श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जब देखां पिरु पिआरा हरि गुण रसि रवा राम ॥ मेरै अंतरि होइ विगासु प्रिउ प्रिउ सचु नित चवा राम ॥ प्रिउ चवा पिआरे सबदि निसतारे बिनु देखे त्रिपति न आवए ॥ सबदि सीगारु होवै नित कामणि हरि हरि नामु धिआवए ॥ दइआ दानु मंगत जन दीजै मै प्रीतमु देहु मिलाए ॥ अनदिनु गुरु गोपालु धिआई हम सतिगुर विटहु घुमाए ॥२॥ {पन्ना 1114}

पद्अर्थ: देखां = मैं देखती हूँ। पिरु = पति। रसि = रस से, स्वाद से। रवा = मैं याद करती हूँ। मेरे अंतरि = मेरे अंदर, मेरे हृदय में। विगासु = खुशी, खिड़ाव। सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभू। नित = सदा। चवा = मैं उचारती हूँ।

प्रिउ चवा पिआरे = प्यारे पति को याद करती हूँ। सबदि = गुरू के शबद में (जोड़ के)। निसतारे = (संसार समुंद्र से) पार लंघा लेता है। त्रिपति = (माया की भूख से) तृप्ति। आवऐ = आए, आती। कामणि = (जीव-) स्त्री। धिआवऐ = ध्याती है।

मंगत जन दीजै = मंगते दास को दो। मै = मुझे। देहु मिलाऐ = मिला दे। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। गोपालु = (गो = सृष्टि) सृष्टि के पालक। धिआई = मैं ध्याता हूँ। विटहु = से। घुमाऐ = सदके, कुर्बान।2।

अर्थ: हे सखी! जब मैं प्यारे प्रभू-पति के दर्शन करती हूँ, तब मैं बड़े स्वाद से उस हरी के गुण याद करती हूँ, मेरे हृदय में खुशी पैदा हो जाती है। (तभी तो, हे सखी!) उस सदा कायम रहने वाले प्यारे प्रभू का नाम सदा उचारती रहती हूँ।

हे सखी! मैं प्यारे प्रीतम का नाम (सदा) उचारती हूँ। वह प्रीतम-प्रभू गुरू के शबद द्वारा (जीव-स्त्री को संसार-समुंद्र से) पार लंघा लेता है। (हे सखी! उस प्रीतम के) दर्शन किए बिना (माया से) तृप्ति नहीं होती। हे सखी! गुरू के शबद द्वारा जिस जीव-स्त्री का (आत्मिक) श्रंृगार बना रहता है (भाव, जिसका हृदय पवित्र हो जाता है) वह हर वक्त परमात्मा का नाम सिमरती रहती है।

हे भाई! मैं अपने गुरू से सदा सदके जाता हूँ, हर वक्त प्रभू के रूप गुरू को अपने हृदय में बसाए रखता हूँ (और गुरू के दर पर नित्य अरदास करता हॅूँ- हे गुरू!) दया कर, मुझे अपने मँगते दास को ये दान दे कि मुझे प्रीतम-प्रभू मिला दे।2।

हम पाथर गुरु नाव बिखु भवजलु तारीऐ राम ॥ गुर देवहु सबदु सुभाइ मै मूड़ निसतारीऐ राम ॥ हम मूड़ मुगध किछु मिति नही पाई तू अगमु वड जाणिआ ॥ तू आपि दइआलु दइआ करि मेलहि हम निरगुणी निमाणिआ ॥ अनेक जनम पाप करि भरमे हुणि तउ सरणागति आए ॥ दइआ करहु रखि लेवहु हरि जीउ हम लागह सतिगुर पाए ॥३॥ {पन्ना 1114}

पद्अर्थ: हम = हम जीव। पाथर = पत्थर (बहुवचन)। नाव = बेड़ी। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाला जहर। भवजलु = संसार समुंद्र। तारीअै = पार लंघा ले। गुर सबदु = गुरू का शबद। सुभाइ = प्यार में (जोड़ के)। मै = मुझे। मूढ़ = मूर्ख।

मुगध = मूर्ख, अज्ञानी। मिति = माप, तेरी मिति, तेरा नाम, तू कितना बड़ा है ये बात। अगंमु = अपहुँच। वड = बड़ा। दइआलु = दया का घर। करि = कर के। निरगुणी = गुण हीन। निमाणिआ = निआसरों को। करि = कर के। भरमे = भटकते रहे। तउ = तेरी। हम लागह = हम लगे रहें। पाऐ = पैरों पर।3।

अर्थ: हे प्रभू! हम जीव (पापों से भारे हो चुके) पत्थर है, गुरू बेड़ी है। (हम जीवों को गुरू की शरण में डाल के) आत्मिक मौत लाने वाले संसार-समुंद्र से पार लंघा ले। हे प्रभू! अपने प्यार में (जोड़ के) गुरू का शबद दे, और मुझ मूर्ख को (संसार-समुंद्र से) पार लंघा ले।

हे प्रभू! हम जीव मूर्ख हैं, अज्ञानी हैं। तू कितना बड़ा है- हम इस बात को नहीं समझ सकते। (गुरू की शरण पड़ कर अब यह) समझा है कि तू अपहुँच है, तू सबसे बड़ा है। हे प्रभू! तू दया का घर है। हम गुण-हीन निमाणे जीवों को तू स्वयं मेहर करके (अपने चरणों में) मिलाता है।

हे प्रभू जी! पाप कर कर के हम अनेकों जन्मों में भटकते रहे हैं, अब (तेरी मेहर से) तेरी शरण आए हैं। हे हरी जीउ! मेहर करो, रक्षा करो कि हम गुरू के चरणों में लगे रहें।3।

गुर पारस हम लोह मिलि कंचनु होइआ राम ॥ जोती जोति मिलाइ काइआ गड़ु सोहिआ राम ॥ काइआ गड़ु सोहिआ मेरै प्रभि मोहिआ किउ सासि गिरासि विसारीऐ ॥ अद्रिसटु अगोचरु पकड़िआ गुर सबदी हउ सतिगुर कै बलिहारीऐ ॥ सतिगुर आगै सीसु भेट देउ जे सतिगुर साचे भावै ॥ आपे दइआ करहु प्रभ दाते नानक अंकि समावै ॥४॥१॥ {पन्ना 1114}

पद्अर्थ: लोह = लोहा। मिलि = (गुरू पारस को) मिल के। कंचनु = सोना। जोती = परमात्मा की ज्योति में। जोति = जीवात्मा, जिंद। मिलाइ = मिला के। काइआ = शरीर। गढ़ = किला। सोहिआ = सोहाना बन गया है।

प्रभि = प्रभू ने। मोहिआ = मोह लिया है, अपने प्रेम में जकड़ लिया है। सासि = (हरेक) सांस के साथ। गिरासि = (हरेक) ग्रास के साथ। किउ विसारीअै = नहीं बिसारना चाहिए। अगोचरु = जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती (अ+गो+चरु)। सबदी = शबद से। हउ = मैं। कै = से।

सीसु = सिर। देउ = मैं दे दूँ। भावे = अच्छा लगे। प्रभ = हे प्रभू! दाते = हे दातार! अंकि = अंक में, गोद में, चरनों में। समावै = लीन हो जाता है।4।

अर्थ: हे भाई! गुरू पारस है हम जीव लोहा हैं, (जैसे लोहा पारस को) छू के सोना बन जाता है, (वैसे ही गुरू के द्वारा) परमात्मा की ज्योति में (अपनी) जिंद मिला के (हम जीवों का) शरीर-किला सुंदर बन जाता है।

हे भाई! (जिस जीव को) मेरे प्रभू ने अपने प्रेम में जोड़ लिया, उसका शरीर-किला सुंदर हो जाता है, उस प्रभू को (हरेक) साँस के साथ (हरेक) ग्रास के साथ (याद रखना चाहिए, उसको) कभी भुलाना नहीं चाहिए। हे भाई! मैंने उस अदृष्ट अगोचर (परमात्मा के चरणों) को गुरू के शबद की बरकति से अपने हृदय में बसा लिया है। मैं गुरू से सदके जाता हूँ। हे भाई! अगर सदा-स्थिर प्रभू के रूप गुरू को अच्छा लगे, तो मैं अपना सिर गुरू के आगे भेट कर दूँ।

हे नानक! (कह-) हे दातार! हे प्रभू! जिस मनुष्य पर तू स्वयं मेहर करता है, वह तेरे चरणों में लीन हो जाता है।4।1।

तुखारी महला ४ ॥ हरि हरि अगम अगाधि अपर्मपर अपरपरा ॥ जो तुम धिआवहि जगदीस ते जन भउ बिखमु तरा ॥ बिखम भउ तिन तरिआ सुहेला जिन हरि हरि नामु धिआइआ ॥ गुर वाकि सतिगुर जो भाइ चले तिन हरि हरि आपि मिलाइआ ॥ जोती जोति मिलि जोति समाणी हरि क्रिपा करि धरणीधरा ॥ हरि हरि अगम अगाधि अपर्मपर अपरपरा ॥१॥ {पन्ना 1114}

पद्अर्थ: अगम = हे अपहुँच प्रभू! अगाधि = हे अथाह हरी! अपरंपर = हे परे से परे हरी! अपरपरा = जिसका परला छोर नहीं मिलता। धिआवहि = ध्याते हैं (बहुवचन)। जगदीस = (जगत ईस) हे जगत के मालिक! ते जन = (बहुवचन) वह मनुष्य। भउ = भवजल, संसार समुंद्र। बिखमु = मुश्किल (संसार समुंदर)। तरा = तैर जाते हैं, पार लांघ जाते हैं।

तिन तरिआ = उन मनुष्यों ने तैरा, वह लोग पार लांघे। सुहेला = आसानी से। गुर वाकि सतिगुर = गुर सतिगुरू वाक, गुरू के बचन अनुसार, गुरू की शिक्षा पर चल के। भाइ = प्रेम में, प्रेम के आसरे। चले = जीवन सफर में चलते रहे, जीवन व्यतीत करते रहे।

जोती जोति मिलि = प्रकाश रूप ज्योति में मिल के। मिलि = मिल के। जोति समाणी = उनकी जीवात्मा लीन हो गई। करि = करी, की। धरणी धरा = धरती का आसरा हरी। धरणी = धरती। धरा = आसरा।1।

अर्थ: हे हरी! हे अपहुँच हरी! हे अथाह हरी! हेबेअंत हरी! हे परे से परे हरी! हे जगत के मालिक हरी! जो मनुष्य तेरा नाम सिमरते हैं वह मनुष्य इस मुश्किल से तैरे जाने वाले संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं

हे भाई! जिन मनुष्यों ने (सदा) परमात्मा का नाम सिमरा है, वे मनुष्य इस मश्किल से तैरे जाने वाले संसार-समुंदर से आसानी से पार लांघ जाते हैं। हे भाई! जो मनुष्य गुरू सतिगुरू की शिक्षा पर चल कर प्रेम के आसरे जीवन व्यतीत करते रहे, उनको परमात्मा ने स्वयं (अपने चरणों में) मिला लिया।

हे हरी! हे अपहुँच हरी! हे अथाह हरी! हे परे से परे हरी! हे बेअंत हरी! हे धरती के आसरे हरी! जिन पर तूने कृपा की, उनकी जीवात्मा तेरी ज्योति में मिल के तेरी ही ज्योति में लीन हुई रहती है।1।

तुम सुआमी अगम अथाह तू घटि घटि पूरि रहिआ ॥ तू अलख अभेउ अगमु गुर सतिगुर बचनि लहिआ ॥ धनु धंनु ते जन पुरख पूरे जिन गुर संतसंगति मिलि गुण रवे ॥ बिबेक बुधि बीचारि गुरमुखि गुर सबदि खिनु खिनु हरि नित चवे ॥ जा बहहि गुरमुखि हरि नामु बोलहि जा खड़े गुरमुखि हरि हरि कहिआ ॥ तुम सुआमी अगम अथाह तू घटि घटि पूरि रहिआ ॥२॥ {पन्ना 1114}

पद्अर्थ: सुआमी = मालिक। अगम = हे अपहुँच! घटि = शरीर में। घटि घटि = हरेक शरीर में। तू पूरि रहिआ = तू व्यापक है। अलख = जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके। अभेउ = जिसका भेद ना पाया जा सके, अ+भेव। अगंमु = अपहुँच। बचनि = बचनों से। गुर बचनि = गुरू के वचन से। लहिआ = पा लिया।

धनु धंनु = धन्य हैं धन्य हैं। ते जन = (बहुवचन) वह मनुष्य। मिलि = मिल के। रवे = याद किए। बिबेक = परख, अच्छे बुरे की परख। बिबेक बुधि = परख कर सकने वाली बुद्धि से। बीचारि = (प्रभू के गुणों को) विचार के, मन में बसा के। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। गुर सबदि = गुरू के शबद से। खिनु खिनु = हरेक छिन, हर वक्त। चवे = उचारे।

ज = जब। बहहि = बैठते हैं (बहुवचन)। खड़े = खड़े हुए हैं। कहिआ = सिमरा। सुआमी = मालिक।2।

अर्थ: हे अपहुँच प्रभू! हे अथाह प्रभू! तू (सबका) मालिक है; तू हरेक शरीर में व्यापक है। हे भाई! अदृष्ट, अभेव और अपहुँच प्रभू गुरू सतिगुरू के वचनों से मिल जाता है।

हे भाई! वह पूरन-पुरख भाग्यशाली हैं, जिन्होंने गुरू-संत की संगति में मिल के परमात्मा के गुण याद किए हैं। हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य अच्छे-बुरे कर्म की परख कर सकने वाली बुद्धि से परमात्मा के गुणों को अपने मन में बसा के गुरू के शबद की बरकति से परमात्मा के गुणों को सदा हर पल सिमरते रहते हैं।

हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य जब (कहीं) बैठते हैं तो परमात्मा का नाम उचारते हैं, जब खड़े होते हैं तब भी वे हरी-नाम ही उचारते हैं (भाव, गुरमुख मनुष्य बैठे-खड़े हर समय परमात्मा का नाम याद रखते हैं)।

हे अपहुँच प्रभू! हे अथाह प्रभू! तू (सब जीवों का) मालिक है; और तू हरेक शरीर में व्यापक है।2।

सेवक जन सेवहि ते परवाणु जिन सेविआ गुरमति हरे ॥ तिन के कोटि सभि पाप खिनु परहरि हरि दूरि करे ॥ तिन के पाप दोख सभि बिनसे जिन मनि चिति इकु अराधिआ ॥ तिन का जनमु सफलिओ सभु कीआ करतै जिन गुर बचनी सचु भाखिआ ॥ ते धंनु जन वड पुरख पूरे जो गुरमति हरि जपि भउ बिखमु तरे ॥ सेवक जन सेवहि ते परवाणु जिन सेविआ गुरमति हरे ॥३॥ {पन्ना 1114-1115}

पद्अर्थ: सेवहि = सेवा भक्ति करते हैं, सिमरते हैं। ते = (बहुवचन) वह मनुष्य। गुरमति = गुरू की मति पर चल के। कोटि पाप = करोड़ों पाप। सभि = सारे। परहरि = दूर कर के।

दोख = ऐब, अवगुण। बिनसे = नाश हो जाते हैं। मनि = मन में। चिति = चित में। इकु = एक परमात्मा को। सफलिओ = कामयाब। सभ = सारा। करतै = करतार ने। बचनी = बचनों से। सचु = सदा कायम रहने वाला हरी नाम। भाखिआ = उचारा, जपा।

धंनु = भाग्यशाली। पूरे = सब गुणों वाले। जपि = जप के। भउ = भव सागर, संसार समुंद्र। बिखमु = मुश्किल से तैरा जा सकने वाला। ते = पार हो गए।3।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भगत (परमात्मा की) सेवा-भगती करते हैं, वे (परमात्मा की हजूरी में) आदर-सत्कार पाते हैं। हे भाई! जिन मनुष्यों ने गुरू की मति पर चल कर प्रभू की सेवा-भक्ति की, परमात्मा ने उनके सारे पाप एक छिन में दूर कर दिए।

हे भाई! जिन मनुष्यों ने अपने मन में अपने चिक्त में एक परमात्मा का सिमरन किया, उनके सारे पाप उनके सारे अवगुण नाश हो गए। हे भाई! जिन मनुष्यों ने गुरू के वचनों पर चल कर सदा-स्थिर हरी-नाम सिमरा, करतार ने उनका सारा जनम सफल कर दिया।

हे भाई! वे मनुष्य भाग्यशाली हैं, महापुरख हैं, गुणों के पात्र हैं, जो गुरू की मति पर चल कर इस मुश्किल तैरे जाने वाले संसार-समुंद्र से पार लांघ जाते हैं।

हे भाई! परमात्मा के भगत (परमात्मा की) सेवा-भक्ति करते हैं, वह (परमात्मा की हजूरी में) आदर-सत्कार पाते हैं। हे भाई! जिन मनुष्यों ने गुरू की मति पर चल के प्रभू की सेवा-भक्ति की (परमात्मा ने उनके सारे पाप एक छिन में ही दूर कर दिए)।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh