श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1115

तू अंतरजामी हरि आपि जिउ तू चलावहि पिआरे हउ तिवै चला ॥ हमरै हाथि किछु नाहि जा तू मेलहि ता हउ आइ मिला ॥ जिन कउ तू हरि मेलहि सुआमी सभु तिन का लेखा छुटकि गइआ ॥ तिन की गणत न करिअहु को भाई जो गुर बचनी हरि मेलि लइआ ॥ नानक दइआलु होआ तिन ऊपरि जिन गुर का भाणा मंनिआ भला ॥ तू अंतरजामी हरि आपि जिउ तू चलावहि पिआरे हउ तिवै चला ॥४॥२॥ {पन्ना 1115}

पद्अर्थ: अंतरजामी = (अन्तर+या) अंदर तक पहुँच वाला, अंदर की जानने वाला। जिउ = जैसे, जिस तरह। चलावहि = (जीवन राह पर) तू चलाता है। हउ = मैं। चला = चलता हूँ। हाथि = हाथ में। जा = जब। आइ = आ के। मिला = मैं मिलता हूँ।

कउ = को। हरि = हे हरी! सुआमी = हे स्वामी! सभु = सारा। छुटकि गइआ = खत्म हो गया, समाप्त हो जाता है। गणत = दंत कथा, नुक्ताचीनी, कर्मों की गिनती विचार। को = कोई पक्ष। भाई = हे भाई! गुर बचनी = गुरू के वचनों से।

नानक = हे नानक! भला = भला जान के। भाणा = हुकम, रज़ा।4।

अर्थ: हे हरी! तू स्वयं सब के दिल की जानने वाला है। हे प्यारे! जैसे तू (हम जीवों को) जीवन-राह पर चलाता है, मैं उसी तरह ही चलता हूँ। हे हरी! हम जीवों के वश में कुछ भी नहीं। जब तू (मुझे अपने चरणों में) मिलाता है, तब (ही) मैं आ के मिलता हूँ।

हे हरी! हे स्वामी! जिनको तू (अपने चरणों में) जोड़ता है, उनके (पिछले किए कर्मों का) सारा लेख समाप्त हो जाता है (उनके अंदर से पिछले किए सारे बुरे कर्मों के संस्कार मिट जाते हैं)। हे भाई! जिन मनुष्यों को परमात्मा गुरू के बचनों पर चला के (अपने साथ) मिलाता है, कोई भी पक्ष उनके (पिछले कर्मों की) विचार मत करना (क्योंकि उनके अंदर से तो वे सारे संस्कार मिट जाते हैं)।

हे नानक! जो मनुष्य गुरू की रज़ा को मीठी कर के मानते हैं, परमात्मा उन पर स्वयं दयावान होता है।

हे हरी! तू स्वयं सब के दिल की जानने वाला है। हे प्यारे! जैसे तू (हम जीवों को) जीवन-राह पर चलाता है, मैं उसी तरह चलता हूँ।4।2।

तुखारी महला ४ ॥ तू जगजीवनु जगदीसु सभ करता स्रिसटि नाथु ॥ तिन तू धिआइआ मेरा रामु जिन कै धुरि लेखु माथु ॥ जिन कउ धुरि हरि लिखिआ सुआमी तिन हरि हरि नामु अराधिआ ॥ तिन के पाप इक निमख सभि लाथे जिन गुर बचनी हरि जापिआ ॥ धनु धंनु ते जन जिन हरि नामु जपिआ तिन देखे हउ भइआ सनाथु ॥ तू जगजीवनु जगदीसु सभ करता स्रिसटि नाथु ॥१॥ {पन्ना 1115}

पद्अर्थ: जग जीवनु = जगत का जीवन, जगत के जीवों को जिंदगी देने वाला। जगदीसु = जगत का ईश, जगत का मालिक। नाथु = खसम, पति। तू = तुझे। जिन कै = जिनके भाग्यों में। धुरि = धुर से, प्रभू की हजूरी से। लेखु = (सिमरन के संस्कारों का) लेख। माथु = माथा।

तिन कउ = जिन के लिए। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। सभि पाप = सारे पाप। गुरबचनी = गुरू के बचनों पर चल के। जापिआ = जपा। ते जन = (वह लोग)। तिन देखे = उनको देख के, उनके दर्शन करके। हउ = मैं। सनाथु = नाथ वाला, पति वाला।1।

अर्थ: हे प्रभू! तू जगत के जीवों को जिंदगी देने वाला है, तू जगत का मालिक है, तू सारी (सृष्टि) का खसम है। हे प्रभू! धुर दरगाह से जिनके भाग्यों में (हरी-सिमरन के संस्कारों का) लेख लिखा हुआ है, जिनका माथा भाग्यशाली है, उन्होंने तुझे सिमरा है। हे भाई! उन्होंने मेरे राम को सिमरा है।

हे भाई! मालिक-हरी ने जिनके भाग्यों में धुर से सिमरन का लेख लिख दिया है, वह (सदा) हरी-नाम का सिमरन करते हैं। हे भाई! जिन्होंने गुरू के बचनों पर चल के परमात्मा का नाम जपा है, उनके सारे सारे पाप आँख झपकने जितने समय में दूर हो जाते हैं।

हे भाई! वे मनुष्य भाग्यशाली हैं, मुबारक हैं, जो परमात्मा का नाम जपते हैं। उनके दर्शन करके मैं (भी) पति वाला (कहलवाने योग्य) हो गया हूँ (क्योंकि मैं भी पति-प्रभू का नाम जपने लग गया हूँ)।

हे प्रभू! तू जगत के जीवों को जिंदगी देने वाला है, तू जगत का मालिक है, तू सारी (सृष्टि) का पैदा करने वाला है, तू सृष्टि का खसम पति है।1।

तू जलि थलि महीअलि भरपूरि सभ ऊपरि साचु धणी ॥ जिन जपिआ हरि मनि चीति हरि जपि जपि मुकतु घणी ॥ जिन जपिआ हरि ते मुकत प्राणी तिन के ऊजल मुख हरि दुआरि ॥ ओइ हलति पलति जन भए सुहेले हरि राखि लीए रखनहारि ॥ हरि संतसंगति जन सुणहु भाई गुरमुखि हरि सेवा सफल बणी ॥ तू जलि थलि महीअलि भरपूरि सभ ऊपरि साचु धणी ॥२॥ {पन्ना 1115}

पद्अर्थ: जलि = जल में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि (मही = धरती। तलि = तल पर)। धरती के तल पर, आकाश में। भरपूरि = व्यापक। साचु = सदा कायम रहने वाला। धणी = मालिक। मनि = मन में। चिति = चिक्त में। जपि जपि = बार बार जप के। घणी = बहुत सारी दुनिया।

ते = वे (बहुवचन)। मुकत = विकारों से स्वतंत्र। तिन के मुख = उनके मुँह। ऊजल = रौशन। दुआरि = द्वारे पर, दर पर। ओइ = ('ओह' का बहुवचन) वे लोग। हलति = (अत्र) इस लोक में। पलति = (परत्र) परलोक में। सुहेले = सुखी। रखनहारि = राखनहार ने, बचाने की समर्थता वाले ने।

भाई = हे भाई! गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने वाले ने। सफल = फल वाली, कामयाब।2।

अर्थ: हे प्रभू! तू जल में धरती में आकाश में (हर जगह) व्यापक है, तू सब जीवों के सिर पर है, तू सदा कायम रहने वाला मालिक है। हे भाई! जिन मनुष्यों ने अपने मन में अपने चिक्त में परमात्मा का नाम (सदा) जपा (वे विकारों से बच गए)। हे भाई! प्रभू का नाम बार-बार जपके बेअंत दुनिया मुक्त हो जाती है।

हे भाई! जो प्राणी परमात्मा का नाम जपते हैं, वे पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं, परमात्मा के दर पर उनके मुँह उज्जवल होते हैं (प्रभू के द्वार पर वे आदर-मान पाते हैं)। वे लोग इस लोक में और परलोक में सुखी जीवन वाले हो जाते हैं। बचाने की समर्थता वाले परमात्मा ने उन्हें स्वयं (विकारों से) बचा लिया होता है।

हे हरी! हे संत जनो! हे साध-संगति! हे भाई! सुनो- गुरू की शरण पड़ कर ही परमात्मा की की हुई सेवा-भक्ति सफल होती है।

हे प्रभू! तू जल में धरती में आकाश में (हर जगह) व्यापक है, तू सब जीवों के सिर पर है, तू सदा कायम रहने वाला मालिक है।2।

तू थान थनंतरि हरि एकु हरि एको एकु रविआ ॥ वणि त्रिणि त्रिभवणि सभ स्रिसटि मुखि हरि हरि नामु चविआ ॥ सभि चवहि हरि हरि नामु करते असंख अगणत हरि धिआवए ॥ सो धंनु धनु हरि संतु साधू जो हरि प्रभ करते भावए ॥ सो सफलु दरसनु देहु करते जिसु हरि हिरदै नामु सद चविआ ॥ तू थान थनंतरि हरि एकु हरि एको एकु रविआ ॥३॥ {पन्ना 1115}

पद्अर्थ: थान थनंतरि = स्थान स्थान अंतर, हरेक जगह में। रविआ = व्यापक, मौजूद। वणि = बन में। त्रिणि = तृण में, घास के तीले में। त्रिभवणि = तीन भवनों वाले जगत में। मुखि = मुँह से। चविआ = उचारा।

सभि = सारे जीव। चवहि = उचारते हैं। करते = करतार ने। असंख = जिनकी संख्या नहीं गिनी जा सकती, अनगिनत। धिआवऐ = ध्यावै, ध्यान लगाती है (एकवचन)। करते भावऐ = करतार को भाती है।

सफलु = कामयाब। सो = वह मनुष्य। दरसनु = (उस मनुष्य के) दर्शन। करते = हे करतार! जिसु हिरदै = जिस हृदय में। सद = सदा। चविआ = उचारा।

अर्थ: हे हरी! हरेक जगह में एक तू ही तू मौजूद है।

हे प्रभू! जंगल में, तिनकों में, त्रिभवणी जगत में- हर जगह तू ही तू बस रहा है। हे भाई! सारी सृष्टि (भाव, सारी सृष्टि के जीव) अपने मुँह से हरी-नाम ही उचार रही है।

हे भाई! असंखों जीव अनगिनत जीव सारे ही करतार का नाम सदा उचार रहे हैं। हे भाई! (सारी सृष्टि) हरी का नाम सिमर रही है। हे भाई! हरी का वह संत हरी का वह साधु धन्य है धन्य है, जो हरी-प्रभू को जो करतार को प्यारा लगता है (भा जाता है)।

हे करतार! जिसके हृदय में (तू बसता है), जो सदा (तेरा) नाम उचारता है, वह मनुष्य कामयाब (जीवन वाला) है, (मुझे उसका) दर्शन बख्श। हे हरी! हरेक जगह पर एक तू ही तू मौजूद है।3।

तेरी भगति भंडार असंख जिसु तू देवहि मेरे सुआमी तिसु मिलहि ॥ जिस कै मसतकि गुर हाथु तिसु हिरदै हरि गुण टिकहि ॥ हरि गुण हिरदै टिकहि तिस कै जिसु अंतरि भउ भावनी होई ॥ बिनु भै किनै न प्रेमु पाइआ बिनु भै पारि न उतरिआ कोई ॥ भउ भाउ प्रीति नानक तिसहि लागै जिसु तू आपणी किरपा करहि ॥ तेरी भगति भंडार असंख जिसु तू देवहि मेरे सुआमी तिसु मिलहि ॥४॥३॥ {पन्ना 1115-1116}

पद्अर्थ: भंडार = खजाने। असंख = बेअंत। सुआमी = हे स्वामी! जिस कै मसतकि = जिसके माथे पर (संबंधक 'कै' के कारण 'जिसु' का 'ु' हट गया है)। गुर हाथु = गुरू का हाथु। टिकहि = टिक जाते हैं।

तिस कै हिरदै = उस (मनुष्य) के हृदय में। भउ = डर अदब। भावनी = श्रद्धा, प्यार। बिनु भै = डर अदब के बिना (संबंधक के कारण 'भउ' से 'भै' बन जाता है)।

नानक = हे नानक! तिसहि = उस (मनुष्य) को (क्रिया विशेषण 'ही' के कारण शब्द 'तिसु' की 'ु' मात्रा हटा दी गई है)।4।

अर्थ: हे मेरे स्वामी! (तेरे घर में) तेरी भक्ति के बेअंत खजाने भरे पड़े हैं, (पर यह खजाने) उस (मनुष्य) को मिलते हैं जिसको तू (स्वयं) देता है। हे भाई! जिस (मनुष्य) के माथे पर गुरू का हाथ हो, उसके हृदय में परमात्मा के गुण टिके रहते हैं।

हे भाई! जिस (मनुष्य) के अंदर (परमात्मा का) डर-अदब है (परमात्मा के लिए) श्रद्धा-प्यार है, उसके हृदय में परमात्मा के गुण टिके रहते हैं। हे भाई! परमात्मा के डर-अदब के बिना किसी भी मनुष्य ने (परमात्मा का) प्रेम प्राप्त नहीं किया। कोई भी मनुष्य (परमात्मा के) डर-अदब के बिना (संसार-समुंद्र से) पार नहीं लांघ सका (कोई भी विकारों से बच नहीं सका)।

हे नानक! (कह-हे प्रभू!) उसी मनुष्य के हृदय में तेरा डर-अदब तेरा प्रेम-प्यार पैदा होता है जिस पर तू अपनी मेहर करता है। हे मेरे स्वामी! (तेरे घर में) तेरी भगती के बेअंत खजाने भरे हुए हैं, (पर ये खजाने) उस (मनुष्य) को मिलते हैं जिसको तू (स्वयं) देता है।4।3।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh