श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1113 ए मन मेरिआ तू छोडि आल जंजाला राम ॥ ए मन मेरिआ हरि सेवहु पुरखु निराला राम ॥ हरि सिमरि एकंकारु साचा सभु जगतु जिंनि उपाइआ ॥ पउणु पाणी अगनि बाधे गुरि खेलु जगति दिखाइआ ॥ आचारि तू वीचारि आपे हरि नामु संजम जप तपो ॥ सखा सैनु पिआरु प्रीतमु नामु हरि का जपु जपो ॥२॥ {पन्ना 1112-1113} पद्अर्थ: आल = आलय, घर। आल जंजाल = घर के जंजाल, घर के मोह के फंदे। सेवहु = सिमरो, सिमरते रहो। पुरखु = सर्व व्यापक प्रभू। निराला = निर्लिप। ऐकंकारु = इक ओअंकार, जो एक स्वयं ही स्वयं और सर्व व्यापक है। साचा = सदा कायम रहने वाला। जिंनि = जिस ने (छंत की चाल पूरी रखने के लिए एक मात्रा बढ़ा के जिनि' को जिंनि' लिखा गया है)। पउणु = हवा। अगनि = आग। बाधे = (मर्यादा में) बँधे हुए। गुरि दिखाइआ = (जिसको) गुरू ने दिखा दिया है। जगति = जगत में। खेलु = (परमात्मा का रचा हुआ) तमाशा। आचारि = आचारी, कर्मकाण्डी, निहित विशेष मर्यादा में चलने वाला, आचार्य। आचार = धार्मिक निहित मर्यादा। वीचारि = विचारवान, ज्ञानवान। आपे = आप ही। सखा = मित्र। सैनु = सज्जन। जपो = जपता रह।2। अर्थ: हे मेरे मन! घर के मोह के फंदों को छज्ञेड़ दे। हे मेरे मन! उस परमात्मा को सिमरता रह, जो सब में व्यापक भी है और निर्लिप भी है। हे मेरे मन! उस एक सर्व व्यापक और सदा-स्थिर परमात्मा (का नाम) सिमरता रह, जिसने सारा जगत पैदा किया है और हवा पानी आग (आदि तत्वों) को (मर्यादा में) बाँधा हुआ है। हे मेरे मन! (वही मनुष्य नाम सिमरता है जिसको) गुरू ने जगत में (परमात्मा का यह) तमाशा दिखा दिया है (और नाम में जोड़ा हुआ है)। हे मेरे मन! परमात्मा का नाम सदा जपता रह जपता रह, यही है मित्र, यही है सज्जन, यही है प्यारा प्रीतम। हे मेरे मन! परमात्मा का नाम ही है अनेकों संजम, अनेकों जप और अनेकों तप। हे मेरे मन! नाम जपने से ही तू धार्मिक मर्यादा में चलने वाला है, नाम जपने से ही तू ऊँची आत्मिक जीवन की विचार का मालिक है।2। ए मन मेरिआ तू थिरु रहु चोट न खावही राम ॥ ए मन मेरिआ गुण गावहि सहजि समावही राम ॥ गुण गाइ राम रसाइ रसीअहि गुर गिआन अंजनु सारहे ॥ त्रै लोक दीपकु सबदि चानणु पंच दूत संघारहे ॥ भै काटि निरभउ तरहि दुतरु गुरि मिलिऐ कारज सारए ॥ रूपु रंगु पिआरु हरि सिउ हरि आपि किरपा धारए ॥३॥ {पन्ना 1113} पद्अर्थ: थिरु = (प्रभू चरणों में) अडोल। न खावही = ना खाए (मध्यम पुरख, एकवचन), तू नहीं खाएगा। चोट = (विकारों की) चोट। गुण गावहि = (अगर तू परमात्मा के) गुण गाता रहे। सहजि = सहज में, आत्मिक अडोलता में। समावही = तू समा जाएगा। गाइ = गा के। गुण राम = राम के गुण। रसाइ = रसा के, स्वाद से। रसीअहि = तू रस जाएगा, तेरे अंदर रस जाएंगे। अंजनु = सुरमा। गुर गिआन अंजनु = गुरू के ज्ञान का सुरमा, गुरू की बख्शी आत्मिक सूझ का अंजन। गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। सारहे = अगर तू डाल ले (आँखों में)। दीपकु = दीया। त्रै लोक = तीन लोक (धरती आकाश और पाताल) सारा जगत। त्रै लोक दीपकु = सारे जगत का दीया, सारे जगत को रौशनी देने वाला प्रभू। सबदि = गुरू के शबद से। दूत = वैरी। पंच दूत = कामादिक पाँच वैरी। संघारहे = संघारे, तू मार लेगा। भै = सारे डर (बहुवचन)। काटि = काट के। तरहि = तू पार लांघ जाएगा। दुतरु = (वह संसार समुंद्र) जिससे पार लांघना मुश्किल है। गुरि मिलिअै = अगर गुरू मिल जाए। सारऐ = सार देता है, (प्रभू) सवार देता है। कारज = सारे काम। सिउ = साथ। धारऐ = धारे, धारता है।3। अर्थ: हे मेरे मन! तू (परमात्मा के चरणों में) अडोल टिके रहा कर, (इस तरह) तू (विकारों की) चोट नहीं खाएगा। हे मेरे मन! (यदि तू परमात्मा के) गुण गाता रहे, तो तू आत्मिक अडोलता में लीन रहेगा। हे मन! प्रेम से परमात्मा के गुण गाने से (गुण) तेरे अंदर रस जाएंगे। (हे मेरे मन!) यदि तू गुरू की बख्शी हुई आत्मिक जीवन की सूझ का सुरमा (अपनी आत्मिक आँखों में) डाल ले, तो सारे जगत को रौशनी देने वाला दीपक (-प्रभू तेरे अंदर जल उठेगा), गुरू के शबद की बरकति से (तेरे अंदर आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश (हो जाएगा)। तू (कामादिक) पाँच वैरियों को (अपने अंदर से) मार लेगा। हे मेरे मन! (अगर तू परमात्मा के गुण गाता रहेगा, तो अपने अंदर से दुनिया के सारे) डर काट के निर्भय हो जाएगा, इस संसार-समुंद्र से पार लांघ जाएगा जिसमें से पार लांघना मुश्किल है। हे मन! अगर गुरू मिल जाए तो परमात्मा जीव के सारे काम सँवार देता है। हे मन! जिस मनुष्य पर परमात्मा स्वयं कृपा करता है उसका (सुंदर आत्मिक) रूप हो जाता है, परमात्मा के साथ उसका प्यार बन जाता है।3। ए मन मेरिआ तू किआ लै आइआ किआ लै जाइसी राम ॥ ए मन मेरिआ ता छुटसी जा भरमु चुकाइसी राम ॥ धनु संचि हरि हरि नाम वखरु गुर सबदि भाउ पछाणहे ॥ मैलु परहरि सबदि निरमलु महलु घरु सचु जाणहे ॥ पति नामु पावहि घरि सिधावहि झोलि अम्रित पी रसो ॥ हरि नामु धिआईऐ सबदि रसु पाईऐ वडभागि जपीऐ हरि जसो ॥४॥ {पन्ना 1113} पद्अर्थ: किआ लै आइआ = (पैदा होने के समय अपने साथ) क्या ले के तू आया था? लै = लेकर। जाइसी = तू जाएगा। ता = तब। छुटसी = (माया के मोह से) छुटकारा हासिल करेगा। जा = जब। भरमु = (माया की खातिर) भटकना। चुकाइसी = तू दूर कर लेगा। संचि = संचय कर, इकट्ठा कर। वखरु = सौदा। गुर सबदि = गुरू के शबद से। भाउ = प्रेम, प्यार। पछाणहे = पहचाने, अगर तू पहचान ले। मैलु = विकारों की मैल। परहरि = दूर कर के। सबदि = गुरू के शबद से। सचु महलु = सदा स्थिर ठिकाना। सचु घरु = सदा स्थिर घर। जाणहे = तू जान लेगा, तू पा लेगा। पति = (लोक परलोक की) इज्जत। घरि = घर में, (असल) घर में, प्रभू की हजूरी में। सिधावहि = तू पहुँच जाएगा। झोलि = हिला के, नितार के, प्रेम से। अंम्रित रसो = अमृत रस, आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। धिआईअै = ध्याना चाहिए। रसु = स्वाद। पाईअै = मिल सकता है। वडभागि = बड़ी किस्मत से। जपीअै = जपा जा सकता है। हरि जसो = हरी यश।4। अर्थ: हे मेरे मन! ना तू (जन्म के समय) अपने साथ कुछ ले कर आया था, ना तू (यहाँ से चलने के वक्त) अपने साथ कुछ लेकर जाएगा (व्यर्थ ही माया के मोह के फंदों में फस रहा है)। हे मन! (माया के मोह के फदों से) तभी तेरा छुटकारा होगा, जब तू (माया की खातिर) भटकना को छोड़ देगा। हे मेरे मन! परमात्मा के नाम का धन इकट्ठा किया कर, नाम का सौदा (किया कर)। हे मन! अगर तू गुरू के शबद के द्वारा (अपने अंदर प्रभू का) प्यार पहचान ले, तो शबद की बरकति से (विकारों की) मैल दूर कर के तू पवित्र हो जाएगा। तू सदा कायम रहने वाला घर-महल ढूँढ लेगा। हे मेरे मन! आत्मिक जीवनदेने वाला नाम-रस मजे लगा के पीया कर, तू (लोक-परलोक की) इज्जत (लोक-परलोक की) प्रसिद्धि कमा लेगा, प्रभू की हजूरी में पहुँच जाएगा। हे मन! (सदा) परमात्मा का नाम सिमरना चाहिए, (नाम का) स्वाद गुरू के शबद द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। हे मन! बड़ी किस्मत से (ही) परमात्मा की सिफतसालाह की जा सकती है।4। ए मन मेरिआ बिनु पउड़ीआ मंदरि किउ चड़ै राम ॥ ए मन मेरिआ बिनु बेड़ी पारि न अ्मबड़ै राम ॥ पारि साजनु अपारु प्रीतमु गुर सबद सुरति लंघावए ॥ मिलि साधसंगति करहि रलीआ फिरि न पछोतावए ॥ करि दइआ दानु दइआल साचा हरि नाम संगति पावओ ॥ नानकु पइअ्मपै सुणहु प्रीतम गुर सबदि मनु समझावओ ॥५॥६॥ {पन्ना 1113} पद्अर्थ: मंदरि = मन्दिर पर, कोठे पर। किउ चढ़ै = कैसे (कोई) चढ़ सकता है? (कोई) नहीं चढ़ सकता। न अंबड़ै = नहीं पहुँच सकता। पारि = (नदी के) उस पार। पारि = परले पासे, उस पार, (विकारों की लहरों से भरपूर संसार समुंद्र के) उस पार। अपारु = बेअंत प्रभू। सबद सुरति = शबद की सुरति, शबद की समझ। लंघावऐ = (पार) लंघाती है। मिलि = मिल के। करहि रलीआ = यदि तू आत्मिक आनंद पाए। न पछोताणऐ = नहीं पछताता (वर्तमान काल, अन्नपुरख, एकवचन)। दइआल = हे दयालु प्रभू! साचा दानु = सदा स्थिर नाम का दान। पावओ = मैं प्राप्त करूँ। नाम संगति = नाम का साथ। नानकु पइअंपै = नानक विनती करता है। प्रीतम = हे प्रीतम! (शब्द 'प्रीतमु' और 'प्रीतम' का व्याकर्णिक अंतर है)। समझावओ = मैं समझाऊँ।5। अर्थ: हे मेरे मन! (जैसे) सीढ़ियों के बगैर (कोई भी मनुष्य) कोठे (की छत) पर नहीं चढ़ सकता (वैसे ही उच्च आत्मिक ठिकाने पर बसते परमात्मा तक सिमरन की सीढ़ी के बिना पहुँच नहीं हो सकती)। हे मेरे मन! बेड़ी के बिना कोई मनुष्य नदिया के उस पार नहीं पहुँच सकता। हे मन! सज्जन प्रभू! बेअंत प्रभू, प्रीतम प्रभू (विकारों की लहरों से भरपूर संसार-समुंद्र के) उस पार (बसता है)। गुरू के शबद की सूझ (ही इस संसार-समुंद्र के उस पार) लंघा सकती है। हे मन! यदि तू साध-संगति में मिल के आत्मिक आनंद लेता रहे (तो भी तू इस संसार-समुंद्र के परले पासे पहुँच जाए। जो भी मनुष्य साध-संगति में मिल के नाम जपता है, उसको) दोबारा पछताना नहीं पड़ता (क्योंकि उसको संसार-समुंद्र की विकार-लहरों की चोटें दुख नहीं दे सकतीं)। नानक विनती करता है- हे दयालु प्रभू! (मेरे ऊपर) दया कर, मुझे अपने सदा-स्थिर नाम का दान दे, मैं तेरे नाम की संगति हासिल करी रखूँ। हे प्रीतम! (मेरी विनती) सुन (मेहर कर) मैं गुरू के शबद द्वारा अपने मन को (आत्मिक जीवन की) सूझ देता रहूँ।5।6। तुखारी छंत महला ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ अंतरि पिरी पिआरु किउ पिर बिनु जीवीऐ राम ॥ जब लगु दरसु न होइ किउ अम्रितु पीवीऐ राम ॥ किउ अम्रितु पीवीऐ हरि बिनु जीवीऐ तिसु बिनु रहनु न जाए ॥ अनदिनु प्रिउ प्रिउ करे दिनु राती पिर बिनु पिआस न जाए ॥ अपणी क्रिपा करहु हरि पिआरे हरि हरि नामु सद सारिआ ॥ गुर कै सबदि मिलिआ मै प्रीतमु हउ सतिगुर विटहु वारिआ ॥१॥ {पन्ना 1113} पद्अर्थ: अंतरि = अंदर, मेरे अंदर, मेरे हृदय में। पिरी = पिर का, प्रभू पति का। किउ जीवीअै = कैसे जीया जा सकता है? आत्मिक जीवन प्राप्त नहीं हो सकता। जब लगु = जब तक। दरसु = दर्शन। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। किउ पीवीअै = नहीं पीया जा सकता। हरि बिनु जीवीअै = (क्यों) हरि बिनु जीवीअै, प्रभू मिलाप के बिना आत्मिक जीवन नहीं मिल सकता। रहनु न जाइ = रहा नहीं जा सकता, शांति नहीं मिलती, बेचैन हो रहा है (मन)। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। प्रिउ प्रिउ करे = प्यारे (प्रभू) को बार बार याद करती है। पिआस = तृष्णा, माया की तृष्णा (जैसे स्वाति नछत्र की वर्षा = बूँद के बिना पपीहे की प्यास नहीं बुझती)। करहु = करते हो। हरि पिआरे = हे प्यारे हरी! सद = सदा। सारिआ = संभाला है, याद किया है। कै सबदि = के शबद से। मै = मुझे। हउ = मैं। विटहु = से। वारिआ = कुर्बान।1। अर्थ: (हे सखिए!) मेरे हृदय में प्रभू-पति का प्यार बस रहा है। प्रभू-पति के मिलाप के बिना आत्मिक जीवन (कभी) नहीं मिल सकता। (हे सखी!) जब तक प्रभू-पति के दर्शन नहीं होते, (तब तक) आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल पीया नहीं जा सकता। (हे सखी! प्रभू-पति के दर्शनों के बिना) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल (कभी भी) पीया नहीं जा सकता, प्रभू-पति की याद के बिना आत्मिक जीवन नहीं मिल सकता, प्रभू-पति के मिलाप के बिना आत्मिक शांत नहीं मिल सकती। (हे सखी! जिस जीव-स्त्री के हृदय में प्रभू-पति का प्यार बसता है, वह) हर वक्त दिन रात प्रभू-पति को बार-बार याद करती रहती है। (हे सखी!) प्रभू-पति के मिलाप के बिना (माया की) तृष्णा दूर नहीं होती (जैसे स्वाति-नक्षत्र की वर्षा-बूँद के बिना पपीहे की प्यास नहीं मिटती)। हे प्यारे हरी! (जिस जीव पर) तू अपनी मेहर करता है, वह हर वक्त हरी-नाम को (अपने हृदय में) बसाए रखता है। हे भाई! मैं (अपने) गुरू से सदा सदके जाता हूँ, (क्योंकि) गुरू के शबद की बरकति से मुझे (भी) प्रभू-प्रीतम मिल गया है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |