसे लोग विरले ही मिलते हैं, जिन्होंने नाम-धन इकट्ठा किया हो (हर कोई उपाधि-मूल दुनियावी धन के पीछे ही दौड़ रहा है)।1।

मः ५ ॥ सजण मुखु अनूपु अठे पहर निहालसा ॥ सुतड़ी सो सहु डिठु तै सुपने हउ खंनीऐ ॥२॥ {पन्ना 1100}

पद्अर्थ: सुतड़ी = सोई हुई। सहु = पति। सुपने = हे सपने! तै = तुझसे। हउ = मैं। खंनीअै = कुर्बान हूँ। सजण मुखु = मित्र प्रभू का मुँह। अनूपु = उपमा रहित, बेमिसाल, बहुत ही सुंदर। निहालसा = निहालसां, मैं देखूँगी।

अर्थ: सोई हुई ने मैंने उस पति-प्रभू को (सपने में) देखा, सज्जन का मुँह बहुत ही अच्छा (लगा)। हे सपने! मैं तुझसे सदके जाती हूँ। (अब मेरी तमन्ना है कि) मैं आठों पहर (सज्जन का मुँह) देखती रहूँ।2।

मः ५ ॥ सजण सचु परखि मुखि अलावणु थोथरा ॥ मंन मझाहू लखि तुधहु दूरि न सु पिरी ॥३॥ {पन्ना 1100}

पद्अर्थ: सजण = हे मित्र! सचु = नाम धन। परखि = मूल्य डाल, (खरापन) ध्यान से देख। मुखि = (सिर्फ) मुँह से। अलावणु = बोलना, कहना। थोथरा = खाली, व्यर्थ। मंन मझाहू = मन में। लखि = देख। सु = वह।

अर्थ: हे मित्र! (सिर्फ) मुँह से कहना व्यर्थ है, नाम-धन को (अपने हृदय में) परख। अपने अंदर झाँक मार के देख, वह पति-प्रभू तुझसे दूर नहीं है (तेरे अंदर ही बसता है)।3।

पउड़ी ॥ धरति आकासु पातालु है चंदु सूरु बिनासी ॥ बादिसाह साह उमराव खान ढाहि डेरे जासी ॥ रंग तुंग गरीब मसत सभु लोकु सिधासी ॥ काजी सेख मसाइका सभे उठि जासी ॥ पीर पैकाबर अउलीए को थिरु न रहासी ॥ रोजा बाग निवाज कतेब विणु बुझे सभ जासी ॥ लख चउरासीह मेदनी सभ आवै जासी ॥ निहचलु सचु खुदाइ एकु खुदाइ बंदा अबिनासी ॥१७॥ {पन्ना 1100}

पद्अर्थ: बिनासी = नाशवंत। उमराव = अमीर लोग। खान = जायदादों के मालिक। ढाहि = छोड़ के। रंग = रंक, कंगाल। तुंग = ऊँचे, धनाढ। मसत = मस्त, अहंकारी, माया ग्रसित। सिधासी = संसार से चले जाएंगे। मसाइका = शेख कहलवाने वाले। अउलीऐ = वली लोग, धार्मिक आगू। मेदनी = धरती। निहचलु = सदा कायम रहने वाला।

अर्थ: धरती, आकाश, पाताल, चाँद और सूरज- ये सब नाशवंत हैं। शाह-बादशाह अमीर जागीरदार (सब अपने) महल माढ़ियाँ छोड़ के (यहाँ से) चले जाएंगे। कंगाल, अमीर, ग़रीब, मायाग्रसित (कोई भी हो) सारा जगत ही (यहाँ से) चला जाएगा। पीर-पैग़बर बड़े-बड़े धार्मिक आगू - इनमें से कोई भी यहाँ सदा टिका नहीं रहेगा। जिन्होंने रोज़े रखे, बाँगें दीं, नमाज़ें पढ़ीं, धार्मिक पुस्तकें पढ़ीं, वह भी जिन्होंने इनकी सार ना समझी वह भी, सारे (जगत से आखिर) चले जाएंगें। धरती की चौरासी लाख जूनों के सारे ही जीव (जगत में) आते हैं और फिर यहाँ से चले जाते हैं।

सिर्फ एक सच्चा ख़ुदा ही सदा कायम रहने वाला है। ख़ुदा का बँदा (भगत) भी जनम-मरण के चक्करों में नहीं पड़ता।17।

डखणे मः ५ ॥ डिठी हभ ढंढोलि हिकसु बाझु न कोइ ॥ आउ सजण तू मुखि लगु मेरा तनु मनु ठंढा होइ ॥१॥ {पन्ना 1100}

पद्अर्थ: हभ = सारी सृष्टि। ढंढोलि = ढूँढ के। सजण = हे मित्र प्रभू! मुखि लगु = मिल, दीदार दे। तनु मनु ठंढा होइ = तन मन में ठंढक पड़ती है, मन व ज्ञानेन्द्रिए शांत होते हैं।

अर्थ: हे मित्र प्रभू! आ, तू मुझे दर्शन दे, (तेरे दर्शन करने से) मेरे तन मन में ठंढ पड़ती है। मैंने सारी सृष्टि तलाश के देख ली है, (हे प्रभू!) एक तेरे (दीदार के) बिना और कोई भी (पदार्थ मुझे आत्मिक शांति) नहीं (देता)।1।

मः ५ ॥ आसकु आसा बाहरा मू मनि वडी आस ॥ आस निरासा हिकु तू हउ बलि बलि बलि गईआस ॥२॥ {पन्ना 1100}

पद्अर्थ: आसकु = (प्रभू-चरणों का) प्रेमी। आसा = (दुनियावी पदार्थों की) आशा, मायावी लालसा। मू मनि = मेरे मन में। आस निरासा = दुनियावी आशाओं से उपराम करने वाला। हिकु तू = सिर्फ तू है।

अर्थ: (हे प्रभू!) (तेरे चरणों का सच्चा) प्रेमी वही हो सकता है जिसको दुनियावी आशा ना छू सकें, पर मेरे मन में तो बड़ी-बड़ी आशाएं हैं। सिर्फ तू ही है जो मुझे (दुनियावी) आशाओं से उपराम कर सकता है। मैं तुझसे ही कुर्बान जाता हूँ (तू स्वयं ही मेहर कर)।2।

मः ५ ॥ विछोड़ा सुणे डुखु विणु डिठे मरिओदि ॥ बाझु पिआरे आपणे बिरही ना धीरोदि ॥३॥ {पन्ना 1100}

पद्अर्थ: सुणे = सुणि, सुन के। मरिओदि = आत्मिक मौत हो जाती है। बिरही = सच्चा आशिक, प्रेमी। ना धीरोदि = धीरज नहीं करता, मन खड़ा नहीं होता।

अर्थ: (प्रभू चरणों का अमल) प्रेमी वह है जिसको यह सुन के ही दुख प्रतीत हो कि प्रभू से विछोड़ा होने लगा है। दीदार के बिना सच्चा प्रेमी आत्मिक मौत महसूस करता है। अपने प्यारे प्रभू से विछुड़ के प्रेमी का मन ठहरता नहीं (मन विहवल रहता है)।3।

पउड़ी ॥ तट तीरथ देव देवालिआ केदारु मथुरा कासी ॥ कोटि तेतीसा देवते सणु इंद्रै जासी ॥ सिम्रिति सासत्र बेद चारि खटु दरस समासी ॥ पोथी पंडित गीत कवित कवते भी जासी ॥ जती सती संनिआसीआ सभि कालै वासी ॥ मुनि जोगी दिग्मबरा जमै सणु जासी ॥ जो दीसै सो विणसणा सभ बिनसि बिनासी ॥ थिरु पारब्रहमु परमेसरो सेवकु थिरु होसी ॥१८॥ {पन्ना 1100}

पद्अर्थ: तट = नदी का किनारा। देवालिआ = देवताओं का घर, मन्दिर। सणु = समेत। खटु दरस = छे भेखों के साधु। समासी = समा जाएंगें, मर जाऐंगे। कविते = कवि लोग। कालै वासी = काल के वश, मौत के अधीन। दिगंबरा = (दिग+अंबर। दिग = दिशा। अंबर = कपड़ा) नागे। जमै सणु = जम के समेत।

अर्थ: देवताओं के मन्दिर, केदार मथुरा काशी आदि तीर्थ, तैंतिस करोड़ देवते, इन्द्र देवता भी- आखिर नाशवंत हैं। चार वेद स्मृतियां शास्त्र आदि धार्मिक पुस्तकों (के पढ़ने वाले) और छहों भेषों के साधु जन भी अंत में चले जाएंगे। पुस्तकों के विद्वान, गीतों कविताओं के लिखने वाले कवि भी जगत से कूच कर जाएंगे। जती सती सन्यासी -ये सभी मौत के अधीन हैं। समाधियाँ लगाने वाले, जोगी, नांगे, जमदूत- ये भी नाशवंत हैं।

(सिरे की बात) (जगत में) जो कुछ दिखाई दे रहा है वह नाशवंत है, हरेक ने अवश्य नाश हो जाना है। सदा कायम रहने वाला केवल पारब्रहम परमेश्वर ही है। उसका भक्त ही पैदा होने-मरने से रहित हो जाता है।18।

सलोक डखणे मः ५ ॥ सै नंगे नह नंग भुखे लख न भुखिआ ॥ डुखे कोड़ि न डुख नानक पिरी पिखंदो सुभ दिसटि ॥१॥ {पन्ना 1100}

पद्अर्थ: सै = सैकड़ों बार। नह नंग = नंग (की परवाह) नहीं होती, नंगे रहना दुखद नहीं लगता। लख = लाखों बार। न भुखिआ = भूख चुभती नहीं। डुख = दुख। कोड़ि = करोड़ों। सुभ दिसटि = अच्छी निगाह से। पिखंदो = देखे।

अर्थ: हे नानक! (जिस मनुष्य की ओर) प्रभू-पति मेहर भरी निगाह से देखे, उसको नंग की परवाह नहीं रहती चाहे सैकड़ों बार नंगा रहना पड़े, उसको भूख नहीं चुभती चाहे लाखों बार भूखा रहना पड़े, उसको कोई दुख नहीं व्यापता चाहे करोड़ों बार दुख व्यापें।1।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh