श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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केदारा महला ४ घरु १

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मेरे मन राम नाम नित गावीऐ रे ॥ अगम अगोचरु न जाई हरि लखिआ गुरु पूरा मिलै लखावीऐ रे ॥ रहाउ ॥ जिसु आपे किरपा करे मेरा सुआमी तिसु जन कउ हरि लिव लावीऐ रे ॥ सभु को भगति करे हरि केरी हरि भावै सो थाइ पावीऐ रे ॥१॥ हरि हरि नामु अमोलकु हरि पहि हरि देवै ता नामु धिआवीऐ रे ॥ जिस नो नामु देइ मेरा सुआमी तिसु लेखा सभु छडावीऐ रे ॥२॥ हरि नामु अराधहि से धंनु जन कहीअहि तिन मसतकि भागु धुरि लिखि पावीऐ रे ॥ तिन देखे मेरा मनु बिगसै जिउ सुतु मिलि मात गलि लावीऐ रे ॥३॥ हम बारिक हरि पिता प्रभ मेरे मो कउ देहु मती जितु हरि पावीऐ रे ॥ जिउ बछुरा देखि गऊ सुखु मानै तिउ नानक हरि गलि लावीऐ रे ॥४॥१॥ {पन्ना 1118}

पद्अर्थ: हे मेरे मन = हे मेरे मन! नित = नित्य, सदा। गावीअै = गाना चाहिए, सिमरना चाहिए। अगम = अगम्य, अपहुँच। अगोचरू = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञानेन्द्रियां। चरु = पहुँच) जो ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे हो। न जाई लखिआ = समझा नहीं जा सकता। लखावीअै = समझा जा सकता है। रहाउ।

आपे = स्वयं ही। कउ = को। लिव = लगन, प्रीत। लावीअै = लगती है। सभु को = हरेक जीव। केरी = की। हरि भावै = (जो मनुष्य) हरी को अच्छा लगता है। थाइ पावीअै = जगह पर पाया जाता है, कबूल होता है।1।

अमोलकु = अमूल्य, जो किसी (दुनियावी) मूल्य से नहीं मिल सकता। पहि = पास। देवै = देता है। ता = तब। धिआवीअै = सिमरा जा सकता है। देइ = देता है। तिसु लेखा = उस (के कर्मों का लेखा)। सभु = सारा। छडावीअै = छुड़ाया जाता है, समाप्त किया जाता है।2।

जिस नो: संबंधक 'नो' के कासरण 'जिसु' की 'ु' मात्रा हट गई है।

अराधहि = आराधते है (बहुवचन)। से = वह मनुष्य (बहुवचन)। धंनु जन = (धन्य) भाग्यशाली मनुष्य। कहीअहि = कहे जाते हैं। मसतकि = माथे पर। धुरि = धुर दरगाह से। भागु लिखि पावीअै = अच्छी किस्मत लिख के पाई जाती है। तिन देखे = उनको देखा। बिगसै = खिल उठता है, खुश होता है। सुतु = पुत्र। मिलि मात = माँ को मिल के। गलि = गले से। लावीअै = लगाया जाता है।3।

बारिक = बच्चे, बालक (बहुवचन)। प्रभ = हे प्रभू! मो कउ = मुझे। मती = शिक्षा। जितु = जिस (मति) से। पावीअै = पाया जा सकता है। बछुरा = बछरा। देखि = देख के। गऊ सुखु मानै = गाय खुश होती है। हरि गलि = हरी के गले से। लावीअै = लगाया जाता है।4।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम सदा सिमरना चाहिए। हे मन! वह परमात्मा अपहुँच है, ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे है, (मनुष्य की अपनी अक्ल से वह) समझा नहीं जा सकता। जब पूरा गुरू मिलता है तब उसको समझा जा सकता है। रहाउ।

हे मेरे मन! मेरा मालिक प्रभू जिस मनुष्य पर स्वयं ही कृपा करता है, उस मनुष्य को प्रभू (अपने चरणों का) प्यार लगाता है। हे मन! (अपनी ओर से) हरेक जीव परमात्मा की भक्ति करता है, पर वही मनुष्य (उसके दर पर) परवान होता है जो उसको प्यारा लगता है।1।

हे मेरे मन! परमात्मा का नाम किसी दुनियावी मूल्य से नहीं मिल सकता, (उसका यह नाम उस) परमात्मा के (अपने) पास है। जब परमात्मा (किसी को नाम की दाति) देता है, तब ही सिमरा जा सकता है।

हे मन! मेरा मालिक प्रभू जिस मनुष्य को अपना नाम देता है उस (के पिछले किए हुए कर्मों का) सारा हिसाब समाप्त हो जाता है।2।

हे मेरे मन! जो मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरते हैं, वह मनुष्य भाग्यशाली कहे जाते हैं। उनके माथे पर धुर से ही प्रभू की हजूरी से लिखी अच्छी किस्मत उनको प्राप्त हो जाती है। हे भाई! उनके दर्शन करने से मेरा मन (इस तरह) खुश होता है, जैसे पुत्र (अपनी) माँ को मिल के (खुश होता है), वह माँ के गले से चिपक जाता है।3।

हे मेरे पिता-प्रभू! हम जीव तेरे बच्चे हैं। (हे प्रभू!) मुझे ऐसी मति दे, जिससे तेरा नाम प्राप्त हो सके।

हे नानक! जैसे गाय (अपने) बछरे को देख के प्रसन्न होती है वैसे ही वह भाग्यशाली मनुष्य सुखी महसूस करता है जिसको परमात्मा अपने गले से लगा लेता है।4।1।

केदारा महला ४ घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मेरे मन हरि हरि गुन कहु रे ॥ सतिगुरू के चरन धोइ धोइ पूजहु इन बिधि मेरा हरि प्रभु लहु रे ॥ रहाउ ॥ कामु क्रोधु लोभु मोहु अभिमानु बिखै रस इन संगति ते तू रहु रे ॥ मिलि सतसंगति कीजै हरि गोसटि साधू सिउ गोसटि हरि प्रेम रसाइणु राम नामु रसाइणु हरि राम नाम राम रमहु रे ॥१॥ अंतर का अभिमानु जोरु तू किछु किछु किछु जानता इहु दूरि करहु आपन गहु रे ॥ जन नानक कउ हरि दइआल होहु सुआमी हरि संतन की धूरि करि हरे ॥२॥१॥२॥ {पन्ना 1118-1119}

पद्अर्थ: रे मेरे मन = हे मेरे मन! कहु = उचारा कर। धोइ = धो कर। इन बिधि = इस तरह। लहु = ढूँढ लो। रहाउ।

अभिमान = अहंकार। बिखै रस = विषियों के स्वाद। इन संगति ते = इनकी संगति से। रहु = हट जा। मिलि = मिल के। कीजै = करनी चाहिए। गोसटि = विचार। हरि गोसटि = परमात्मा के गुणों की विचार। साधू सिउ = गुरू से, गुरसिख से। रसाइणु = (रस+अयन) सारे रसों का घर, सबसे श्रेष्ठ रस। रमहु = सिमरो।1।

अंतर का = अंदर का। जोरु = हैंकड़। आपन गहु = अपने आप को वश में रखो। कउ = को, पर। सुआमी = हे स्वामी! हरे = हे हरी! करि = बना दे।2।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के गुण गाया कर। गुरू के चरण धो-धो के पूजा कर (भाव, अहंकार छोड़ के गुरू के चरण पड़ा रह)। हे मन! इस तरीके से प्यारे प्रभू को ढूँढ ले। रहाउ।

हे मन! काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, विषियों के चस्के - इनसे हमेशा दूर बना रह। हे मन! साध-संगति में मिल के हरी-गुणों की विचार करनी चाहिए। हे मेरे मन! परमात्मा का प्यार सब रसों से श्रेष्ठ रस है, परमात्मा का नाम सारे रसों का घर है। सदा परमात्मा का नाम सिमरा कर।1।

हे भाई! अपने अंदर का ये गुमान-हैंकड़ दूर कर कि तू बहुत कुछ जानता है (कि तू बड़ा समझदार है)। हे भाई! अपने आप को वश में रख।

हे हरी! हे स्वामी! दास नानक पर दयावान हो। (दास नानक को) संत जनों के चरणों की धूड़ बनाए रख।2।1।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh