श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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केदारा महला ५ ॥ प्रिअ की प्रीति पिआरी ॥ मगन मनै महि चितवउ आसा नैनहु तार तुहारी ॥ रहाउ ॥ ओइ दिन पहर मूरत पल कैसे ओइ पल घरी किहारी ॥ खूले कपट धपट बुझि त्रिसना जीवउ पेखि दरसारी ॥१॥ कउनु सु जतनु उपाउ किनेहा सेवा कउन बीचारी ॥ मानु अभिमानु मोहु तजि नानक संतह संगि उधारी ॥२॥३॥५॥ {पन्ना 1120}

पद्अर्थ: प्रिअ की = प्यारे प्रभू की। पिआरी = (मन को) अच्छी लगती है। मगन = मस्त। मनै महि = मन में ही। चितवउ = मैं चितवता हूँ। नैनहु = (मेरी) आँखों में। तार तुहारी = तेरी ही खींच। रहाउ।

ओइ = (शब्द 'ओह' का बहुवचन)। मूरत = महूरत। कैसे = किस तरह के? बड़े ही सुहावने। घरी = घड़ी। किहारी = कैसी? बड़ी ही सुंदर। कपट = कपाट, किवाड़। धपट = झटपट। बुझि = बूझ के। जीवउ = जीऊँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। पेखि = देख के।1।

सु = वह। उपाउ = उपाय। बीचारी = मैं विचार करूँ। तजि = त्याग के। संगि = संगति में। उधारी = उद्धार, पार उतारा।2।

अर्थ: हे भाई! प्यारे प्रभू की प्रीति मेरे मन को आकर्षित करती रहती है। हे प्रभू! अपने मन में मस्त (रह के) मैं (तेरे दर्शनों की) आशाएं चितवता रहता हूँ, मेरी आँखों में (तेरे दर्शनो की) चाहत-भरा इन्तज़ार बना रहता है। रहाउ।

हे भाई! वह दिन, वह पहर, वह महूरत, वह पल बहुत ही भाग्यशाली होते हैं, वह घड़ी भी बहुत भाग्यों वाली होती है, जब (मनुष्य के अंदर से) माया की तृष्णा मिट के उसके (मन के बँद हो चुके) किवाड़ झटपट खुल जाते हैं। हे भाई! प्रभू के दर्शन करके (मेरे अंदर तो) आत्मिक जीवन पैदा होता है।1।

हे नानक! (कह- हे भाई!) मैं वह कौन सा यतन कहूँ? कौन सी बात बताऊँ? मैं वह कौन सी सेवा विचारूँ (जिन के सदका प्यारे प्रभू के दर्शन हो सकते हैं)।

हे भाई! संतजनों की संगति में मान-अहंकार-मोह त्याग के पार-उतारा होता है (और प्रभू का मिलाप होता है)।2।3।5।

केदारा महला ५ ॥ हरि हरि हरि गुन गावहु ॥ करहु क्रिपा गोपाल गोबिदे अपना नामु जपावहु ॥ रहाउ ॥ काढि लीए प्रभ आन बिखै ते साधसंगि मनु लावहु ॥ भ्रमु भउ मोहु कटिओ गुर बचनी अपना दरसु दिखावहु ॥१॥ सभ की रेन होइ मनु मेरा अह्मबुधि तजावहु ॥ अपनी भगति देहि दइआला वडभागी नानक हरि पावहु ॥२॥४॥६॥ {पन्ना 1120}

पद्अर्थ: गोपाल = हे गोपाल! जपावहु = जपने में सहायता करो। रहाउ।

प्रभ = हे प्रभू! ते = से। आन = अन्य। आन बिखै ते = अन्य विषियों से। साध संगि = गुरू की संगति में। लावहु = (हे प्रभू!) तू जोड़ता है। कटिओ = काटा जाता है। गुर बचनी = गुरू के बचनों से। दिखावहु = तू दिखाता है।1।

रेन = चरण धूड़। अहंबुधि = अहंकार वाली बुद्धि। तजावहु = छोड़ने में सहायसता करो। दइआला = हे दयालु! वडभागी = बड़े भाग्यों के साथ। पावहु = (मिलाप) हासिल कर सकोगे।2।

अर्थ: हे भाई! सदा परमात्मा के गुण गाते रहा करो।

हे गोपाल! हे गोविंद! (मेरे पर) मेहर कर, मुझे अपना नाम जपने में सहायता कर। रहाउ।

हे प्रभू! तू मनुष्यों का मन साध-संगति में लगाता है, उनको तूने अन्य विषियों में से निकाल लिया है। हे प्रभू! जिनको तू अपने दर्शन देता है, गुरू के बचनों से उनका भ्रम उनका डर उनका मोह काटा जाता है।1।

हे दयालु प्रभू! (मेहर कर, मुझे) अपनी भक्ति (की दाति) बख्श (मेहर कर, मेरे अंदर से) अहंकार दूर कर, मेरा मन सबके चरणों की धूल हुआ रहे।

हे नानक! (कह- हे भाई!) तुम बड़े भाग्यों से (ही) परमात्मा का मिलाप हासिल कर सकते हो।2।4।6।

केदारा महला ५ ॥ हरि बिनु जनमु अकारथ जात ॥ तजि गोपाल आन रंगि राचत मिथिआ पहिरत खात ॥ रहाउ ॥ धनु जोबनु स्मपै सुख भुोगवै संगि न निबहत मात ॥ म्रिग त्रिसना देखि रचिओ बावर द्रुम छाइआ रंगि रात ॥१॥ मान मोह महा मद मोहत काम क्रोध कै खात ॥ करु गहि लेहु दास नानक कउ प्रभ जीउ होइ सहात ॥२॥५॥७॥ {पन्ना 1120}

पद्अर्थ: अकारथ = व्यर्थ। जात = जाता है। तजि = त्याग के, भुला के। आन रंगि = और (पदार्थों) के प्यार में। राचत = मस्त। मिथिआ = व्यर्थ। पहिरत = पहनते। खात = खाते। रहाउ।

जोबनु = जवानी। संपै = दौलत। भुोगवै = (असल पाठ है 'भोगवै', यहाँ पढ़ना है 'भुगवै')। संगि = साथ। मात = मात्र, रती भर भी। म्रिग त्रिसना = मृग तृष्णा, ठॅग नीर (रेतीले इलाकों में सूरज की किरणों से रेत इस तरह लगती है जैसे पानी की लहरें। प्यास से घबराए हुए हिरन आदि पशू उसे पानी समझ के उसकी तरफ दौड़ते हैं। नजदीक का रेतीला स्थल तो धरती ही दिखता है, पर दूर वाला पानी लगता है। इस भ्रम को मारीचिका भी कहते हैं। प्यासा मृग पानी की खातिर दौड़ = दौड़ के कई बार जान गवा बैठता है)। बावर = कमला, पागल। द्रुम = वृक्ष। रात = रति हुआ, मस्त।1।

मद = नशा। कै खात = के गड्ढे में। करु = हाथ (एक वचन)। गहि लेहु = पकड़ ले। होइ = हो के। सहात = सहाई। प्रभ = हे प्रभू!।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा (के भजन) के बिना जिंदगी व्यर्थ चली जाती है। (जो मनुष्य) परमात्मा (की याद) भुला के और ही रंग में मस्त रहता है, उसका पहनना-खाना सब कुछ व्यर्थ है। रहाउ।

हे भाई! (मनुष्य यहाँ) धन-दौलत (इकट्ठी करता है), जवानी का आनंद लेता है (पर इनमें से कोई भी चीज़ जगत से चलने के वक्त) रक्ती भर भी (मनुष्य के) साथ नहीं जाती। पागल मनुष्य (माया की इस) मृग-मारीचिका को देख के मस्त रहता है (जैसे) पेड़ की छाया की मौज में मस्त है।1।

हे भाई! मनुष्य (दुनिया के) मान-मोह के भारे नशे में मोहित हुआ रहता है, काम-क्रोध के गड्ढे में गिरा रहता है।

हे प्रभू जी! (नानक की) सहायता करने वाले बन के दास नानक को हाथ पकड़ के (इस गड्ढे में गिरने से) बचा ले।2।5।7।

केदारा महला ५ ॥ हरि बिनु कोइ न चालसि साथ ॥ दीना नाथ करुणापति सुआमी अनाथा के नाथ ॥ रहाउ ॥ सुत स्मपति बिखिआ रस भुोगवत नह निबहत जम कै पाथ ॥ नामु निधानु गाउ गुन गोबिंद उधरु सागर के खात ॥१॥ सरनि समरथ अकथ अगोचर हरि सिमरत दुख लाथ ॥ नानक दीन धूरि जन बांछत मिलै लिखत धुरि माथ ॥२॥६॥८॥ {पन्ना 1120}

पद्अर्थ: साथ = साथ। न चालसि = नहीं जाता। दीना नाथ = हे गरीबों के पति! करुणापति = हे तरस के मालिक! हे मेहरों के साई! अनाथा के नाथ = हे निआसरों के आसरे! रहाउ।

सुत = पुत्र। संपति = धन, सम्पक्ति। बिखिआ = माया। पाथ = रास्ता। जम कै पाथ = जमराज के रास्ते पर पड़ कर। निधानु = खजाना। गाउ = गाया कर। उधरु = (अपने आप को) बचा ले। सागर = (संसार-) समुंद्र। खात = (विकारों का) खत्ता, गड्ढा।1।

भुोगवत: अक्षर 'भ' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। असल शब्द है 'भोगवत' यहाँ पढ़ना है 'भुगवत' ।

समरथ = हे सब ताकतों के मालिक! अकथ = जिसके सही स्वरूप का बयान ना हो सके। अगोचर = (अ+गो+चरु) जो ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे है। लाथ = उतर जाते हैं। दीन = गरीब। धूरि जन = संत जनों की चरण धूड़। बांछत = मांगता। लिखत धुरि माथ = धुर दरगाह से माथे पर लिखे अनुसार।2।

अर्थ: हे भाई! (जगत से चलने के वक्त) परमात्मा के नाम के बिना और कोई (जीव के) साथ नहीं जाता। हे दीनों के नाथ! हे मेहरों के साई! हे स्वामी! हे अनाथों के नाथ! (तेरा नाम ही असल साथी है)। रहाउ।

हे भाई! (मनुष्य के पास) पुत्र (होते हैं), धन (होता है), (मनुष्य) माया के अनेकों रस भोगता है, पर जमराज के रास्ते पर चलने के वक्त कोई साथ नहीं निभाता। हे भाई! परमात्मा का नाम ही (साथ निभने वाला असल) खजाना है। गोबिंद के गुण गाया कर, (इस तरह अपने आप को) संसार-समुंद्र के (विकारों के) गड्ढे (में गिरने) से बचा ले।1।

हे समर्थ! हे अकॅथ! हे अगोचर! हे हरी! (मैं तेरी) शरण (आया हूँ), (तेरा नाम) सिमरने से सारे दुख दूर हो जाते हैं। हे नानक! (कह- हे प्रभू!) दास गरीब तेरे संत जनों की चरण-धूड़ माँगता है। यह चरण-धूड़ उस मनुष्य को मिलती है, जिसके माथे पर धुर-दरगाह से लिखी होती है।2।6।8।

केदारा महला ५ घरु ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

बिसरत नाहि मन ते हरी ॥ अब इह प्रीति महा प्रबल भई आन बिखै जरी ॥ रहाउ ॥ बूंद कहा तिआगि चात्रिक मीन रहत न घरी ॥ गुन गोपाल उचारु रसना टेव एह परी ॥१॥ महा नाद कुरंक मोहिओ बेधि तीखन सरी ॥ प्रभ चरन कमल रसाल नानक गाठि बाधि धरी ॥२॥१॥९॥ {पन्ना 1120-1121}

पद्अर्थ: ते = से। हरी = परमात्मा। अब = अब। महा = बहुत। प्रबल = बहुत शक्तिशाली। आनु = अन्य। बिखै = विषौ। जरी = जल गए। रहाउ।

बूँद = (स्वाति नक्षत्र की बरखा की) बूँद। कहा तिआगि = कहाँ तयाग सकता है? नहीं छोड़ सकता। चात्रिक = पपीहा। मीन = मछली। घरी = घड़ी। रसना = जीभ से। टेव = आदत। परी = पड़ जाती है।1।

नाद = (घंडेहेड़े की) आवाज। कुरंक = हिरन। बेधि = भेद दिया जाता है। सर = तीर। तीखन सरी = तीक्ष्ण तीरों से, नुकीले तीरों से। रसाल = (रस+आलय, रसों का घर) मीठे। गाठि = गाँठ। बाधि धरी = बाँध ली।2।

अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य के) मन से परमात्मा नहीं बिसरता, उसके अंदर आखिर यह प्यार इतना बलवान हो जाता है कि अन्य सारे विषौ (इस प्रीति-अग्नि में) जल जाते हैं। रहाउ।

हे भाई! (देखो प्रीति के कारनामे!) पपीहा (स्वाति नक्षत्र की वर्षा की) बूँद को छोड़ के और (किसी) बूँद से तृप्त नहीं होता। मछली (का पानी से इतना प्यार है कि वह पानी के बिना) एक घड़ी भी जी नहीं सकती। हे भाई! अपनी जीभ से पृथ्वी के पालनहार प्रभू के गुण गाया कर। (जो मनुष्य सदा हरी-गुण उचारता है, उसको) यह आदत ही बन जाती है (फिर वह गुण उचारे बिना रह नहीं सकता)।1।

हे भाई! (प्रीत का और भी करिश्मा देखो!) हिरन (घंडेहेड़े की) आवाज़ से मोहित हो जाता है (उसमें इतना मस्त होता है कि शिकारी के) नुकीले तीरों से छिद जाता है। (इसी तरह) हे नानक! (जिस मनुष्य को) प्रभू के सुंदर चरण मधुर लगते हैं, (वह मनुष्य इन चरणों से अपनी पक्की) गाँठ बाँध लेता है।2।1।9।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh