श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1129 भैरउ महला ३ ॥ राम नामु जगत निसतारा ॥ भवजलु पारि उतारणहारा ॥१॥ गुर परसादी हरि नामु सम्हालि ॥ सद ही निबहै तेरै नालि ॥१॥ रहाउ ॥ नामु न चेतहि मनमुख गावारा ॥ बिनु नावै कैसे पावहि पारा ॥२॥ आपे दाति करे दातारु ॥ देवणहारे कउ जैकारु ॥३॥ नदरि करे सतिगुरू मिलाए ॥ नानक हिरदै नामु वसाए ॥४॥६॥ {पन्ना 1129} पद्अर्थ: जगत निसतारा = संसार का पार उतारा करता है। भवजलु = संसार समुंद्र। उतारणहारा = (पार) उतारने की समर्था वाला।1। परसादी = प्रसादि, कृपा से। समालि = हृदय में बसाओ। सद = सदा निबहै = साथ देता है।1। रहाउ। न चेतहि = याद नहीं करते (बहुवचन)। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे। गावारा = मूर्ख लोग। कैसे पावहि पारा = परला छोर कैसे ढूँढ सकते हैं?।2। आपे = स्वयं ही। दाति = (नाम की) बख्शिश। दातारु = दातें देने वाला प्रभू। कउ = को। जैकारु = सिफतसालाह करो।3। नदरि = (मेहर की) निगाह। नानक = हे नानक! हिरदै = हृदय में।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम दुनिया का उद्धार करता है (जीवों को) संसार-समुंद्र से पार लंघाने की समर्था रखने वाला है।1। हे भाई! गुरू की कृपा से (गुरू की कृपा का पात्र बन के) परमात्मा का नाम (अपने हृदय में) संभाल। यह हरी-नाम सदा ही तेरा साथ देगा।1। रहाउ। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मूर्ख मनुष्य परमात्मा का नाम नहीं सिमरते। नाम के बिना वह किसी तरह भी (संसार के विकारों से) पार नहीं लांघ सकते।2। (पर, हे भाई! ये किसी के वश की बात नहीं) नाम की बख्शिश दातार प्रभू स्वयं ही करता है, (इस वास्ते) देने की समर्था वाले प्रभू के आगे ही सिर निवाना चाहिए (प्रभू से ही नाम की दाति माँगनी चाहिए)।3। हे नानक! जिस मनुष्य पर प्रभू मेहर की निगाह करता है, उसको गुरू से मिलाता है, और वह मनुष्य अपने हृदय में प्रभू का नाम बसाता है।4।6। भैरउ महला ३ ॥ नामे उधरे सभि जितने लोअ ॥ गुरमुखि जिना परापति होइ ॥१॥ हरि जीउ अपणी क्रिपा करेइ ॥ गुरमुखि नामु वडिआई देइ ॥१॥ रहाउ ॥ राम नामि जिन प्रीति पिआरु ॥ आपि उधरे सभि कुल उधारणहारु ॥२॥ बिनु नावै मनमुख जम पुरि जाहि ॥ अउखे होवहि चोटा खाहि ॥३॥ आपे करता देवै सोइ ॥ नानक नामु परापति होइ ॥४॥७॥ {पन्ना 1129} पद्अर्थ: नामे = नाम ही, नाम से ही। उधरे = विकारों से बचे हैं, उद्धार हुआ है। सभि = सारे। लोअ = (चौदह) लोक, चौदह लोकों के जीव। गुरमुखि = गुरू के द्वारा, गुरू की शरण पड़ के। परापति होइ = (हरी नाम) मिलता है।1। करेइ = करता है। वडिआई = इज्जत। देइ = देता है।1। रहाउ। राम नामि = परमात्मा के नाम में। सभि कुल = सारी कुलों को। उधारणहारु = विकारों से बचाने की समर्था वाला (एक वचन)।2। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। जमपुरि = जम राज के देश में। जाहि = जाते हैं (बहुवचन)। अउखे = दुखी। खाहि = खाते हैं।3। आपे = आप ही। सोइ करता = वह करतार ही। नानक = हे नानक!।4। अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य पर) परमात्मा अपनी कृपा करता है, उसको गुरू की शरण डाल कर (अपना) नाम देता है (यही है असल) इज्जत।1। रहाउ। हे भाई! जिन मनुष्यों को गुरू के माध्यम से परमात्मा का नाम मिल जाता है (वे विकारों से बच जाते हैं)। हे भाई! चौदह भवनों के जितने भी जीव हैं, वे सारे परमात्मा के नाम से ही विकारों से बचते हैं।1। हे भाई! परमात्मा के नाम में जिन मनुष्यों की प्रीति है जिनका प्यार है, वे स्वयं विकारों से बच गए। (उनमें से हरेक अपनी) सारी कुलों को बचाने के योग्य हो गया।2। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य परमात्मा के नाम से टूट के जमराज के देश में जाते हैं, वे दुखी होते, (और नित्य विकारों की) चोटें सहते हैं।3। हे नानक! जिस मनुष्य को करतार स्वयं ही (नाम की दाति) देता है (उसको ही उसका) नाम मिलता है।4।7। भैरउ महला ३ ॥ गोविंद प्रीति सनकादिक उधारे ॥ राम नाम सबदि बीचारे ॥१॥ हरि जीउ अपणी किरपा धारु ॥ गुरमुखि नामे लगै पिआरु ॥१॥ रहाउ ॥ अंतरि प्रीति भगति साची होइ ॥ पूरै गुरि मेलावा होइ ॥२॥ निज घरि वसै सहजि सुभाइ ॥ गुरमुखि नामु वसै मनि आइ ॥३॥ आपे वेखै वेखणहारु ॥ नानक नामु रखहु उर धारि ॥४॥८॥ {पन्ना 1129} पद्अर्थ: सनकादिक = सनक आदिक सनक, सनंदन, सनतकुमार, सनातन = ब्रहमा के चार पुत्र। उधारे = (संसार समुंदर से) बचाए। सबदि = गुरू के शबद से। बीचारे = विचार की, अपने मन में बसाए।1। हरि जीउ = हे हरी! धारु = कर। गुरमुखि = गुरू से। नामे = नाम में ही। लगै = बना रहे।1। रहाउ। अंतरि = (जिस मनुष्य के) अंदर। साची = सदा कायम रहने वाली। पूरै गुरि = गुरू से। मेलावा = मिलाप।2। निज घरि = अपने (असल) घर में, प्रभू चरणों में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। मनि = मन में।3। आपे = आप ही। वेखै = संभाल करता है। वेखणहारु = संभाल कर सकने वाला प्रभू। उर = हृदय। धारि = धर के, टिका के।4। अर्थ: हे प्रभू जी! (मेरे ऊपर) अपनी कृपा बनाए रख, ता कि गुरू की शरण पड़ कर (मेरा) प्यार (तेरे) नाम में ही बना रहे।1। रहाउ। हे भाई! सनक, सनंदन, सनातन, सनतकुमार- ब्रहमा के इन चार पुत्रों - ने गुरू के शबद से परमात्मा को अपने मन में बसाया, परमात्मा के (चरणों के इस) प्यार ने उनको संसार-समुंदर से पार लंघा दिया।1। हे भाई! पूरे गुरू से जिस मनुष्य के अंदर परमात्मा की सदा कायम रहने वाली प्रीति-भक्ति पैदा होती है, परमात्मा के साथ उसका मिलाप हो जाता है।2। हे भाई! गुरू की शरण पड़ कर (जिस मनुष्य के) मन में परमात्मा का नाम आ बसता है, वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के, प्रभू-प्यार में टिक के, प्रभू की हजूरी में निवास करे रखता है।3। हे नानक! सब जीवों की संभाल करने के समर्थ जो प्रभू स्वयं ही (सबकी) संभाल कर रहा है, उसका नाम अपने हृदय में परोए रख।4।8। भैरउ महला ३ ॥ कलजुग महि राम नामु उर धारु ॥ बिनु नावै माथै पावै छारु ॥१॥ राम नामु दुलभु है भाई ॥ गुर परसादि वसै मनि आई ॥१॥ रहाउ ॥ राम नामु जन भालहि सोइ ॥ पूरे गुर ते प्रापति होइ ॥२॥ हरि का भाणा मंनहि से जन परवाणु ॥ गुर कै सबदि नाम नीसाणु ॥३॥ सो सेवहु जो कल रहिआ धारि ॥ नानक गुरमुखि नामु पिआरि ॥४॥९॥ {पन्ना 1129} पद्अर्थ: कलजुग महि = मलियुग में, विकारों से भरे जगत में। (नोट: किसी खास 'जुग' का जिक्र नहीं कर रहे)। उर = हृदय। धारु = बसाए रख। माथै = (अपने) माथे पर, मुँह पर। पावै = (वह मनुष्य) पाता है। छारु = (लोक-परलोक की निरादरी की) राख, मुकालख। माथै पावै = अपने मुँह पर डालता है, कमाता है।1। दुलभु = दुर्लभ, मुश्किल से मिलने वाला। भाई = हे भाई! परसादि = प्रसादि, कृपा से। मनि = मन में।1। रहाउ। जन सोइ = (बहुवचन) वह मनुष्य। भालहि = तलाशते हैं, खोजते हैं। ते = से। प्रापति = प्राप्ति, मेल, संजोग।2। मंनहि = ठीक समझते हैं। से जन = (बहुवचन) वह मनुष्य। परवाणु = कबूल, आदर पाते हैं। कै सबदि = के शबद से। नीसाणु = परवाना, राहदारी। नाम नीसाणु = हरी नाम का परवाना।3। सो = उस परमात्मा को। सेवहु = सिमरो। कल = कला, सक्ता। रहिआ धारि = टिका रहा है। पिआरि = प्यार कर, प्यार से हृदय में बसाओ।4। अर्थ: हे भाई! (और पदार्थों के मुकाबले में) परमात्मा का नाम बहुत मुश्किल से मिलता है। (यह तो) गुरू की कृपा से (किसी भाग्यशाली के) मन में आ बसता है।1। रहाउ। हे भाई! इस विकारों-भरे जगत में (विकारों से बचने के लिए) परमात्मा का नाम (अपने) हृदय में बसाए रख। (जो मनुष्य) नाम से खाली (रहत है, वह लोक-परलोक की) निरादरी ही कमाता है।1। पर, हे भाई! (किसी के वश की बात नहीं) पूरे गुरू से (जिन मनुष्यों के भाग्यों में) हरी-नाम की प्राप्ति (लिखी हुई है), सिर्फ वह मनुष्य ही परमात्मा का नाम तलाशते हैं।2। हे भाई! गुरू के शबद की बरकति से (जिन मनुष्यों को) हरी-नाम (की प्राप्ति) का परवाना (मिल जाता है) वह मनुष्य परमात्मा की रज़ा को (मीठा कर के) मानते हैं, वह मनुष्य (परमात्मा की हजूरी में) आदर पाते हैं।3। हे नानक! जो परमात्मा सारी सृष्टि की मर्यादा को अपनी सक्ता (कला) से चला रहा है उसकी सेवा-भक्ति करो, गुरू के द्वारा उसके नाम को प्यार करो।4।9। भैरउ महला ३ ॥ कलजुग महि बहु करम कमाहि ॥ ना रुति न करम थाइ पाहि ॥१॥ कलजुग महि राम नामु है सारु ॥ गुरमुखि साचा लगै पिआरु ॥१॥ रहाउ ॥ तनु मनु खोजि घरै महि पाइआ ॥ गुरमुखि राम नामि चितु लाइआ ॥२॥ गिआन अंजनु सतिगुर ते होइ ॥ राम नामु रवि रहिआ तिहु लोइ ॥३॥ कलिजुग महि हरि जीउ एकु होर रुति न काई ॥ नानक गुरमुखि हिरदै राम नामु लेहु जमाई ॥४॥१०॥ {पन्ना 1129-1130} पद्अर्थ: कमाहि = कमाते हैं। रुति = ऋतु, मौसम। थाइ पाहि = कबूल होते।1। सारु = श्रेष्ठ। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। साचा = सदा कायम रहने वाला।1। रहाउ। खोजि = खोज के। घरै महि = हृदय घर में ही। नामि = नाम में।2। गिआन अंजनु = आत्मिक जीवन की सूझ का सुरमा। ते = से। रवि रहिआ = व्यापक। तिहु लोइ = तीनों ही लोकों में।3। हिरदै = हृदय में। लेहु जमाई = बीज लो।4। अर्थ: (अगर शास्त्रों की मर्यादा की तरफ़ भी देखो, तो भी) कलियुग में परमात्मा का नाम (जपना) श्रेष्ठ (कर्म) है। गुरू की शरण पड़ कर (नाम सिमरने से परमात्मा के साथ) सदा कायम रहने वाला प्यार बन जाता है।1। रहाउ। जो (कर्म-काण्डी लोग) कलयुग में भी और-और (मिथे हुए धार्मिक) कर्म करते हैं, उनके वह कर्म (परमात्मा की हजूरी में) कबूल नहीं होते (क्योंकि शास्त्रों के अनुसार भी सिमरन के बिना और किसी कर्म की अब) ऋतु नहीं है।1। जिस मनुष्य ने गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा के नाम में चिक्त जोड़ा, उसने अपना तन अपना मन खोज के हृदय-घर में ही प्रभू को पा लिया।2। आत्मिक जीवन की सूझ देने वाला सुरमा जिस मनुष्य को गुरू से मिल गया, उसको सारे जगत में परमात्मा का नाम ही व्यापक दिखाई देता है।3। (शास्त्रों के अनुसार भी) कलियुग में सिर्फ हरी-नाम सिमरन की ही ऋतु है, किसी और कर्म-काण्ड के करने का मौसम नहीं। (इसलिए) हे नानक! (कह- हे भाई!) गुरू की शरण पड़ कर अपने दिल में परमात्मा के नाम का बीज बो लो।4।10। नोट: किसी कर्म-कांडी को समझा रहे हैं जो सिमरन से टूट के सिर्फ कर्म-कांड को ही जीवन का सही रास्ता समझ रहा है। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |