श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोक डखणे मः ५ ॥ नानक कचड़िआ सिउ तोड़ि ढूढि सजण संत पकिआ ॥ ओइ जीवंदे विछुड़हि ओइ मुइआ न जाही छोड़ि ॥१॥ {पन्ना 1102}

पद्अर्थ: कचड़िआ सिउ = उन से जिनकी प्रीति कच्ची है।

(नोट: जिनसे प्रीत सिर्फ माया के संबंध के कारण होती है, वह सदा कायम नहीं रह सकती। जायदाद के बँटवारे अथवा कई और स्वार्थों के कारण फीकी पड़ जाती है)।

ओइ विछुड़हि = माया के आसरे बने हुए साक-संबंधी प्रीत तोड़ लेते हैं।

अर्थ: हे नानक! (माया के आसरे प्रीति डालने वालों की प्रीति का बँधन पक्का नहीं होता, सो) उनसे प्रीति तोड़ ले जिनकी प्रीति कच्ची है (उन्हें सदा निभने वाला साथी ना समझ)। गुरमुखों की संत-जनों की तलाश कर, उनकी प्रीति पक्की होती है (क्योंकि उनका) कोई स्वार्थ नहीं होता। स्वार्थी तो जीते-जी ही (दिल से) विछड़े रहते हैं, पर गुरमुख सत्संगी मरने पर भी साथ नहीं छोड़ते (प्रभू प्यार की दाति के लिए अरदास करते हैं)।

मः ५ ॥ नानक बिजुलीआ चमकंनि घुरन्हि घटा अति कालीआ ॥ बरसनि मेघ अपार नानक संगमि पिरी सुहंदीआ ॥२॥ {पन्ना 1102}

पद्अर्थ: घुरनि = घुर घुर करती हैं, गरजती हैं। अति कालीआ = गाढ़े काले रंग वाली। मेघ = बादल। संगमि = मिलाप में। सुहंदीआ = सुंदर लगती हैं।

अर्थ: हे नानक! (सावन की ऋतु में जब) बादलों की घनघोर काली घटाएं गरजती हैं, (उनमें) बिजलिया चमकती हैं, और बादल मूसलाधार बरसते हैं (तब कैसा सुहावना समय होता है); पर ये काली घटाएं (सि्त्रयों को) पति के मिलाप में ही सुहावनी लगती हैं।2।

मः ५ ॥ जल थल नीरि भरे सीतल पवण झुलारदे ॥ सेजड़ीआ सोइंन हीरे लाल जड़ंदीआ ॥ सुभर कपड़ भोग नानक पिरी विहूणी ततीआ ॥३॥ {पन्ना 1102}

पद्अर्थ: नीरि = पानी से। जल थल = नदियां और मैदान। सीतल पवण = ठंडी हवाएं। झुलारदे = बहती हों। सोइंन = सोने की। सुभर कपड़ = शगनों के शाल।

अर्थ: हे नानक! (जेठ-आसाढ़ की तपती लू के बाद बरखा ऋतु में) नदियाँ और मैदान (बरसात के) पानी से भरे हुए हों, ठंडी हवाएं बहती हों, सोने का पलंग हो जिसमें हीरे और लाल जड़े हुए हों, शगनों के दुशाले पहने हुए हों, (पर अगर स्त्री का अपने) पति से विछोड़ा है तो (ये सारे सुहावने पदार्थ हृदय को सुख पहुँचाने की जगह) तपश पैदा करते हैं।3।

पउड़ी ॥ कारणु करतै जो कीआ सोई है करणा ॥ जे सउ धावहि प्राणीआ पावहि धुरि लहणा ॥ बिनु करमा किछू न लभई जे फिरहि सभ धरणा ॥ गुर मिलि भउ गोविंद का भै डरु दूरि करणा ॥ भै ते बैरागु ऊपजै हरि खोजत फिरणा ॥ खोजत खोजत सहजु उपजिआ फिरि जनमि न मरणा ॥ हिआइ कमाइ धिआइआ पाइआ साध सरणा ॥ बोहिथु नानक देउ गुरु जिसु हरि चड़ाए तिसु भउजलु तरणा ॥२२॥ {पन्ना 1102}

पद्अर्थ: कारणु = सबब। करतै = करतार ने। है करणा = (सबब) बनना है। सउ = सैकड़ों बार। धावहि = तू दौड़े। धुरि = (जो) धुर से (तेरे किए कर्मों के अनुसार प्रभू ने लिखा है)। करमा = करम, मेहर। धरणा = धरती। भै डरु = (दुनियां के) डरों का सहम। भै = डरों का। भै ते = (प्रभू के) डर से। सहजु = अडोल अवस्था। हिआइ = हृदय में। बोहिथु = जहाज।

अर्थ: हे प्राणी! जो सबब करतार ने बनाया है वही बनना है। अगर तू सैंकड़े बार दौड़ता फिरे, जो धुर से (तेरे किए कर्मों के अनुसार) लेना (लिखा) है वही प्राप्त करेगा। सारी धरती पर भी अगर भटकता फिरे, तो भी प्रभू की मेहर के बिना कुछ नहीं मिलेगा (इस वास्ते उसकी मेहर का पात्र बन)।

जिस मनुष्य ने गुरू को मिल के परमात्मा का डर (हृदय में बसाया है), प्रभू ने उसका दुनियावी डरों का सहम दूर कर दिया है। परमात्मा के डर से ही दुनिया की तरफ से वैराग पैदा होता है मनुष्य प्रभू की खोज में लग जाता है। परमात्मा की खोज करते-करते (मनुष्य के अंदर) आत्मिक अडोलता पैदा हो जाती है, और उसका जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है। जिसको गुरू की शरण प्राप्त हो गई, उसने हृदय में नाम सिमरा, नाम की कमाई की।

(हे प्राणी!) गुरू नानक देव (आत्मिक) जहाज है, हरी ने इस जहाज में जिसको बैठा दिया, उसने संसार-समुंद्र को पार कर लिया।22।

सलोक मः ५ ॥ पहिला मरणु कबूलि जीवण की छडि आस ॥ होहु सभना की रेणुका तउ आउ हमारै पासि ॥१॥ {पन्ना 1102}

नोट: इस शलोक में गुरू अरजन साहिब परमात्मा की तरफ से हरेक प्राणी को संदेश देते हैं कि उसके नजदीक वही हो सकता है जिसने अहंकार को त्यागा है और निम्रता धारण की है।

पद्अर्थ: मरणु = मौत, अहंकार की मौत। कबूलि = परवान कर। रेणुका = चरण धूड़। तउ = तब।

अर्थ: (परमात्मा की तरफ से संदेशा है- हे बँदे!) तब ही तू मेरे नजदीक आ सकता है, जब सबके चरणों की धूल हो जाए, पहले (अहंकार ममता का) त्याग परवान करे, और (स्वार्थ-भरी) जिंदगी की तमन्ना छोड़ दे।1।

मः ५ ॥ मुआ जीवंदा पेखु जीवंदे मरि जानि ॥ जिन्हा मुहबति इक सिउ ते माणस परधान ॥२॥ {पन्ना 1102}

पद्अर्थ: मुआ = सांसारिक वासना की तरफ से मरा हुआ, जिसने सांसारिक वाशनाएं मिटा ली हैं। पेखु = देखो, समझो। मरि जानि् = आत्मिक मौत मर जाते हैं। जीवंदे = निरे दुनिया के रंग भोगने वाले। मुहबति = प्यार। इक सिउ = एक प्रभू से। ते = वह (बहुवचन)। माणस = मनुष्य। परधान = श्रेष्ठ।

अर्थ: असल में उसी व्यक्ति को जीवित समझो जिसने सांसारिक वासनाएं मिटा ली हैं। जो निरे दुनियां के रंग भोगते हैं वे आत्मिक मौत मर जाते हैं। वही मनुष्य शिरोमणि (कहे जाते हैं), जिनका प्यार एक परमात्मा से है।2।

मः ५ ॥ जिसु मनि वसै पारब्रहमु निकटि न आवै पीर ॥ भुख तिख तिसु न विआपई जमु नही आवै नीर ॥३॥ {पन्ना 1102}

पद्अर्थ: जिस मनि = जिस के मन में। निकटि = नजदीक। पीर = दुख कलेश। भुख तिख = माया की भूख प्यास। न विआपई = नहीं व्यापती, दबाव नहीं डाल सकती। जमु = मौत का डर। नीर = नजदीक।

अर्थ: जिस मनुष्य के मन में (सदा) परमात्मा (का नाम) बसता है, कोई दुख-कलेश उसके नजदीक नहीं आता, माया की भूख-प्यास उस पर अपना दबाव नहीं डाल सकती, मौत का डर भी उसके नजदीक नहीं आता।3।

पउड़ी ॥ कीमति कहणु न जाईऐ सचु साह अडोलै ॥ सिध साधिक गिआनी धिआनीआ कउणु तुधुनो तोलै ॥ भंनण घड़ण समरथु है ओपति सभ परलै ॥ करण कारण समरथु है घटि घटि सभ बोलै ॥ रिजकु समाहे सभसै किआ माणसु डोलै ॥ गहिर गभीरु अथाहु तू गुण गिआन अमोलै ॥ सोई कमु कमावणा कीआ धुरि मउलै ॥ तुधहु बाहरि किछु नही नानकु गुण बोलै ॥२३॥१॥२॥ {पन्ना 1102}

पद्अर्थ: अडोलै = हे कभी ना डोलने वाले! सिध = जोग साधना में सिद्धहस्त योगी। साधिक = साधना करने वाले। तोलै = मूल्य डाल सके। ओपति = उत्पक्ति। परलै = प्रलय, नाश। करण कारण = जगत को बनाने वाला, जगत का मूल। समाहे = पहुँचाता है। सभसै = हरेक जीव को। गहिर = गहरा। धुरि = धुर से। मउलै = मौला ने।

अर्थ: हे सदा-स्थिर और कभी ना डोलने वाले शाह! तेरा मूल्य नहीं आँका जा सकता। जोग-साधना में सिद्ध-हस्त योगी, साधना करने वाले (साधक), ज्ञान-चर्चा करने वाले- इनमें से कौन है जो तेरा मूल्य आँक सके?

(हे भाई!) प्रभू (सृष्टि को) पैदा करने और नाश करने के समर्थ है, (सृष्टि की) उत्पक्ति भी वही करता है और नाश भी वही। जगत पैदा करने की ताकत रखता है हरेक जीव के अंदर वही बोलता है। हरेक जीव को रिज़क पहुँचाता है, मनुष्य व्यर्थ ही घबराता है।

हे प्रभू! तू गहरा है समझदार है, तेरी थाह नहीं लगाई जा सकती। तेरे गुणों का मूल्य नहीं आँका जा सकता, तेरे ज्ञान का मूल्य नहीं पड़ सकता।

(हे भाई!) जीव वही काम करता है जो धुर से करतार ने उसके वास्ते मिथ दिया है (भाव, उसके किए कर्मों के अनुसार ही जिस तरह के संस्कार जीव के अंदर डाल दिए हैं)।

हे प्रभू! तुझसे आकी हो के (जगत में) कुछ नहीं घटित हो रहा। नानक तेरी ही सिफत-सालाह करता है।23।1।2।

रागु मारू बाणी कबीर जीउ की    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ पडीआ कवन कुमति तुम लागे ॥ बूडहुगे परवार सकल सिउ रामु न जपहु अभागे ॥१॥ रहाउ ॥ बेद पुरान पड़े का किआ गुनु खर चंदन जस भारा ॥ राम नाम की गति नही जानी कैसे उतरसि पारा ॥१॥ जीअ बधहु सु धरमु करि थापहु अधरमु कहहु कत भाई ॥ आपस कउ मुनिवर करि थापहु का कउ कहहु कसाई ॥२॥ मन के अंधे आपि न बूझहु काहि बुझावहु भाई ॥ माइआ कारन बिदिआ बेचहु जनमु अबिरथा जाई ॥३॥ नारद बचन बिआसु कहत है सुक कउ पूछहु जाई ॥ कहि कबीर रामै रमि छूटहु नाहि त बूडे भाई ॥४॥१॥ {पन्ना 1102-1103}

पद्अर्थ: पडीआ = हे पाँडे! सिउ = समेत। अभागे = हे अभागे! 1। रहाउ।

गुनु = लाभ। खर = गधा। जस = जैसे। भारा = भार, बोझ। गति = हालत, अवस्था। नाम की गति = नाम जपने की अवस्था, नाम जपने से जो आत्मिक अवस्था बनती है।1।

बधहु = बध करते हो, मारते हो (यज्ञों के समय)। थापहु = मिथ लेते हो। अधरमु = पाप। भाई = हे भाई! मुनिवर = श्रेष्ठ मुनि। का कउ = किस को? कसाई = जो मनुष्य बकरे आदि मार के उनका मांस बेच के गुजारा करते हैं।2।

काहि = और किस को? बुझावहु = समझाते हो। अबिरथा = व्यर्थ।3।

नारद बिआस, सुक = पुरातन हिन्दू विद्वान ऋषियों के नाम हैं ।

(नोट: कबीर जी किसी पंडित को उसके भुलेखे के बारे में समझा रहे हैं, इसलिए उनके ही ऋषियों का ही हवाला देते हैं)।

जाइ = जा के। रमि = सिमर के। बूडे = डूबे समझो।4।

अर्थ: हे पण्डित! तुम लोग किस कुमति में लगे हुए हो? हे अभागे पांडे! तुम प्रभू का नाम नहीं सिमरते, सारे परिवार समेत ही (संसार-समुंद्र में) डूब जाओगे।1। रहाउ।

(हे पांडे!) तू (संसार-समुंद्र से) कैसे पार होगा? तुझे इस बात की तो समझ ही नहीं पड़ी कि परमात्मा का नाम सिमरने से कैसी आत्मिक अवस्था बनती है। (तू माण करता है कि तूने वेद आदिक धर्म-पुस्तकें पढ़ी हुई हैं, पर) वेद-पुराण पढ़ने का कोई लाभ नहीं (अगर नाम से सूना रहा, ये तो दिमाग़ पर भार ही लाद लिया), जैसे किसी गधे पर चंदन लाद लिया।1।

(हे पांडे! एक तरफ तुम मांस खाने की निंदा करते हो; पर यज्ञ के वक्त तुम भी) जीव मारते हो (बलि देने के लिए, और) इस को धर्म का काम समझते हो। फिर, हे भाई! बताओ, पाप कौन सा है? (यज्ञ करने के वक्त तुम स्वयं भी जीव हिंसा करते हो, पर) अपने आप को तुम श्रेष्ठ ऋषि मानते हो। (अगर जीव मारने वाले लोग ऋषि हो सकते हैं,) तो तुम कसाई किसे कहते हो? (तुम) उन लोगों को कसाई क्यों कहते हो जो मांस बेचते है?।2।

हे अज्ञानी पांडे! तुम्हें अपने आप को (जीवन के सही रास्ते की) समझ नहीं आई, हे भाई! और किस को समझा रहे हो? (इस पढ़ी हुई विद्या से तुम स्वयं ही कोई लाभ नहीं उठा रहे, इस) विद्या को सिर्फ माया की खातिर बेच ही रहे हो, इस तरह तुम्हारी जिंदगी व्यर्थ गुजर रही है।3।

कबीर कहता है- हे भाई! (दुनिया के बँधनों से) प्रभू का नाम सिमर के ही मुक्त हो सकते हो, नहीं तो अपने आप को डूबा हुआ समझो। (अगर मेरी इस बात पर यकीन नहीं आता, तो अपने ही पुरातन ऋषियों के वचन पढ़-सुन के देख लो) नारद ऋषि के यही वचन हैं, व्यास यही बात कहते हैं, सुकदेव को भी जा के पूछ लो (भाव, सुकदेव के वचन पढ़ के भी देख लो, वह भी यही कहता है कि नाम सिमरने से पार उतारा होता है)।4।1।

शबद का भाव: धार्मिक पुस्तको के निरे पाठ का कोई लाभ नहीं, अगर जीवन नहीं बदला।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh