श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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महलि बुलाइड़ीए बिलमु न कीजै ॥ अनदिनु रतड़ीए सहजि मिलीजै ॥ सुखि सहजि मिलीजै रोसु न कीजै गरबु निवारि समाणी ॥ साचै राती मिलै मिलाई मनमुखि आवण जाणी ॥ जब नाची तब घूघटु कैसा मटुकी फोड़ि निरारी ॥ नानक आपै आपु पछाणै गुरमुखि ततु बीचारी ॥४॥४॥ {पन्ना 1112}

पद्अर्थ: महलि = महल में, प्रभू की हजूरी में। बुलाइड़ीऐ = हे बुलाई हुई! आमंत्रित। बिलमु = विलम्ब, देर। न कीजै = नहीं करनी चाहिए। अनुदिनु = हर रोज, हर वक्त। सहजि = सहज में, आत्मिक अडोलता में। मिलीजै = मिले रहना चाहिए, टिके रहना चाहिए।

सुख = सुख में, आनंद में। रोसु = गिला। रोसु न कीजै = गुस्सा नहीं नहीं करना चाहिए, गिला नहीं करना चाहिए। गरबु = अहंकार। निवारि = दूर कर के। साचै = सदा कायम रहने वाले प्रभू में। राती = रति हुई, प्रेम रंग में रंगी हुई। मिलाई = (गुरू की) मिलाई हुई। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली जीव स्त्री। आवण जाणी = जनम मरण के चक्कर में।

नाची = नाचने लगी। घूघटु = घूँघट। मटुकी फोड़ि = शरीर के मोह को तोड़ के। निरारी = निराली, निर्लिप, अलग। आपै आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। पछाणै = पहचानता है, पड़तालता है। ततु = अस्लियत, असल जीवन भेद। बीचारी = बिचारने वाला।4।

अर्थ: हे प्रभू की हजूरी में बुलाई हुई (जीव-सि्त्रए)! देर नहीं करनी चाहिए। हे हर वक्त प्रेम-रंग में रंगे हुए! आत्मिक अडोलता में टिके रहना चाहिए (भाव, हे भाई! जो जीव-स्त्री हर वक्त परमात्मा के प्यार रंग में रंगी रहती है, जो प्रभू की याद में कभी ढील नहीं करती, जो हर वक्त आत्मिक अडोलता में टिकी रहती है, उस जीव-स्त्री को परमात्मा अपने चरणों से जोड़ता है)।

हे भाई! आत्मिक आनंद में आत्मिक अडोलता में टिके रहना चाहिए, (किसी अपने उद्यम पर गर्व करके इस बात का) शिकवा नहीं करना चाहिए (कि मेरा उद्यम जल्दी सफल क्यों नहीं होता। जो भी जीव-स्त्री प्रभू का मिलाप हासिल करती है) अहंकार दूर करके (ही प्रभू में) लीन होती है। जिसको गुरू मिलाता है वही मिलती है, वह सदा कायम रहने वाले प्रभू के प्रेम रंग में रंगी रहती है। अपने मन के पीछे चलने वाली जनम-मरण के चक्करों में पड़ी रहती है।

हे भाई! (जैसे) जब कोई स्त्री नाचने लग जाए तो वह घूँघट नहीं करती, (वैसे ही जो जीव-स्त्री प्रभू-प्यार की राह पर चलती है वह) शरीर का मोह छोड़ के (माया से) निर्लिप हो जाती है। हे नानक! गुरू के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य सदा अपने जीवन को पड़तालता रहता है, उस असल जीवन राह को अपने विचार-मण्डल में टिकाए रखता है।4।4।

तुखारी महला १ ॥ मेरे लाल रंगीले हम लालन के लाले ॥ गुरि अलखु लखाइआ अवरु न दूजा भाले ॥ गुरि अलखु लखाइआ जा तिसु भाइआ जा प्रभि किरपा धारी ॥ जगजीवनु दाता पुरखु बिधाता सहजि मिले बनवारी ॥ नदरि करहि तू तारहि तरीऐ सचु देवहु दीन दइआला ॥ प्रणवति नानक दासनि दासा तू सरब जीआ प्रतिपाला ॥१॥ {पन्ना 1112}

पद्अर्थ: रंगीले = अनेकों करिश्मे करने वाले, चोज करने वाले। हम = मैं, हम। लाले = गोले, गुलाम। गुरि = गुरू ने। अलखु = अ+लखु, जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके। अवरु = और। भाले = तलाशता।

जा = जब। तिसु भाइआ = उस (प्रभू) को अच्छा लगा। प्रभि = प्रभू ने। जग जीवनु = जगत का जीवन, जगत का आसरा। पुरखु = सर्व व्यापक। बिधाता = सृजनहार। सहजि = आत्मिक अडोलता में। बनवारी = परमात्मा (बन+माली, सारी बनस्पति है जिसकी माला)।

नदरि = मेहर की निगाह। तारहि = (तू संसार समुंद्र से) पार लंघाता है। तरीअै = पार हुआ जा सकता है। सचु = सदा स्थिर नाम। दीन दइआला = हे दीनों पर दया करने वाले! प्रणवति = विनती करता है। दासनिदासा = दासों के दास। सरब = सारे।1।

अर्थ: हे भाई! मनमोहक प्रभू जी अनेकों करिश्मे करने वाले हैं, मैं उस सुंदर प्रभू का (सदा के लिए) गुलाम हूँ। हे भाई! (जिस मनुष्य को) गुरू ने अलख प्रभू की सूझ बख्श दी, (वह मनुष्य उसको छोड़ के) किसी और की तलाश नहीं करता।

हे भाई! जब प्रभू की रज़ा हुई, जब प्रभू ने (किसी जीव पर) कृपा की, तब गुरू ने उसको अलख प्रभू का ज्ञान दिया। तब उसको आत्मिक अडोलता में टिक के वह परमात्मा मिल जाता है जो जगत का सहारा है जो सब दातें देने वाला है जो सर्व-व्यापक है और सृजनहार है।

हे दीनों पर दया करने वाले प्रभू! जब तू अपना सदा-स्थिर नाम देता है, जब तू मेहर की निगाह करता है, जब तू (स्वयं संसार-समुंद्र से) पार लंघाता है, तब ही पार लांघ सकते हैं। तेरे दासों का दास विनती करता है कि तू सारे जीवों की रक्षा करने वाला है।1।

भरिपुरि धारि रहे अति पिआरे ॥ सबदे रवि रहिआ गुर रूपि मुरारे ॥ गुर रूप मुरारे त्रिभवण धारे ता का अंतु न पाइआ ॥ रंगी जिनसी जंत उपाए नित देवै चड़ै सवाइआ ॥ अपर्मपरु आपे थापि उथापे तिसु भावै सो होवै ॥ नानक हीरा हीरै बेधिआ गुण कै हारि परोवै ॥२॥ {पन्ना 1112}

पद्अर्थ: भरपुरि = भरपूर है, सबमें व्यापक है। धारि रहे = (प्रभू की सारी सृष्टि को) आसरा दे रहे हैं। सबदे = (गुरू के) शबद से (ये समझ आती है)। रवि रहिआ = सब जीवों में मौजूद है। गुर रूपि = बड़ी हस्ती वाला प्रभू। मुरारे = (मुर+अरि) परामात्मा। त्रिभवन धारे = तीनों भवनों को आसरा दे रहा है। ता का = उस (परमात्मा) का। रंगी = कई रंगों के। जिनसी = कई जिनसों के। चढ़ै सवाइआ = (उसका दिया दान) बढ़ता रहता है।

अपरंपरु = परे से परे प्रभू, जिसका परला छोर नहीं मिल सकता। थापि = पैदा करके। उथापे = नाश करता है। हीरा = पवित्र हो चुका जीवात्मा। हीरै = महान ऊँचे परमात्मा में। बेधिआ = भेद जाता है। गुण कै हारि = गुणों के हार में।2।

अर्थ: हे भाई! गुरू के शबद से (ये समझ आ जाती है कि सब जीवों को) बहुत ही प्यार करने वाला परमात्मा सब में व्यापक है, (सारी सृष्टि को) आसरा दे रहा है, बड़ी हस्ती वाला है और सब जीवों में मौजूद है।

हे भाई! सबसे बड़ी हस्ती वाला परमात्मा तीन भवनों को सहारा दे रहा है, (किसी भी जीव ने अभी तक) उस (के गुणों) का अंत नहीं पाया। वह परमात्मा अनेकों रंगों के अनेकों किस्मों के जीव पैदा करता है, (सब जीवों को) सदा (दान) देता है, और उसका भण्डारा हमेशा बढ़ता ही रहता है।

हे भाई! परमात्मा बहुत बेअंत है, वह स्वयं ही पैदा करके स्वयं ही नाश करता है। (जगत में) वही कुछ होता है जो उसको अच्छा लगता है। हे नानक! (कह- हे भाई! जो जीव उस परमात्मा के) गुणों के हार में (अपने आप को) परो लेता है वह पवित्र हो चुकी जीवात्मा महान ऊँचे परमात्मा में एक-रूप हो जाती है।2।

गुण गुणहि समाणे मसतकि नाम नीसाणो ॥ सचु साचि समाइआ चूका आवण जाणो ॥ सचु साचि पछाता साचै राता साचु मिलै मनि भावै ॥ साचे ऊपरि अवरु न दीसै साचे साचि समावै ॥ मोहनि मोहि लीआ मनु मेरा बंधन खोलि निरारे ॥ नानक जोती जोति समाणी जा मिलिआ अति पिआरे ॥३॥ {पन्ना 1112}

पद्अर्थ: गुणहि = (परमात्मा के) गुणों में। समाणे = लीन हो जाते हैं। मसतकि = (जिन के) माथे पर। नाम नीसाणो = (प्रभू के) नाम (की प्राप्ति) का निशान (लग जाता है, लेख लिखा जाता है)। सचु = सदा स्थिर हरी नाम (सिमर के)। साचि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा में। चूका = समाप्त हो गया। आवण जाणो = जनम मरण का चक्कर।

सचु पछाता = सदा स्थिर प्रभू के साथ सांझ डाल ली। साचै = सदा स्थिर प्रभू में। मनि भावै = (उस के) मन को प्यारा लगता है। साचे ऊपरि = सदा स्थिर प्रभू से बड़ा। साचे साचि = हर वक्त सदा स्थिर प्रभू में।

मोहनि = मोहन प्रभू ने। खोलि = खोल के, तोड़ के। निरारे = निर्लिप (कर देता है)। जोती = ज्योति रूपप्रभू में। जा = जब।3।

अर्थ: हे भाई! जिनके माथे पर परमात्मा की प्राप्ति का लेख लिखा होता है, वह मनुष्य परमात्मा के गुण उचार के उन गुणों में लीन हुए रहते हैं।

हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर हरी-नाम उचार के सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लीन हुआ रहता है, उसका जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है।

हे भाई! सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लीन रहने वाला मनुष्य सदा कायम प्रभू के साथ गहरी सांझ बनाए रखता है, सदा-स्थिर प्रभू के प्रेम-रंग में रंगा रहता है, उसको सदा-स्थिर प्रभू का मिलाप प्राप्त हो जाता है, उसके मन में वह प्यारा लगता रहता है। उस मनुष्य को सदा-स्थिर परमात्मा से बड़ा और कोई नहीं दिखता, वह हर वक्त सदा-स्थिर प्रभू में लीन हो रहा होता है।

हे भाई! उस मोहन (प्रभू) ने मेरा मन (भी) मोह लिया है। हे नानक! कह- हे भाई! जब (कोई बहुत भाग्यशाली मनुष्य उस) अति-प्यारे-परमात्मा को मिल लेता है, उसकी जीवात्मा प्रभू की ज्योति में लीन हो जाती है, प्रभू उसके (माया के मोह के) बँधन काट के उसको (माया से) निर्लिप कर देता है।3।

सच घरु खोजि लहे साचा गुर थानो ॥ मनमुखि नह पाईऐ गुरमुखि गिआनो ॥ देवै सचु दानो सो परवानो सद दाता वड दाणा ॥ अमरु अजोनी असथिरु जापै साचा महलु चिराणा ॥ दोति उचापति लेखु न लिखीऐ प्रगटी जोति मुरारी ॥ नानक साचा साचै राचा गुरमुखि तरीऐ तारी ॥४॥५॥ {पन्ना 1112}

पद्अर्थ: सच घरु = सदा कायम रहने वाले परमात्मा का घर, सॅचे का घर। खोजि = खोज के। गुर थानो = गुरू क स्थान। साचा गुर थानो = सदा स्थिर साध-संगति। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने से। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने से, गुरू की शरण पड़ने से।

देवै = (गुरू) देता है। सचु दानो = सदा स्थिर हरी नाम का दान। सो = वह मनुष्य। सद = सदा। दाणा = समझदार, सयाना। अमरु = कभी ना मरने वाला। जापै = प्रतीत होता है। असथिरु = स्थिर, सदा कायम रहने वाला। साचा = सदा स्थिर। चिराणा महलु = आदि का ठिकाना।

दोति = (द्योति) ज्योति, नूर, प्रकाश। उचापति लेखु = (विकारों के) कर्जे़ का लेख। न लिखीअै = नहीं लिखा जाता। मुरारी = (मुर+अरि) परमात्मा। नानक = हे नानक! साचा = सदा स्थिर हरी रूप। राचा = रचा हुआ, मस्त, लीन। तरीअै = तैरा जा सकता है।4।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को सदा-स्थिर साध-संगति प्राप्त हो जाती है, वह मनुष्य (साध-संगति में) खोज करके सदा कायम रहने वाले परमात्मा का ठिकाना पा लेता है। हे भाई! गुरू की शरण पड़ने से परमात्मा के साथ गहरी सांझ प्राप्त होती है, अपने मन के पीछे चलने वाले को (यह दाति) नहीं मिलती।

हे भाई! (गुरू जिस मनुष्य को) सदा दातें देने वाले बड़े समझदार सदा कायम रहने वाले परमात्मा का नाम-दान देता है, वह मनुष्य उस अमर अजोनी और सदा स्थिर प्रभू (का नाम सदा) जपता रहता है, उस मनुष्य को परमात्मा का आदि का सदा-स्थिर ठिकाना मिल जाता है।

हे नानक! (कह- हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर) परमात्मा की ज्योति प्रकट हो जाती है, उस ज्योति की बरकति से उस मनुष्य का विकारों के कर्ज़े का हिसाब लिखना बंद हो जाता है (भाव, वह मनुष्य विकारों से हट जाता है), वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू का रूप हो जाता है वह मनुष्य हर वक्त सदा स्थिर प्रभू में लीन रहता है।

हे भाई! गुरू की शरण पड़ने से ही (माया के मोह के समुंद्र में से) ये तैराकी की जा सकती है।4।5।

तुखारी महला १ ॥ ए मन मेरिआ तू समझु अचेत इआणिआ राम ॥ ए मन मेरिआ छडि अवगण गुणी समाणिआ राम ॥ बहु साद लुभाणे किरत कमाणे विछुड़िआ नही मेला ॥ किउ दुतरु तरीऐ जम डरि मरीऐ जम का पंथु दुहेला ॥ मनि रामु नही जाता साझ प्रभाता अवघटि रुधा किआ करे ॥ बंधनि बाधिआ इन बिधि छूटै गुरमुखि सेवै नरहरे ॥१॥ {पन्ना 1112}

पद्अर्थ: ऐ अचेत मन = हे अचेत मन! हे लापरवाह मन! गुणी समाणिआ = (परमात्मा के) गुणों में लीन हो।

बहु साद = अनेकों स्वादों में। लुभाणे = लुभावने, फसने वाले। किरत कमाणे = अपने किए कर्मों के अनुसार। दुतरु = (दुस्तर) जिससे पार लांघना मुश्किल है। डरि = डर से। मरीअै = मरते हैं, सहमे रहते हैं। पंथु = रास्ता। दुहेला = दुखदाई।

मनि = मन में। जाता = जाना, सांझ डाली। साझ = सांझ, शाम का समय। प्रभाता = सवेरे। अवघटि = मुश्किल रास्ते में। रुधा = रुका हुआ, फसा हुआ। किआ करे = क्या कर सकता है? बेबस हो जाता है। बंधनि = बँधन से (एक वचन), (माया के मोह की) रस्सी से। इनि बिधि = इस तरीके से। छूटै = बँधन में से निकल सकता है। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। सेवो = सिमरो। नरहरे = परमात्मा।1।

अर्थ: हे मेरे मन! हे मेरे गाफिल मन! हे मेरे अंजान मन! तू होश कर। हे मेरे मन! बुरे कर्म करने छोड़ दे, (परमात्मा के) गुणों (की याद) में लीन रहा कर।

हे मेरे मन! जो मनुष्य अनेकों (पदार्थों के) स्वादों में फसे रहते हैं, वे अपने किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार (परमात्मा से विछुड़े रहते हैं। इन संस्कारों के कारण ही) उन विछुड़े हुओं का (अपने आप परमात्मा के साथ) मिलाप नहीं हो सकता। हे मेरे मन! इस संसार-समुंद्र से पार लांघना बहुत मुश्किल है, (अपने उद्यम से) पार नहीं लांघा जा सकता। जमों के डर से सहम बना रहता है। हे मेरे मन! जमों की तरफ ले जाने वाला रास्ता बहुत दुखदाई है।

हे मेरे मन! जिस मनुष्य ने अपने मन में सवेरे शाम (किसी भी वक्त) परमात्मा के साथ सांझ नहीं डाली, वह (माया के मोह के) मुश्किल राह में फस जाता है (इसमें से निकलने के लिए) वह कुछ भी नहीं कर सकता। (पर हाँ, माया के मोह की) रस्सी के साथ बँधा हुआ वह इस तरीके से निजात पा सकता है कि गुरू की शरण में आकर परमात्मा का सिमरन करे।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh