श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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भैरउ महला ३ ॥ जोगी ग्रिही पंडित भेखधारी ॥ ए सूते अपणै अहंकारी ॥१॥ माइआ मदि माता रहिआ सोइ ॥ जागतु रहै न मूसै कोइ ॥१॥ रहाउ ॥ सो जागै जिसु सतिगुरु मिलै ॥ पंच दूत ओहु वसगति करै ॥२॥ सो जागै जो ततु बीचारै ॥ आपि मरै अवरा नह मारै ॥३॥ सो जागै जो एको जाणै ॥ परकिरति छोडै ततु पछाणै ॥४॥ चहु वरना विचि जागै कोइ ॥ जमै कालै ते छूटै सोइ ॥५॥ कहत नानक जनु जागै सोइ ॥ गिआन अंजनु जा की नेत्री होइ ॥६॥२॥ {पन्ना 1128}

पद्अर्थ: ग्रिही = गृहस्ती। पंडित = (बहुवचन)। भेखधारी = छह भेषों के साधू। ऐ = (बहुवचन) ये सारे। सूते = सोए हुए हैं। अपणै अहंकारी = अपने अहंकारि, अपने अपने अहंकार में।1।

मदि = नशे में। माता = मस्त। रहिआ सोइ = सो रहा है। जागतु रहै = जो सचेत रहता है। मूसै = ठगता है।1। रहाउ।

जिसु = जिस को। दूत = वैरी। ओहु = वह मनुष्य। वसगति = वश में।2।

ततु = जगत का असल, परमात्मा। बीचारै = मन में बसाता है। मरै = (विकारों से) मरता है। अवरा = औरों को।3।

ऐको = सिर्फ परमात्मा को। जाणै = गहरी सांझ डालता है। परकिरति = (प्रकृति = माया) माया (का मोह)।4।

केइ = कोई विरला। जमै ते = जम से। कालै ते = काल से। जमै कालै ते = जनम मरण के चक्कर से, आत्मिक मौत से। छूटै = बच जाता है।5।

जनु सोइ = वही मनुष्य। जा की नेत्री = जिसकी आँखों में। गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। अंजनु = सूरमा।6।

अर्थ: हे भाई! जीव माया के (मोह के) नशे में मस्त हो के प्रभू की याद से गाफिल हुआ रहता है (और, इस के आत्मिक जीवन की राशि-पूँजी को कामादिक लूटते रहते हैं)। पर जो मनुष्य (प्रभू की याद की बरकति से) सचेत रहता है, उसको कोई विकार लूट नहीं सकता।1। रहाउ।

हे भाई! जोगी, गृहस्ती, पण्डित, भेषों वाले साधू - ये सभी अपने-अपने (किसी) अहंकार में (पड़ कर प्रभू की याद से) गाफिल हुए रहते हैं।1।

हे भाई! सिर्फ वह मनुष्य सचेत रहता है जिसको गुरू मिल जाता है। वह मनुष्य (सिमरन की बरकति से) कामादिक पाँचों वैरियों को अपने वश में करे रखता है।2।

हे भाई! सिर्फ वह मनुष्य सचेत रहता है, जो परमात्मा के गुणों को अपने मन में बसाता है। वह मनुष्य (विकारों से) अपने आप को बचाए रखता है, वह मनुष्य और पर जोर-जबरदस्ती नहीं करता।3।

हे भाई! सिर्फ वह मनुष्य (माया के मोह की नींद से) सचेत रहता है जो सिर्फ परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है, जो माया (के मोह) को त्यागता है, और अपने असले-प्रभू के साथ जान-पहचान बनाता है।4।

हे भाई! (कोई ब्राहमण हो क्षत्रिय हो वैश्य हो व शूद्र हो) चारों वरणों में कोई विरला (माया के मोह की नींद से) सचेत रहता है (किसी खास वर्ण का कोई लिहाज़ नहीं)। (जो जागता है, वह) आत्मिक मौत से बचा रहता है।5।

नानक कहता है-वह मनुष्य माया के मोह की नींद से जागता है जिसकी आँखों में आत्मिक जीवन की सूझ का सुरमा पड़ा होता है।6।2।

भैरउ महला ३ ॥ जा कउ राखै अपणी सरणाई ॥ साचे लागै साचा फलु पाई ॥१॥ रे जन कै सिउ करहु पुकारा ॥ हुकमे होआ हुकमे वरतारा ॥१॥ रहाउ ॥ एहु आकारु तेरा है धारा ॥ खिन महि बिनसै करत न लागै बारा ॥२॥ करि प्रसादु इकु खेलु दिखाइआ ॥ गुर किरपा ते परम पदु पाइआ ॥३॥ कहत नानकु मारि जीवाले सोइ ॥ ऐसा बूझहु भरमि न भूलहु कोइ ॥४॥३॥ {पन्ना 1128}

पद्अर्थ: जा कउ = जिस (मनुष्य) को। साचे = साचि ही, सदा स्थिर हरी नाम में। साचा फलु = सदा कायम रहने वाला हरी नाम फल। पाई = हासिल करता है।1।

रे जन = हे भाई! कै सिउ = (परमात्मा को छोड़ के और) किस के आगे? करहु = तुम करते हो। हुकमे = हुकम में ही। होआ = (जगत) बना। वरतारा = हरेक कार व्यवहार।1। रहाउ।

आकारु = जगत। धारा = टिकाया हुआ। बिनसै = नाश हो जाता है। करत = पैदा करते हुए। बारा = बार, देर, चिर।2।

करि = कर के। प्रसादि = कृपा। ते = से। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा।3।

मारि जीवाले = मारता है जिंदा रखता है। सोइ = वह (स्वयं) ही। भरमि = भटकना में (पड़ के)। न भूलहु = गलत रास्ते पर ना पड़ो।4।

अर्थ: हे भाई! (कोई मुश्किल आने पर तुम परमात्मा को छोड़ कर) किसी और के आगे तरले ना करते फिरो। परमात्मा के हुकम में ही जगत बना है, उसके हुकम में ही हरेक घटना घटित हो रही है।1। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा जिस मनुष्य को अपने चरणों में जोड़े रखता है, वह मनुष्य सदा-स्थिर हरी-नाम में जुड़ा रहता है, वह मनुष्य सदा कायम रहने वाला हरी-नाम हासिल करता है।1।

हे प्रभू! ये सारा जगत तेरे ही आसरे है। (जब तू चाहे) यह एक छिन में नाश हो जाता है, इसको पैदा करते हुए (तुझे) समय नहीं लगता।2।

हे भाई! (परमात्मा ने) मेहर करके (जिस मनुष्य को यह संसार) ये तमाशा सा ही दिखा दिया है, वह मनुष्य गुरू की कृपा से सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है।3।

नानक कहता है- (हे भाई!) वह (परमात्मा) ही (जीवों को) मारता है और जिंदा रखता है। इस तरह (अस्लियत को) समझो, और, कोई भी भटकना में पड़ कर गलत रास्ते पर ना पड़ो।4।3।

भैरउ महला ३ ॥ मै कामणि मेरा कंतु करतारु ॥ जेहा कराए तेहा करी सीगारु ॥१॥ जां तिसु भावै तां करे भोगु ॥ तनु मनु साचे साहिब जोगु ॥१॥ रहाउ ॥ उसतति निंदा करे किआ कोई ॥ जां आपे वरतै एको सोई ॥२॥ गुर परसादी पिरम कसाई ॥ मिलउगी दइआल पंच सबद वजाई ॥३॥ भनति नानकु करे किआ कोइ ॥ जिस नो आपि मिलावै सोइ ॥४॥४॥ {पन्ना 1128}

पद्अर्थ: कामणि = स्त्री, जीव स्त्री। कंतु = पति। करी = करूँ, मैं करती हूँ। सीगार = (आत्मिक जीवन का) श्रृंगार।1।

जां = जब। तिसु भावै = उस (प्रभू-पति) को अच्छा लगता है। तां = तब। करे भोगु = (मुझे) अपने चरणों में जोड़ लेता है। साचे साहिब जोगु = सदा कायम रहने वाले मालिक के योग्य, सदा स्थिर प्रभू पति के हवाले कर दिया है।1। रहाउ।

उसतति = शोभा। करे किआ कोई = किसी के किए हुए का मेरे पर कोई असर नहीं होता। आपे = प्रभू स्वयं ही। वरतै = (उस्तति करने वाले और निंदा करने वाले में) मौजूद है। सोइ = वही, वह स्वयं ही।2।

परसादी = प्रसादि, कृपा से। पिरम कसाई = प्यार की कसक। मिलउगी = मैं मिलूँगी। पंच सबद वजाई = पंच शबद वजाय, (जैसे) पाँच किस्मों के साज बजा के (बहुत ही बढ़िया संगीतक रस बनता है, वैसे ही पूर्ण खिलाव आनंद से)।3।

भनति = कहता है। करे किआ कोइ = कोई क्या करे? कोई क्या बिगाड़ सकता है?।4।

जिस नो: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे सखी! मैं अपना तन अपना मन सदा कायम रहने वाले मालिक प्रभू के हवाले कर चुकी हूँ, जब उसकी रजा होती है मुझे अपने चरणों में जोड़ लेता है।1। रहाउ।

हे सखी! मैं (जीव-) स्त्री हूँ, करतार मेरा पति है, मैं वैसा ही श्रृंगार करती हूँ जैसे खुद करवाता है (मैं अपने जीवन को उतना ही सुंदर बना सकती हूँ, जितना वह बनवाता है)।1।

हे सखी! जब (अब मुझे निश्चय हो गया है कि) एक परमात्मा ही सबमें बैठा प्रेरणा कर रहा है (उस्तति करने वालों में भी वही, निंदा करन वालों में भी वही), किसी की की हुई उस्तति अथवा निंदा का अब मेरे पर कोई असर नहीं पड़ता।2।

हे सखी! गुरू की कृपा से (मेरे अंदर प्रभू-पति के लिए) प्यार की कसक बन गई है, अब मैं उस दया के श्रोत प्रभू को पूर्ण खिड़ाव आनंद के साथ मिलती हूँ।3।

नानक कहता है- (हे सखी!) जिस जीव को वह प्रभू स्वयं ही अपने चरणों में जोड़ लेता है, कोई और जीव उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।4।4।

जरूरी नोट: इसी ही राग में भगत नामदेव जी का शबद नं: 4 पढ़ो, जिसकी पहली तुक है "मैं बउरी मेरा रामु भतारु"। भगत नामदेव जी की बाणी के टीके में इन दोनों शबदों की सांझ के बारे में विचार पढ़ो।

भैरउ महला ३ ॥ सो मुनि जि मन की दुबिधा मारे ॥ दुबिधा मारि ब्रहमु बीचारे ॥१॥ इसु मन कउ कोई खोजहु भाई ॥ मनु खोजत नामु नउ निधि पाई ॥१॥ रहाउ ॥ मूलु मोहु करि करतै जगतु उपाइआ ॥ ममता लाइ भरमि भुोलाइआ ॥२॥ इसु मन ते सभ पिंड पराणा ॥ मन कै वीचारि हुकमु बुझि समाणा ॥३॥ करमु होवै गुरु किरपा करै ॥ इहु मनु जागै इसु मन की दुबिधा मरै ॥४॥ मन का सुभाउ सदा बैरागी ॥ सभ महि वसै अतीतु अनरागी ॥५॥ कहत नानकु जो जाणै भेउ ॥ आदि पुरखु निरंजन देउ ॥६॥५॥ {पन्ना 1128-1129}

पद्अर्थ: मुनि = मौन धारी साधू। जि = जो। दुबिधा = दो चिक्तापन, मेर तेर। ब्रहमु = परमात्मा। बीचारे = मन में बसाता है।1।

कउ = को। खोजहु = पड़ताल करते रहो। भाई = हे भाई! खोजत = पड़ताल करते हुए। नउ निधि = (धरती के सारे) नौ खजाने। पाई = प्राप्त हो जाता है।1। रहाउ।

मूलु = आदि। करि = कर के, बना के। करतै = करतार ने। ममता = (मम = मेरा) मल्कियत बनाने का स्वभाव, अपनत्व। भरमि = भ्रम में, भटकना में।2।

भुोलाइआ: अक्षर 'भ' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। असल शब्द है 'भुलाइआ' यहाँ पढ़ना है 'भोलाइआ' ।

ते = से। मन ते = मन से, मन के संस्कारों से। पिंड पराणा = शरीर के प्राण, जनम मरन के चक्कर। कै वीचारि = के विचार से। बुझि = समझ के। समाणा = (जनम मरन) समाप्त हो जाता है।3।

सुभाउ = असल। बैरागी = माया से निर्लिप। अतीतु = विरक्त। अनरागी = राग रहित, (अन+रागी) निर्मोह। देउ = प्रकाश रूप।6।

अर्थ: हे भाई! अपने इस मन को खोजते रहा करो। मन (की दौड़-भाग) की पड़ताल करते हुए परमात्मा का नाम मिल जाता है, यह नाम ही (मानो) धरती के नौ खजाने हैं।1। रहाउ।

हे भाई! असल मौनधारी साधू वह है जो (अपने) मन की दुविधा मिटा देता है, और दोचिक्तापन (मेर-तेर) मिटा के (उस मेर-तेर की जगह) परमात्मा को (अपने) मन में बसाता है।1।

हे भाई! (जगत रचना के) आदि मोह को बना के करतार ने जगत पैदा किया। जीवों में ममता चिपका के (माया की खातिर) भटकना में डाल के (उसने स्वयं ही) गलत रास्ते पर डाल दिया।2।

हे भाई! यह मन (के मेर-तेर ममता आदि के संस्कारों) से ही सारा जनम-मरण का सिलसला बनता है। मन के (सही) विचारों से परमात्मा की रज़ा को समझ के जीव परमात्मा में लीन हो जाता है।3।

हे भाई! जब परमात्मा की मेहर होती है, गुरू (जीव पर) कृपा करता है, (जीव का) यह मन (माया की मोह की नींद में से) जाग उठता है, इस मन की मेर-तेर समाप्त हो जाती है।4।

हे भाई! (जीव के) मन की असलियत वह प्रभू है जो माया से सदा निर्लिप रहता है। जो सबमें बसता है जो विरक्त है जो निर्मोह है।5।

नानक कहता है- जो मनुष्य (अपने इस असल के बारे में) यह भेद समझ लेता है वह (परमात्मा की याद में जुड़ के परमात्मा के नाम की बरकति से अपने अंदर से ममता की दुबिधा आदि को समाप्त करके) उस परमात्मा का रूप बन जाता है जो सबमें व्यापक है और जो माया के मोह से निर्लिप प्रकाश-रूप है।6।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh