श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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केदारा महला ५ घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

माई संतसंगि जागी ॥ प्रिअ रंग देखै जपती नामु निधानी ॥ रहाउ ॥ दरसन पिआस लोचन तार लागी ॥ बिसरी तिआस बिडानी ॥१॥ अब गुरु पाइओ है सहज सुखदाइक दरसनु पेखत मनु लपटानी ॥ देखि दमोदर रहसु मनि उपजिओ नानक प्रिअ अम्रित बानी ॥२॥१॥ {पन्ना 1119}

पद्अर्थ: माई = हे माँ! संत संगि = गुरू की संगति में। जागी = (माया के मोह की नींद में से) जाग उठती है। प्रिअ रंग = प्यारे (प्रभू) के करिश्मे (बहुवचन)। देखै = देखती है। जपती = जपती = जपती। निधानी = निधान वाली, खजाने की मालिक, सुखों के खजाने का मालिक। रहाउ।

पिआस = चाहत। लोचन = आँखें। लोचन तार = आँखों की तार। तिआस = प्यास। बिडानी = बेगानी, और और तरफ की।1।

अब = अब। सहज = आत्मिक अडोलता। दाइक = देने वाला। पेखत = देखते हुए। लपटानी = मगन हो जाता है। देखि = देख के। दमोदर = (दाम+उदर। दाम = रस्सी, तगाड़ी। उदर = पेट। जिसकी कमर पे तगाड़ी है, कृष्ण) परमात्मा। नानक = हे नानक! प्रिअ बानी = प्यारे प्रभू की सिफतसालाह की बाणी। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली। रहसु = उल्लास, खुशी।2।

अर्थ: हे माँ! (जो जीव-स्त्री) गुरू की संगति में (टिक के माया के मोह की नींद में से) जाग उठती है, (वह हर तरफ) प्यारे प्रभू के ही (किए) करिश्मे देखती है, (वह जीव-स्त्री परमात्मा का) नाम जपती सुखों के खजाने वाली बन जाती है। रहाउ।

हे माँ! (जो जीव-स्त्री गुरू की संगति में टिक के माया के मोह की नींद से जाग उठती है, उसके अंदर परमात्मा के) दर्शनों की तड़प बनी रहती है (दशर्नों के इन्तजार में उसकी) आँखों की तार बँधी रहती है। उसे और किसी की प्यास याद ही नहीं रहती।1।

हे माँ! (मुझे भी) अब आत्मिक अडोलता वाला आनंद देने वाला गुरू मिल गया है। (उसके) दर्शन करके (मेरा) मन (उसके चरणों से) लिपट गया है।

हे नानक! (कह- हे माँ!) परमात्मा के दर्शन कर के मन में हुल्लास पैदा हो जाता है। हे माँ! प्यारे प्रभू की सिफतसालाह की बाणी आत्मिक जीवन देने वाली है।2।1।

केदारा महला ५ घरु ३    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

दीन बिनउ सुनु दइआल ॥ पंच दास तीनि दोखी एक मनु अनाथ नाथ ॥ राखु हो किरपाल ॥ रहाउ ॥ अनिक जतन गवनु करउ ॥ खटु करम जुगति धिआनु धरउ ॥ उपाव सगल करि हारिओ नह नह हुटहि बिकराल ॥१॥ सरणि बंदन करुणा पते ॥ भव हरण हरि हरि हरि हरे ॥ एक तूही दीन दइआल ॥ प्रभ चरन नानक आसरो ॥ उधरे भ्रम मोह सागर ॥ लगि संतना पग पाल ॥२॥१॥२॥ {पन्ना 1119}

पद्अर्थ: दीन बिनउ = दीन की विनती, गरीब की प्रार्थना। दइआल = हे दयाल! पंच दास = कामादिक पाँच गुलाम। तीनि = रजो, तमो, सतो, ये तीनों ही। दोखी = वैरी। अनाथ नाथ = हे अनाथों के नाथ! हो किरपाल = हे कृपालु! रहाउ।

गवनु करउ = (मैं तीर्थों के) गवन करता हूँ। अनिक जतन करउ = अनेकों प्रकार के यतन करता हूँ। खटु करम = ब्राहमणों के लिए मिथे हुए आवश्यक छह कर्म (अध्यापन मध्ययनं, यजनं याजन तथा। दानां प्रतिग्रहश्चैव, षट् कर्माण्यग्रजन्मन् = M.S. 10.75)

जुगति = मर्यादा। धिआनु धरउ = मैं समाधि लगाता हूँ। उपाव सगल = सारे उपाय। करि = कर के। नह हुटहि = थकते नहीं हैं। बिकराल = डरावने (कामादिक)।1।

बंदन = सिर झुकाना। करुणापते = हे करुणा के पति! (करुणा = तरस) हे तरस के मालिक प्रभू! भव हरण = हे जनम मरण के चक्करों का नाश करने वाले! हरे = हे हरी! दीन दइआल = हें दीनों पर दया करने वाले! उधर = बच गए। सागर = समुंद्र। लगि = लग के। पग = पैरों पर। पाल = पल्ले।2।

अर्थ: हे दयालु प्रभू! हे अनाथों के नाथ! मेरी गरीब की विनती सुन- (मेरा यह) एक मन है, (कामादिक) पाँचों (कामादिकों) का गुलाम (बना हुआ) है, माया के तीन गुण इसके वैरी हैं। हे कृपाल प्रभू! (मुझे इनसे) बचा ले। रहाउ।

हे प्रभू! (इनसे बचने के लिए) मैं कई उपाय करता हूँ, मैं तीर्थों पर जाता हूँ, मैं छह (रोजाना) कर्मों की मर्यादा निभाता हूँ, मैं समाधियां लगाता हूँ। हे प्रभू! मैं सारे उपाय कर के थक गया हॅूँ, पर ये डरावने विकार (मेरे ऊपर हमले करने से) थकते नहीं हैं।1।

हे दया के मालिक प्रभू! हे जनम-मरण के चक्कर दूर करने वाले हरी! मैं तेरी शरण आया हूँ, मैं तेरे दर पर सिर झुकाता हूँ। हे दीनों पर दया करने वाले!् (मेरा) सिर्फ तू ही (रखवाला) है। हे प्रभू! नानक को तेरे ही चरणों का आसरा है।

हे प्रभू! तेरे संत जनों के चरणों में लग के, तेरे संतजनों का पल्ला पकड़ के (अनेकों जीव) भरम के मोह के समुंद्र (में डूबने) से बच गए।2।1।2।

केदारा महला ५ घरु ४    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

सरनी आइओ नाथ निधान ॥ नाम प्रीति लागी मन भीतरि मागन कउ हरि दान ॥१॥ रहाउ ॥ सुखदाई पूरन परमेसुर करि किरपा राखहु मान ॥ देहु प्रीति साधू संगि सुआमी हरि गुन रसन बखान ॥१॥ गोपाल दइआल गोबिद दमोदर निरमल कथा गिआन ॥ नानक कउ हरि कै रंगि रागहु चरन कमल संगि धिआन ॥२॥१॥३॥ {पन्ना 1119}

पद्अर्थ: नाथ = हे नाथ! निधान = हे (सब सुखों के) खजाने! मन भीतरि = मन में। मागन कउ = माँगने के लिए।1। रहाउ।

पूरन = हे सब गुणों से भरपूर!

परमेसुर = हे परम ईश्वर! हे सबसे ऊँचे मालिक! मान = लाज। साधू संगि = गुरू की संगति में। सुआमी = हे मालिक! रसन = जीभ से। बखान = उचारने।1।

गोपाल = हे गोपाल! दमोदर = हे दमोदर! कथा = सिफतसालाह। गिआन = सूझ। रंगि = रंग में। रागहु = रंग दे। संगि = साथ। धिआनु = सुरति।2।

अर्थ: हे नाथ! हे (सुखों के) खजाने! मेरे मन में तेरे नाम का प्यार पैदा हो गया है। हे हरी! तेरे नाम का दान माँगने के लिए मैं तेरी शरण आया हूँ।1। रहाउ।

हे सुखदाते! हे सर्व गुण भरपूर! हे सबसे ऊँचे मालिक! मेहर कर, (मेरी, शरण आए की) लाज रख ले। हे स्वामी! गुरू की संगति में (रख के मुझे अपना) प्यार बख्श। हे हरी! मेरी जीभ तेरे गुण उचारती रहे।1।

हे गोपाल! हे दयाल! हे गोबिंद! हे दामोदर! मुझे अपनी पवित्र सिफतसालाह की सूझ बख्श। हे हरी! नानक को अपने (प्यार-) रंग में रंग दे। (नानक की) सुरति तेरे सोहाने चरणों में टिकी रहे।2।1।3।

केदारा महला ५ ॥ हरि के दरसन को मनि चाउ ॥ करि किरपा सतसंगि मिलावहु तुम देवहु अपनो नाउ ॥ रहाउ ॥ करउ सेवा सत पुरख पिआरे जत सुनीऐ तत मनि रहसाउ ॥ वारी फेरी सदा घुमाई कवनु अनूपु तेरो ठाउ ॥१॥ सरब प्रतिपालहि सगल समालहि सगलिआ तेरी छाउ ॥ नानक के प्रभ पुरख बिधाते घटि घटि तुझहि दिखाउ ॥२॥२॥४॥ {पन्ना 1119-1120}

पद्अर्थ: को = का। मनि = मन में। करि = कर के। सत संगि = साध-संगति में। रहाउ।

करउ = मैं करूँ। सेवा सत पुरख = गुरमुखों की सेवा। पिआरे = हे प्यारे प्रभू! जत = यत्र, जहाँ। सुनीअै = सुना जाता है। तत = वहाँ। मनि = मन में। रहसाउ = रहसु, खिल उठना। वारी, फेरी, घुमाई = मैं चदके जाता हूँ। अनूपु = (अन+ऊप) जिस जैसा और कोई नहीं, बहुत ही सुंदर। ठाउ = जगह।1।

प्रतिपालह = तू पालता है। समालहि = तू संभाल करता है। छाउ = आसरा। पुरख = हे सर्व व्यापक! बिधाते = हे सृजनहार! घटि घटि = हरेक घट में। दिखाउ = मैं देखता हूँ।2।

अर्थ: हे भाई! मेरे मन में हरी के दर्शनों की चाहत है। हे हरी! मेहर करके मुझे साधु-संगति में मिलाए रख, (और, वहाँ रख के) मुझे अपना नाम बख्श। रहाउ।

हे प्यारे हरी! (मेहर कर) मैं गुरमुखों की सेवा करता रहूँ (क्योंकि गुरमुखों की संगति में) जहाँ भी तेरा नाम सुना जाता है वहीं मन में खुशी पैदा होती है। हे प्रभू! मैं तुझसे वारने जाता हूँ, तेरे से सदके जाता हूँ, कुर्बान जाता हूँ, (जहाँ तू बसता है) तेरी (वह) जगह बहुत ही सुंदर है।1।

हे प्रभू! तू सब जीवों की पालना करता है, तू सबकी संभाल करता है, सब जीवों को तेरा ही आसरा है। हे नानक के प्रभू! हे सर्व-व्यापक सृजनहार! (मेहर कर) मैं तुझे ही हरेक शरीर में देखता रहूँ।2।2।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh