श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1101 मः ५ ॥ सुख समूहा भोग भूमि सबाई को धणी ॥ नानक हभो रोगु मिरतक नाम विहूणिआ ॥२॥ {पन्ना 1101} पद्अर्थ: समूह = ढेर (भाव, सारे)। भूमि = धरती। सबाई = सारी। धणी = मालिक। मिरतक = मृतक, मुर्दा, मरी हुई आत्मा वाला। अर्थ: अगर किसी मनुष्य को सारे सुख भोगने को मिले हों, और वह सारी धरती का मालिक हो, (पर) हे नानक! अगर वह प्रभू के नाम से वंचित है उसकी आत्मा मुर्दा है, सारे सुख उसके लिए रोग के (समान) हैं।2। मः ५ ॥ हिकस कूं तू आहि पछाणू भी हिकु करि ॥ नानक आसड़ी निबाहि मानुख परथाई लजीवदो ॥३॥ {पन्ना 1101} पद्अर्थ: हिकस कूं = सिर्फ एक प्रभू को। आहि = (मिलने की) चाहत बना। पछाणू = पहचान वाला, मित्र। करि = बना। निबाहि = निबाहता है, पूरी करता है। परथाई = (प्रस्थान) चल के जाना, आसरा लेना। लजीवदो = लज्जा का कारण बनता है। अर्थ: हे नानक! सिर्फ एक परमात्मा को मिलने की चाहत रख, एक परमात्मा को ही अपना मित्र बना, वही तेरी आशा पूरी करने वाला है। किसी मनुष्य का आसरा लेना लज्जा का कारण बनता है।3। पउड़ी ॥ निहचलु एकु नराइणो हरि अगम अगाधा ॥ निहचलु नामु निधानु है जिसु सिमरत हरि लाधा ॥ निहचलु कीरतनु गुण गोबिंद गुरमुखि गावाधा ॥ सचु धरमु तपु निहचलो दिनु रैनि अराधा ॥ दइआ धरमु तपु निहचलो जिसु करमि लिखाधा ॥ निहचलु मसतकि लेखु लिखिआ सो टलै न टलाधा ॥ निहचल संगति साध जन बचन निहचलु गुर साधा ॥ जिन कउ पूरबि लिखिआ तिन सदा सदा आराधा ॥१९॥ {पन्ना 1101} पद्अर्थ: अगाध = अथाह। निधानु = खजाना। लाधा = मिल जाता है। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। गवाधा = गाया जाता है। रैनि = रात। करमि = (प्रभू की) कृपा से। मसतकि = माथे पर। टलाधा = टालने से। पूरबि = पहले समय में। अर्थ: सिर्फ अपहुँच और अथाह हरी-परमात्मा ही सदा-स्थिर रहने वाला है, उस हरी का नाम-खजाना भी ना खत्म होने वाला है, नाम सिमरने से परमात्मा मिल जाता है। गुरू की शरण पड़ के गाए हुए परमात्मा के गुणों का कीर्तन भी (ऐसा खजाना है जो) सदा कायम रहता है। दिन-रात प्रभू का सिमरन करना चाहिए, यही है सदा-स्थिर धर्म और यही है सदा कायम रहने वाला तप। पर यह अटल तप, दया और धर्म उसी को मिलता है जिसके भाग्यों में प्रभू की मेहर से लिखा गया है। माथे पर लिखा हुआ ये लेख ऐसा है कि किसी के टाले नहीं टल सकता। साध जनों की संगत (भी मनुष्य के जीवन के लिए एक) अटल (रास्ता) है, गुरू-साधु के वचन भी (मनुष्य की अगुवाई के लिए) अटॅल (बोल) हैं। पूर्बले जन्म में किए कर्मों के लेख जिनके माथे पर उघड़े हैं, उन्होंने सदा ही (गुरू की शरण पड़ कर) परमात्मा का सिमरन किया है।19। सलोक डखणे मः ५ ॥ जो डुबंदो आपि सो तराए किन्ह खे ॥ तारेदड़ो भी तारि नानक पिर सिउ रतिआ ॥१॥ {पन्ना 1101} पद्अर्थ: किन् खे = किन को? तारि = तैरते हैं। अर्थ: जो मनुष्य स्वयं ही (संसार-समुंद्र के विकारों की लहरों में) डूब रहा हो, वह और किसी को (कैसे) तैरा सकता है? हे नानक! जो मनुष्य पति-परमात्मा (के प्यार) में रंगे हुए हैं वह (इन मुश्किलों में से) स्वयं भी पार हो जाते हैं और औरों का भी उद्धार कर लेते हैं।1। मः ५ ॥ जिथै कोइ कथंनि नाउ सुणंदो मा पिरी ॥ मूं जुलाऊं तथि नानक पिरी पसंदो हरिओ थीओसि ॥२॥ {पन्ना 1101} पद्अर्थ: कथंनि = कहते हैं, उचारते हैं। मा पिरी = मेरे पिर का। मूं = मैं। जुलाऊँ = मैं जाऊँ। तथि = वहाँ। पिरी पसंदो = पिर को देख के। थीओसि = हो जाते हैं। अर्थ: जिस जगह (भाव, साध-संगति में) कोई (गुरमुख लोग) मेरे पति-प्रभू का नाम सुनते उचारते हों, मैं भी वहीं (चल के) जाऊँ। (क्योंकि) हे नानक! (साध-संगति में) पिर का दीदार कर के (अपना आप) हरा हो जाता है (आत्मिक जीवन मिल जाता है)।2। मः ५ ॥ मेरी मेरी किआ करहि पुत्र कलत्र सनेह ॥ नानक नाम विहूणीआ निमुणीआदी देह ॥३॥ {पन्ना 1101} पद्अर्थ: कलत्र = स्त्री। सनेह = प्यार, मोह। निमुणीआदी = बेबुनियादी, जिसकी नींव नहीं है, व्यर्थ जाने वाली। देह = काया, शरीर। अर्थ: मोह में फस के तू क्यों ये कहे जा रहा है कि ये मेरी स्त्री है यह मेरा पुत्र है? हे नानक! (मोह में फस के) प्रभू के नाम से वंचित रहके ये शरीर जिसकी कोई बुनियाद नहीं (बिसात नहीं) (व्यर्थ चला जाएगा)। पउड़ी ॥ नैनी देखउ गुर दरसनो गुर चरणी मथा ॥ पैरी मारगि गुर चलदा पखा फेरी हथा ॥ अकाल मूरति रिदै धिआइदा दिनु रैनि जपंथा ॥ मै छडिआ सगल अपाइणो भरवासै गुर समरथा ॥ गुरि बखसिआ नामु निधानु सभो दुखु लथा ॥ भोगहु भुंचहु भाईहो पलै नामु अगथा ॥ नामु दानु इसनानु दिड़ु सदा करहु गुर कथा ॥ सहजु भइआ प्रभु पाइआ जम का भउ लथा ॥२०॥ {पन्ना 1101} पद्अर्थ: नैनी = आँखों से। देखउ = देखूँ। पैरी = पैरों से। मारगि = रास्ते पर। फेरी = मैं फेरता हूँ। अपाइणो = स्वै भाव, अपनत्व। भरवासै गुर = गुरू के आसरे हो के। गुरि = गुरू ने। निधानु = खजाना। भाईहो = हे भाईयो! भुंचहु = खाओ। अगथा = अकथ प्रभू का। पलै = पल्ले (बाँधो), इकट्ठा करो। दानु = सेवा। इसनानु = (आचरण की) पवित्रता। सहजु = अडोलता। अर्थ: मैं आँखों से गुरू के दर्शन करता हॅूँ, अपना माथा गुरू के चरणों में धरता हूँ, पैरों से मैं गुरू के बताए हुए रास्ते पर चलता हूँ, हाथों से मैं (गुरू की संगति को) पंखा करता हूँ। (इस संयम में रह कर) मैं परमात्मा का स्वरूप अपने हृदय में टिकाता हूँ और दिन-रात (उसका नाम) जपता हूँ। सब ताकतों के मालिक गुरू में श्रद्धा धार के मैंने (माया वाली) सारी (मोह भरी) अपनत्व दूर कर ली है। गुरू ने मुझे प्रभू का नाम-खजाना दिया है, (अब) मेरा दुख-कलेश उतर गया है। हे भाईयो! (तुम भी) अकथ प्रभू के नाम-खजाने को (खुले दिल) से इस्तेमाल करो, और एकत्र करो। सदा गुरू की कहानियां करो, नाम जपो, सेवा करो और अपना आचरण पवित्र बनाओ। (इस तरह जब) मन की अडोलता बन जाती है, तब ईश्वर मिल जाता है, (फिर) मौत का डर भी दूर हो जाता है (आत्मिक मौत नजदीक नहीं फटकती)।20। सलोक डखणे मः ५ ॥ लगड़ीआ पिरीअंनि पेखंदीआ ना तिपीआ ॥ हभ मझाहू सो धणी बिआ न डिठो कोइ ॥१॥ {पन्ना 1101} पद्अर्थ: पिरीअंनि = पिर से। तिपीआ = तृप्त, संतुष्ट, अघाई हुई। हभ मझाहू = सब में। बिआ = दूसरा। अर्थ: (मेरी आँखें) पति प्रभू के साथ लग गई हैं (अब ये आँखें उसको) देख-देख के तृप्त नहीं होती (थकती नहीं)। वह मालिक प्रभू (अब मुझे) सबमें (दिखाई दे रहा है), (मैंने कहीं भी उसके बिना उस जैसा) कोई दूसरा नहीं देखा।1। मः ५ ॥ कथड़ीआ संताह ते सुखाऊ पंधीआ ॥ नानक लधड़ीआ तिंनाह जिना भागु मथाहड़ै ॥२॥ {पन्ना 1101} पद्अर्थ: कथड़ीआ = कथा कहानियाँ, उपदेश के वचन। पंधीआ = रास्ता। सुखाऊ = सुख देने वाले। मथाहड़ै = माथे पर। तिंनाह = उनको। अर्थ: संत-जनों के उपदेश-मयी वचन सुख दिखाने वाला राह हैं; (पर) हे नानक! ये बचन उनको ही मिलते हैं जिनके माथे पर (पूर्बले भले कर्मों के) भाग्य (उघड़ते हैं)।2। मः ५ ॥ डूंगरि जला थला भूमि बना फल कंदरा ॥ पाताला आकास पूरनु हभ घटा ॥ नानक पेखि जीओ इकतु सूति परोतीआ ॥३॥ {पन्ना 1101} पद्अर्थ: डूंगरि = पहाड़ में। बना = जंगलों में। जला = पानियों में। थला = रेतीली धरती पर। कंदरा = गुफाओं में। पूरनु = व्यापक। पेखि = देख के। जीओ = मैं जीता हूँ, मेरे अंदर जान आ जाती है, मुझे आत्मिक जीवन मिलता है। इकतु = एक बार। सूति = सूत में। अर्थ: पहाड़ों में, समुंद्रों में, रेतीली जगहों में, धरती में, जंगलों में, फलों में, गुफाओं में, पाताल आकाश में -सारे ही शरीरों में (परमात्मा) व्यापक है। हे नानक! जिस प्रभू ने (सारी ही रचना को) एक ही धागे में (भाव, हुकम में, मर्यादा में) पिरो के रखा है उसको देख-देख के मुझे आत्मिक जीवन मिलता है।3। पउड़ी ॥ हरि जी माता हरि जी पिता हरि जीउ प्रतिपालक ॥ हरि जी मेरी सार करे हम हरि के बालक ॥ सहजे सहजि खिलाइदा नही करदा आलक ॥ अउगणु को न चितारदा गल सेती लाइक ॥ मुहि मंगां सोई देवदा हरि पिता सुखदाइक ॥ गिआनु रासि नामु धनु सउपिओनु इसु सउदे लाइक ॥ साझी गुर नालि बहालिआ सरब सुख पाइक ॥ मै नालहु कदे न विछुड़ै हरि पिता सभना गला लाइक ॥२१॥ {पन्ना 1101} पद्अर्थ: सार = संभाल। सहजि = सहज अवस्था में, आत्मिक अडोलता में। आलक = आलस। को = कोई। सेती = साथ। लाइक = लगा लेता है। मंगां = मैं माँगता हूँ। सुखदायक = सुख देने वाला। सउपिओनु = उस (प्रभू) ने सौंपा है। साझी = भाईवाल। पाइक = सेवक। मै नालहु = मेरे साथ से। लाइक = लायक, समर्थ। अर्थ: परमात्मा मेरा माता पिता है (माता-पिता की तरह मुझे) पालने वाला है। प्रभू मेरी संभाल करता है, हम प्रभू के बच्चे हैं। मुझे मेरा हरी अडोल अवस्था में टिका के जीवन-खेल खिला रहा है, (इस बात से रक्ती भर भी) आलस नहीं करता। मेरे किसी अवगुण को याद नहीं रखता, (सदा) अपने गले से (मुझे) लगाए रखता है। जो कुछ मैं मुँह से माँगता हूँ, मेरा सुखदायी पिता-प्रभू वही-वही दे देता है। उस प्रभू ने मुझे अपने साथ जान-पहचान की पूँजी अपना नाम-धन सौंप दिया है, और मुझे ये सौदा करने के लायक बना दिया है। प्रभू ने मुझे सतिगुरू के साथ भाईवाल बना दिया है, (अब) सारे सुख मेरे दास बन गए हैं। मेरा पिता-प्रभू कभी भी मुझसे विछुड़ता नहीं, सारी बातें करने के समर्थ है।21। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |