श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1127 भैरउ महला १ ॥ हिरदै नामु सरब धनु धारणु गुर परसादी पाईऐ ॥ अमर पदारथ ते किरतारथ सहज धिआनि लिव लाईऐ ॥१॥ मन रे राम भगति चितु लाईऐ ॥ गुरमुखि राम नामु जपि हिरदै सहज सेती घरि जाईऐ ॥१॥ रहाउ ॥ भरमु भेदु भउ कबहु न छूटसि आवत जात न जानी ॥ बिनु हरि नाम को मुकति न पावसि डूबि मुए बिनु पानी ॥२॥ धंधा करत सगली पति खोवसि भरमु न मिटसि गवारा ॥ बिनु गुर सबद मुकति नही कब ही अंधुले धंधु पसारा ॥३॥ अकुल निरंजन सिउ मनु मानिआ मन ही ते मनु मूआ ॥ अंतरि बाहरि एको जानिआ नानक अवरु न दूआ ॥४॥६॥७॥ {पन्ना 1127} पद्अर्थ: सरब = सारे जीवों का। धारणु = आसरा, सहारा। परसादी = कृपा से। पाईअै = मिलता है। अमर पदारथ ते = आत्मिक जीवन देने वाली इस कीमती चीज़ की बरकति से। ते = से। किरतारथ = कृतार्थ (कृत+अर्थ) जिसका मनोरथ पूरा हो गया, सफल, कामयाब जीवन वाला। धिआनि = ध्यान में, समाधि में, टिकाव में (टिक के)। सहज धिआनि = आत्मिक अडोलता के टिकाव में (टिक के)।1। गुरमुखि = गुरू की ओर मुँह करके, गुरू के बताए हुए राह पर चल के। सहज = अडोलता, शांति। सेती = साथ। सहज सेती = शांति वाला जीवन गुजारते हुए। घरि = घर में, अपने मूल में, प्रभू चरणों में।1। रहाउ। भरमु = भटकना। भेदु = (प्रभू से) दूरी। भउ = डर, सहम। आवत जात = पैदा होते मरते। डूबि मूऐ = (विकारों के पानी में) गोते खा खा के आत्मिक मौत सहेड़ ली। बिनु पानी = पानी से खाली ही रहे, विषियों से तृप्ति भी नहीं हुई।2। पति = इज्जत। धंधा = माया की खातिर दौड़ भाग। भरमु = भटकना। गवारा = हे मूर्ख! अंधुले = हे अंधे! पसारा = खिलारा, सुरति का बिखराव।3। अकुल = वह जिसका कोई विशेष कुल नहीं। निरंजन = जिस पर माया का प्रभाव नहीं (निर+अंजन। अंजन = कालिख, माया की कालख)। सिउ = साथ। मानिआ = मान गया। मन ते = मन से, मन के मायावी फुरनों से। मनु मूआ = मन मर जाता है, मन का चाव उत्साह समाप्त हो जाता है।4। अर्थ: हे मन! परमात्मा की भक्ति में जुड़ना चाहिए। हे मन! गुरू के बताए हुए जीवन राह पर चल कर परमात्मा का नाम हृदय में सिमर, (इस तरह) शांति वाला जीवन गुजारते हुए परमात्मा के चरणों में पहुँचा जाता है।1। रहाउ। (जैसे दुनिया वाला धन-पदार्थ इन्सान की शारीरिक आवश्यक्ताएं पूरी करता है, वैसे ही) परमात्मा का नाम हृदय में टिकाना सब जीवों के लिए (आत्मिक आवश्यक्ताएं पूरी करने के लिए) धन है (आत्मिक जीवन का) सहारा बनता है, (पर यह धन) गुरू की कृपा से मिलता है। आत्मिक जीवन देने वाले इस कीमती धन की बरकति से कामयाब जिंदगी वाले बना जाता है, आत्मिक अडोलता के ठहराव में टिके रह के सुरति (प्रभू-चरणों में) जुड़ी रहती है।1। (परमात्मा का नाम-सिमरन के बिना) भटकना, प्रभू से दूरी, डर-सहम कभी समाप्त नहीं होता, जनम-मरण का चक्कर बना रहता है, (सही जीवन की) समझ नहीं पड़ती। प्रभू का नाम सिमरन के बिना कोई व्यक्ति (माया की तृष्णा से) खलासी नहीं प्राप्त कर सकता। (विकारों के पानी में) गोते खा-खा के आत्मिक मौत सहेड़ लेता है, विषियों से भी तृप्ति नहीं होती।2। हे मूर्ख (मन!) (निरी) माया की खातिर दौड़-भाग करते हुए तू अपनी इज्जत गवा लेगा, (इस तरह) तेरी भटकना समाप्त नहीं होगी। हे अंधे (मन!) गुरू के शबद (के साथ प्यार करने) के बिना (माया की तृष्णा से) कभी निजात नहीं मिलेगी। यह दौड़-भाग बनी रहेगी, सुरति का बिखराव बना रहेगा।3। जो मन उस प्रभू के साथ लग जाता है जो माया के प्रभाव से परे है और जिसकी कोई खास कुल नहीं है, मायावी फुरनों के प्रति उस मन का चाव-उत्साह ही समाप्त हो जाता है। हे नानक! वह मन अपने अंदर के सारे संसार में एक परमात्मा को ही पहचानता है, उस प्रभू के बिना कोई और उसको नहीं सूझता।4।6।7। भैरउ महला १ ॥ जगन होम पुंन तप पूजा देह दुखी नित दूख सहै ॥ राम नाम बिनु मुकति न पावसि मुकति नामि गुरमुखि लहै ॥१॥ राम नाम बिनु बिरथे जगि जनमा ॥ बिखु खावै बिखु बोली बोलै बिनु नावै निहफलु मरि भ्रमना ॥१॥ रहाउ ॥ पुसतक पाठ बिआकरण वखाणै संधिआ करम तिकाल करै ॥ बिनु गुर सबद मुकति कहा प्राणी राम नाम बिनु उरझि मरै ॥२॥ डंड कमंडल सिखा सूतु धोती तीरथि गवनु अति भ्रमनु करै ॥ राम नाम बिनु सांति न आवै जपि हरि हरि नामु सु पारि परै ॥३॥ जटा मुकटु तनि भसम लगाई बसत्र छोडि तनि नगनु भइआ ॥ राम नाम बिनु त्रिपति न आवै किरत कै बांधै भेखु भइआ ॥४॥ जेते जीअ जंत जलि थलि महीअलि जत्र कत्र तू सरब जीआ ॥ गुर परसादि राखि ले जन कउ हरि रसु नानक झोलि पीआ ॥५॥७॥८॥ {पन्ना 1127} पद्अर्थ: होम = हवन। देही = शरीर। मुकति = (दुखों से) मुक्ति, खलासी। नामि = नाम में (जुड़ के)। गुरमुखि = गुरू के बताए हुए रास्ते पर चल के।1। बिरथे = व्यर्थ। जगि = जगत में। बिखु = जहर, विकारों का जहर। मरि = मरे, आत्मिक मौत मरता है, ऊँचे आत्मिक गुण गवा देता है। भ्रमना = भटकना।1। रहाउ।? वखाणै = (औरों को) समझाता है। तिकाल = तीनों वक्त (सवेरे, दोपहर व शाम)। कहा = कहाँ? प्राणी = हे प्राणी! उरझि = उलझ के, (विकारों में) फस के।2। डंड = (जोगी वाला) डंडा। कमंडल = खप्पर, चिप्पी। सिखा = शिखा, चोटी। सूतु = जनेऊ। तीरथि गवनु = तीर्थों पर जाना, तीर्थ यात्रा। भ्रमनु = (धरती पर) भ्रमण करना।3। जटा मुकटु = जटाओं का जूड़ा। तनि = शरीर पर। भसम = राख। छोडि = छोड़ के। नगनु = नंगा। बांधै = बंधे हुए (मनुष्य) को। किरत = किए हुए कर्मों के संस्कार। किरत कै बांधै = किए हुए कर्मों के संस्कारों के बंधे हुए मनुष्य को। भेखु = धार्मिक लिबास।4। जेते जीअ = जितने भी जीव हैं। जलि = जल में। थलि = थल में, धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल के ऊपर, धरती के ऊपरी आकाश में, अंतरिक्ष में। जत्र कत्र = जहाँ कहाँ, हर जगह। जन कउ = (अपने) दास को। राखि ले = रख लेता है, रक्षा करता है। झोलि = हिला के, स्वाद से।5। अर्थ: परमात्मा का नाम जपने से वंचित रह के मनुष्य का जगत में जनम (लेना) व्यर्थ हो जाता है। जो मनुष्य विषियों का जहर खाता रहता है, विषियों की नित्य बातें करता रहता है और प्रभू सिमरन से खाली रहता है, उसकी जिंदगी बेकार बनी रहती है वह आत्मिक मौत मर जाता है और सदा भटकता रहता है।1। रहाउ। (विकारों से और विकारों से पैदा हुए दुखों से) खलासी कोई मनुष्य परमात्मा के नाम का सिमरन किए बिना नहीं पा सकता, ये मुक्ति (खलासी) गुरू की शरण पड़ के प्रभू-नाम में जुड़ने से ही मिलती है। (जो मनुष्य प्रभू का सिमरन नहीं करता तो) यज्ञ-हवन, पुन्य-दान, तप-पूजा आदि कर्म करने से शरीर (फिर भी) दुखी ही रहता है दुख ही सहता है।1। (पण्डित संस्कृत) पुस्तकों के पाठ और व्याकरण आदि (अपने विद्यार्थियों आदि को) समझाता है, तीनों वक्त (हर रोज) संध्या कर्म भी करता है, पर, हे प्राणी! गुरू के शबद के बिना उसको (विषियों के जहर से) खलासी बिल्कुल नहीं मिल सकती। परमात्मा के नाम से वंचित हो के वह विकारों में फसा रह के आत्मिक मौत सहेड़ लेता है।2। (जोगी हाथ में) डंडा और खप्पर पकड़ लेता है, ब्राहमण चोटी रखता है, जनेऊ और धोती पहनता है, (योगी) तीर्थ-यात्रा और धरती-भ्रमण करता है। (पर इन कामों से) परमात्मा के नाम सिमरन के बिना (मन को) शांति नहीं आ सकती । जो मनुष्य हरी का नाम सदा सिमरता है, वह (विषौ-विकारों के समुंद्र से) पार लांघ जाता है।3। जटाओं का जूड़ा कर लिया, शरीर पर राख मल ली, तन पर से कपड़े उतार के नंगा रहने लग पड़ा, पिछले किए कर्मों के संस्कारों में बंधे हुए के लिए (यह सारा आडंबर) निरा बाहरी धार्मिक लिबास ही है। प्रभू का नाम जपे बिना माया की तृष्णा से मन तृप्त नहीं होता।4। (पर, हे प्रभू! जीवों के कुछ वश नहीं है) पानी में धरती में आकाश में जितने भी जीव बसते हैं सबमें तू स्वयं ही हर जगह मौजूद है। हे नानक! जिस जीव को प्रभू गुरू की कृपा से (विषौ-विकारों से) बचाता है वह परमात्मा के नाम का रस बड़े स्वाद से पीता है।5।7।8। रागु भैरउ महला ३ चउपदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जाति का गरबु न करीअहु कोई ॥ ब्रहमु बिंदे सो ब्राहमणु होई ॥१॥ जाति का गरबु न करि मूरख गवारा ॥ इसु गरब ते चलहि बहुतु विकारा ॥१॥ रहाउ ॥ चारे वरन आखै सभु कोई ॥ ब्रहमु बिंद ते सभ ओपति होई ॥२॥ माटी एक सगल संसारा ॥ बहु बिधि भांडे घड़ै कुम्हारा ॥३॥ पंच ततु मिलि देही का आकारा ॥ घटि वधि को करै बीचारा ॥४॥ कहतु नानक इहु जीउ करम बंधु होई ॥ बिनु सतिगुर भेटे मुकति न होई ॥५॥१॥ {पन्ना 1127-1128} पद्अर्थ: गरबु = अहंकार। ब्रहम = परमात्मा। बिंदे = (जो) जानता है, सांझ डाल लेता है।1। मूरख = हे मूर्ख! ते = से (शब्द 'गरबु' और 'गरब' में व्याकर्णिक अंतर देखना)। विकारा = बुराई।1। रहाउ। चारे = चार ही। वरन = वर्ण (ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र)। सभु कोई = हरेक मनुष्य। ते = से। बिंद = वीर्य, असल। ब्रहमु बिंद ते = परमात्मा की ज्योति रूप असल से। सभ = सारी। ओपति = उत्पक्ति।2। सगल = सारा। बहु बिधि = कई किस्मों के। घड़ै = घड़ता है।3। मिलि = मिल के। देही = शरीर। आकारा = शक्ल। को करै = कौन कर सकता है? घटि = थोड़े। वधि = बहुत, ज्यादा।4। कहतु = कहता है। जीउ = जीव। करम बंधु = अपने किए कर्मों का बँधा हुआ। भेटे = मिल के। मुकति = (कर्म के बँधनों से) मुक्ति, खलासी।5। अर्थ: हे मूर्ख! हे गवार! (ऊँची) जाति का मान ना कर। इस गुमान-अहंकार से (भाईचारिक जीवन में) कई बुराईयाँ आरम्भ हो जाती हैं।1। रहाउ। हे भाई! कोई भी पक्ष (ऊँची) जाति का मान ना करना। ('जाति' के आसरे ब्राहमण नहीं बना जा सकता) (दरअसल) ब्राहमण वह मनुष्य है जो ब्रहम (परमात्मा) के साथ गहरी सांझ पा लेता है।1। हे भाई! हरेक मनुष्य यही कहता है कि (ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र ये) चारों ही (अलग-अलग) वर्ण हैं। (पर, ये लोग यह नहीं समझते कि) परमात्मा की ज्योति-रूप असल से ही सारी सृष्टि पैदा होती है।2। हे भाई! (जैसे कोई) कुम्हार एक ही मिट्टी से कई किस्मों के बर्तन घड़ लेता है, (वैसे ही) यह संसार है (परमात्मा ने अपनी ही ज्योति से बनाया है)।3। हे भाई! पाँच तत्व मिल के शरीर की शक्ल बनती है। कोई ये नहीं कह सकता कि किसी (एक वर्ण) में बहुत तत्व हैं, और किसी (दूसरे वरण) में थोड़े तत्व हैं।4। नानक कहता है- (चाहे कोई ब्राहमण है, चाहे कोई शूद्र है) हरेक जीव अपने-अपने किए कर्मों (के संस्कारों) का बँधा हुआ है। गुरू को मिले बिना (किए हुए कर्मों के संस्कारों के बँधनों से) मुक्ति नहीं होती।5।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |