श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1122 केदारा महला ५ ॥ हरि के नाम की मन रुचै ॥ कोटि सांति अनंद पूरन जलत छाती बुझै ॥ रहाउ ॥ संत मारगि चलत प्रानी पतित उधरे मुचै ॥ रेनु जन की लगी मसतकि अनिक तीरथ सुचै ॥१॥ चरन कमल धिआन भीतरि घटि घटहि सुआमी सुझै ॥ सरनि देव अपार नानक बहुरि जमु नही लुझै ॥२॥७॥१५॥ {पन्ना 1122} पद्अर्थ: मन = मन को। रुचै = रुची, चाहत, लगन। कोटि = किले में, हृदय के किले में। जलत = (विकारों की) जल रही (आग)। छाती = हृदय। बूझै = (आग) बुझ जाती है। रहाउ। संत मारगि = गुरू के (बताए हुए) राह पर। चलत = चल रहा है। पतित = विकारों में गिरे हुए। मुचै = बहुत, अनेकों। उधरे = (विकारों से) बच जाते हैं। रेनु = चरण धूड़। जन = प्रभू का भगत। मसतकि = माथे पर। सुचै = सुचि, पवित्रता।1। भीतरि = में। धिआन भीतरि = ध्यान में, याद में। घटि = घट में। घटि घटहि = हरेक शरीर में। सुझै = दिखता है। देव = प्रकाश रूप प्रभू। अपार = बेअंत। बहुरि = दोबारा। लुझै = झगड़ता।2। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के मन को परमात्मा के नाम की लगन लग जाती है, उसके हृदय में पूर्ण-शांति आनंद बना रहता है, उसके हृदय में (विकारों की पहले से) जल रही आग बुझ जाती है। रहाउ। हे भाई! जो मनुष्य गुरू के बताए हुए रास्ते पर चलता है, (उसकी संगति में रह के) अनेकों विकारी मनुष्य (विकारों से) बच जाते हैं। जिस मनुष्य के माथे पर परमात्मा के सेवक की चरण-धूड़ लगती है, (उसके अंदर, मानो) अनेकों तीर्थों (के स्नान) की पवित्रता हो जाती है।1। हे भाई! जिस मनुष्य की सुररति प्रभू के सुंदर चरणों के ध्यान में टिकी रहती है, उसको मालिक-प्रभू हरेक शरीर में बसता दिख जाता है। हे नानक! जो मनुष्य प्रकाश-रूप बेअंत प्रभू की शरण में आ जाता है, जमदूत दोबारा उसके साथ कोई झगड़ा नहीं डालता।2।7।15। केदारा छंत महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मिलु मेरे प्रीतम पिआरिआ ॥ रहाउ ॥ पूरि रहिआ सरबत्र मै सो पुरखु बिधाता ॥ मारगु प्रभ का हरि कीआ संतन संगि जाता ॥ संतन संगि जाता पुरखु बिधाता घटि घटि नदरि निहालिआ ॥ जो सरनी आवै सरब सुख पावै तिलु नही भंनै घालिआ ॥ हरि गुण निधि गाए सहज सुभाए प्रेम महा रस माता ॥ नानक दास तेरी सरणाई तू पूरन पुरखु बिधाता ॥१॥ {पन्ना 1122} पद्अर्थ: प्रीतम = हे प्रीतम! रहाउ। पूरि रहिआ = मौजूद है। सरबत्र मै = सब जगह, सबमें। पुरखु = सर्व व्यापक प्रभू। बिधाता = सृजनहार। मारगु = रास्ता। हरि कीआ = हरी ने ही बनाया। संगि = संगति में। जाता = जाना जाता है। घटि घटि = हरेक शरीर में। नदरि = नजर से। निहालिआ = देखा जाता है। सरब सुख = सारे सुख। तिलु = रक्ती भर भी। घालिआ = की हुई मेहनत। निधि = खजाना। गाऐ = जो गाता है। सहज सुभाऐ = आत्मिक अडोलता और प्रेम में। माता = मस्त।1। अर्थ: हे मेरे प्यारे! हे मेरे प्रीतम! (मुझे) मिल। रहाउ। हे भाई! वह सर्व-व्यापक सृजनहार हर जगह मौजूद है। हे भाई! प्रभू (को मिलने) का रास्ता प्रभू ने स्वयं ही बनाया है (वह रास्ता यह है कि) संत-जनों की संगति में ही उसके साथ गहरी सांझ पड़ सकती है। हे भाई! संत-जनों की संगति में ही सृजनहार अकाल-पुरख के साथ जान-पहचान हो सकती है। (संतजनों की संगति में रह के ही उसको) हरेक शरीर में आँखों से देखा जा सकता है। जो मनुष्य (संतजनों की संगति की बरकति से प्रभू की) शरण आता है, वह सारे सुख हासिल कर लेता है। प्रभू उस मनुष्य की की हुई मेहनत को रक्ती भर भी नहीं गवाता। हे भाई! जो मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के प्यार से गुणों के खजाने प्रभू के गुण गाता है, वह सबसे ऊँचे प्रेम-रस में मस्त रहता है। हे नानक! (कह- हे प्रभू!) तेरे दास तेरी शरण में रहते हैं। तू सब गुणों से भरपूर है, तू सर्व-व्यापक है, तू (सारे जगत का) रचनहार है।1। हरि प्रेम भगति जन बेधिआ से आन कत जाही ॥ मीनु बिछोहा ना सहै जल बिनु मरि पाही ॥ हरि बिनु किउ रहीऐ दूख किनि सहीऐ चात्रिक बूंद पिआसिआ ॥ कब रैनि बिहावै चकवी सुखु पावै सूरज किरणि प्रगासिआ ॥ हरि दरसि मनु लागा दिनसु सभागा अनदिनु हरि गुण गाही ॥ नानक दासु कहै बेनंती कत हरि बिनु प्राण टिकाही ॥२॥ {पन्ना 1122} पद्अर्थ: जन = जो मनुष्य (बहुवचन)। बेधिआ = भेदे जाते हैं। से = वे मनुष्य (बहुवचन)। आन कत = और कहाँ? किसी भी और जगह नहीं। जाही = जाहिं, जा सकते। मीनु = मछली। बिछोहा = (पानी का) विछोड़ा। मरि पाही = (मछलियाँ) मर जाती हैं (बहुवचन)। किउ रहीअै = कैसे रहा जा सकता है? नहीं रहा जा सकता। किनि = किस तरफ? किसी भी ओर नहीं। किनि सहीअै = किसी भी तरफ से सहा नहीं जा सकता, किसी भी तरह सहन योग्य नहीं है। चात्रिक = पपीहा। बूँद = (स्वाति नक्षत्र की वर्षा की) बूँद। रैनि = रात। कब = कब? प्रगासिआ = प्रकाश करे। दरसि = दर्शन में। सभागा = सौभाग्यवान। अनदिनु = हर रोज। गाही = गाहि, गाते हैं। कहै = कहता है। कत = कहाँ? टिकाही = टिक सकते हैं।2। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य हरी की प्रेमा-भक्ति में रम जाते हैं, वे (हरी को छोड़ के) किसी और जगह नहीं जा सकते। (जैसे) मछली (पानी का) विछोड़ा सह नहीं सकती, पानी के बिना मछलियाँ मर जाती हैं। हे भाई! (जिन के मन प्रेमा-भक्ति में भेदे गए, उनसे किसी तरफ से भी) परमात्मा (की याद) के बिना नहीं रहा जा सकता, किसी भी तरह से विछोड़े का दुख सहा नहीं जा सकता। (जैसे) पपीहा हर वक्त स्वाति बूँद के लिए तरसता है (जैसे) जब तक रात खत्म ना हो, जब तक सूरज की रौशनी ना आ जाए, चकवी को सुख नहीं मिल सकता। हे भाई! (प्रभू-प्रेम में भेदे हुए मनुष्यों के लिए) वह दिन भाग्यशाली होता है जब उनका मन प्रभू के दीदार में जुड़ता है, वह हर वक्त प्रभू के गुण गाते रहते हैं। दास नानक विनती करता है - (हे भाई! जिनके मन प्रभू-प्रेम में भेदे हुए हैं, उनके) प्राण परमात्मा की याद के बिना कहीं भी धैर्य नहीं पा सकते।2। सास बिना जिउ देहुरी कत सोभा पावै ॥ दरस बिहूना साध जनु खिनु टिकणु न आवै ॥ हरि बिनु जो रहणा नरकु सो सहणा चरन कमल मनु बेधिआ ॥ हरि रसिक बैरागी नामि लिव लागी कतहु न जाइ निखेधिआ ॥ हरि सिउ जाइ मिलणा साधसंगि रहणा सो सुखु अंकि न मावै ॥ होहु क्रिपाल नानक के सुआमी हरि चरनह संगि समावै ॥३॥ {पन्ना 1122} पद्अर्थ: सास = श्वास। देहुरी = शरीर। कत पावै = कैसे पा सकती है? नहीं पा सकती। दरस बिहूना = प्रभू के दर्शनों के बिना। रहणा = जीना। चरन कमल = सुंदर चरणों में। बेधिआ = भेदा गया। रसिक = रसिया, प्रेमी। बैरागी = वैरागवान। नामि = नाम में। लिव = लगन। कतहु = कहीं से भी। निखेधिआ = निरादर किया गया। सिउ = साथ। जाइ = जा के। अंकि = शरीर में। मावै = समाता है। होहु = तुम होते हो। सुआमी = हे स्वामी! संगि = साथ। समावै = लीन रहता है।3। अर्थ: हे भाई! जैसे सांस (आए) बिना मनुष्य का शरीर कहीं शोभा नहीं पा सकता, (वैसे ही परमात्मा के) दर्शनों के बिना साधू-जन (शोभा नहीं पा सकते)। (प्रभू के दर्शनों के बिना मनुष्य का मन) एक छिन के लिए भी टिक नहीं सकता। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना जो जीना है, वह जीना नर्क (का दुख) सहने (के तुल्य) है। पर, जिस मनुष्य का मन परमात्मा के सुंदर चरणों में बिछ जाता है, वह परमात्मा के नाम का रसिया हो जाता है, हरी-नाम का प्रेमी हो जाता है, हरी-नाम में उसकी लगन लगी रहती है, उसकी कहीं भी निरादरी नहीं होती। हे भाई! साध-संगति में टिके रहना (और, साध-संगति की बरकति से) प्रभू के साथ मिलाप हो जाना (इससे ऐसा आत्मिक आनंद पैदा होता है कि) वह आनंद छुपा नहीं रह सकता। हे नानक के मालिक प्रभू! जिस मनुष्य पर तू दयावान होता है, वह तेरे चरणों में लीन रहता है।3। खोजत खोजत प्रभ मिले हरि करुणा धारे ॥ निरगुणु नीचु अनाथु मै नही दोख बीचारे ॥ नही दोख बीचारे पूरन सुख सारे पावन बिरदु बखानिआ ॥ भगति वछलु सुनि अंचलुो गहिआ घटि घटि पूर समानिआ ॥ सुख सागरुो पाइआ सहज सुभाइआ जनम मरन दुख हारे ॥ करु गहि लीने नानक दास अपने राम नाम उरि हारे ॥४॥१॥ {पन्ना 1122} पद्अर्थ: प्रभ मिले = प्रभू जी मिल गए (आदर बोधक बहुवचन)। करुणा = तरस, दया। धारे = धार के। निरगुण = गुण हीन। अनाथु = निमाणा। दोख = ऐब, कमियां। सारे = सौंप दिए। पावन = पवित्र (करना)। बिरदु = आदि कदीमी स्वभाव, मूल स्वभाव। बखानिआ = कहा जाता है। भगति वछलु = भक्ति को प्यार करने वाला। सुनि = सुन के। अंचलुो = आँचल, पल्ला (असल शब्द है 'अंचलु'। यहाँ 'अंचलो' पढ़ना है)। गहिआ = (मैंने) पकड़ लिया। घटि घटि = हरेक शरीर में। पूर = पूरे तौर पर। सागरुो = (असल शब्द है 'सागरु', यहाँ पढ़ना है 'सागरो) समुंद्र। सहज सुभाइआ = आत्मिक अडोलता के स्वभाव से, बिना किसी हठ आदि के यत्न के। हारे = थक गए। करु = हाथ (बहुवचन)। गहि = पकड़ के। उरि = हृदय में। हारे = हार।4। अर्थ: हे भाई! (प्रभू जी की) तलाश करते-करते (आखिर) प्रभू जी (स्वयं ही) दया कर के (मुझे) मिल गए (प्रभू का मिलाप प्रभू जी की मेहर से ही होता है)। मेरे में कोई गुण नहीं था, मैं नीच जीवन वाला था, मैं अनाथ था। पर, प्रभू जी ने मेरे अवगुणों की तरफ ध्यान नहीं दिया। हे भाई! प्रभू ने मेरे अवगुण नहीं विचारे, मुझे पूर्ण सुख उसने दे दिए, (तभी तो यह) कहा जाता है कि (पतितों को) पवित्र करना (प्रभू जी का) मूल कदीमी स्वभाव (बिरद) है। ये सुन के कि प्रभू भक्ति को प्यार करने वाला है, मैंने उसका पल्ला पकड़ लिया (और भक्ति की दाति माँगी)। हे भाई! प्रभू हरेक शरीर में पूरी तरह से व्यापक है। हे भाई! जब मैंने उसका आँचल पकड़ लिया, तब वह सुखों का समुंद्र प्रभू मुझे स्वयं ही आगे हो के मिल गया। जनम से मरने तक के मेरे सारे ही दुख थक गए (हार गए, समाप्त हो गए)। हे नानक! (कह- हे भाई!) प्रभू अपने दासों का हाथ पकड़ कर उनको अपने साथ मिला लेता है। परमात्मा का नाम (उन सेवकों के) हृदय में हार बना रहता है।4।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |