श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1126 भैरउ महला १ ॥ भूंडी चाल चरण कर खिसरे तुचा देह कुमलानी ॥ नेत्री धुंधि करन भए बहरे मनमुखि नामु न जानी ॥१॥ अंधुले किआ पाइआ जगि आइ ॥ रामु रिदै नही गुर की सेवा चाले मूलु गवाइ ॥१॥ रहाउ ॥ जिहवा रंगि नही हरि राती जब बोलै तब फीके ॥ संत जना की निंदा विआपसि पसू भए कदे होहि न नीके ॥२॥ अम्रित का रसु विरली पाइआ सतिगुर मेलि मिलाए ॥ जब लगु सबद भेदु नही आइआ तब लगु कालु संताए ॥३॥ अन को दरु घरु कबहू न जानसि एको दरु सचिआरा ॥ गुर परसादि परम पदु पाइआ नानकु कहै विचारा ॥४॥३॥४॥ {पन्ना 1126} पद्अर्थ: भूंडी = कोझी, बेढबी, भद्दी। कर = हाथ। खिसरे = ढीले हो गए। तुचा = त्वचा, चमड़ी। देह = शरीर (की)। नेत्री = आँखों में। करन = कान। बहरे = बोले। मनमुखि = मन के पीछे चलने वाला व्यक्ति।1। जगि = जगत में। आइ = आ के, जनम ले के। रिदै = हृदय में। मूलु = राशि पूँजी।1। रहाउ। रंगि = रंग में, प्रेम में। राती = रंगी। फीके = खरवें। विआपसि = व्यस्त रहता है। नीके = अच्छे।2। सतिगुर मेलि = गुरू की संगति में। सबद भेदु = शबद का भेद, शबद का रस। कालु = मौत (का डर)।3। अन को = (प्रभू के बिना) किसी और का। सचिआरा = सदा कायम रहने वाले प्रभू का। परसादि = कृपा से। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। विचारा = विचार की बात।4। अर्थ: हे (माया के मोह में) अंधे हुए जीव! तूने जगत में जन्म ले के (आत्मिक जीवन के असली लाभ के तौर पर) कुछ भी नहीं कमाया, बल्कि तूने मूल भी गवा लिया (जो पहले कोई आत्मिक जीवन था वह भी नाश कर लिया, क्योंकि) तूने परमात्मा को अपने हृदय में नहीं बसाया, और तूने गुरू द्वारा बताए हुए कर्म नहीं किए।1। रहाउ। (हे अंधे जीव! अब बुढ़ापे में) तेरी चाल बेढबी हो चुकी है, तेरे हाथ-पैर निढाल हो चके हैं, तेरे शरीर की चमड़ी पर झुरड़ियां पड़ रही हैं, तेरी आँखों के आगे अंधेरा होने लग पड़ा है, तेरे कान बहरे हो चुके हैं, पर अभी भी अपने मन के पीछे चल के तूने परमात्मा के नाम के साथ सांझ नहीं डाली।1। (हे अंधे जीव!) तेरी जीभ प्रभू के प्यार की याद में नहीं भीगी, जब भी बोलती है फीके बोल ही बोलती है। तू सदा भले लोगों की निंदा में व्यस्त रहता है, तेरे सारे काम पशुओं वाले होए हुए हैं, (इस तरह रहने से) ये कभी भी अच्छे नहीं हो सकेंगे।2। (पर जीवों के भी क्या वश?) आत्मिक जीवन देने वाले श्रेष्ठ नाम के जाप का स्वाद उन विरले लोगों को आता है जिन्हें (परमात्मा स्वयं) सतिगुरू की संगति में मिलाता है। मनुष्य को जब तक सिफतसालाह का रस नहीं आता तब तक (ये ऐसे काम करता रहता है जिनके कारण) इसको मौत का डर सताता रहता है।3। नानक यह विचार की बात कहता है कि गुरू की कृपा से जो मनुष्य सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के दर पर ही टिका रहता है और परमात्मा के बिना किसी और का दरवाजा किसी और का घर नहीं तलाशता वह सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है।4।3।4। भैरउ महला १ ॥ सगली रैणि सोवत गलि फाही दिनसु जंजालि गवाइआ ॥ खिनु पलु घड़ी नही प्रभु जानिआ जिनि इहु जगतु उपाइआ ॥१॥ मन रे किउ छूटसि दुखु भारी ॥ किआ ले आवसि किआ ले जावसि राम जपहु गुणकारी ॥१॥ रहाउ ॥ ऊंधउ कवलु मनमुख मति होछी मनि अंधै सिरि धंधा ॥ कालु बिकालु सदा सिरि तेरै बिनु नावै गलि फंधा ॥२॥ डगरी चाल नेत्र फुनि अंधुले सबद सुरति नही भाई ॥ सासत्र बेद त्रै गुण है माइआ अंधुलउ धंधु कमाई ॥३॥ खोइओ मूलु लाभु कह पावसि दुरमति गिआन विहूणे ॥ सबदु बीचारि राम रसु चाखिआ नानक साचि पतीणे ॥४॥४॥५॥ {पन्ना 1126} पद्अर्थ: रैणि = रात। सोवत = कामादिक विकारों में मस्त रहता है। गलि = गले में। जंजालि = माया इकट्ठी करने के धंधे में। जानिआ = सांझ डाली। जिनि = जिस (प्रभू) ने।1। दुखु = माया के मोह का दुख। किआ ले आवसि = क्या साथ ले कर आता है? खाली हाथ आता है। गुण कारी = आत्मिक गुण पैदा करने वाले।1। रहाउ। ऊंधउ = उल्टा। कवलु = हृदय कमल। होछी = तुच्छ। मनि = मन से। मनि अंधै = अंधे मन से। धंधा = जंजाल, माया के मोह का झमेला। बिकालु = बि कालु, (मौत के उलट) जन्म।2। डगरी = अकड़ भरी। फुनि = भी। अंधुले = (विकारों में) अंधे। नही भाई = अच्छी नहीं लगी। त्रैगुण माइआ = त्रिगुणी माया का (प्रभाव)। अंधलउ = माया में अंधा हुआ जीव। धंधु = माया की खातिर दौड़ भाग।3। मूलु = वह आत्मिक जीवन जो पहले से पल्ले था। कह = कहाँ से? बीचारि = विचार के। साचि = सदा स्थिर प्रभू (की याद) में। पतीणे = पतीजे हुए, प्रसन्न।4। अर्थ: हे मन! तू माया के मोह का भारी दुख सह रहा है (यदि तू प्रभू सिमरन नहीं करता तो इस दुख से) कैसे निजात पाएगा? (दिन-रात माया की खातिर भटक रहा है, बता, जब पैदा हुआ था) कौन सी माया अपने साथ ले कर आया था? यहाँ से चलने के वक्त भी कोई चीज साथ ले के नहीं जा सकेगा। परमात्मा का नाम जप, यही है आत्मिक जीवन के गुण पैदा करने वाला।1। रहाउ। हे भाई! सारी रात कामादिक विकारों की नींद में रहता है, (इन विकारों के संस्कारों के) फंदे तेरे गले में पड़ते जाते हैं। सारा दिन माया कमाने के धंधों में गुजार देता है। एक छिन एक पल एक घड़ी तू उस परमात्मा के साथ सांझ नहीं डालता जिसने यह सारा संसार पैदा किया है।1। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने के कारण तेरा हृदय-कवल प्रभू की याद से उल्टा (बेमुख) होया हुआ है, तेरी समझ तुच्छ हुई पड़ी है, (माया के मोह में) अंधे हुए मन (की अगुवाई) के कारण तेरे सिर पर माया के जंजालों की गठड़ी बंधी पड़ी है। जनम-मरन (का चक्कर) सदा तेरे सिर के ऊपर टिका हुआ है। प्रभू का नाम सिमरन के बिना तेरे गले में मोह के फंदे पड़े हुए हैं।2। अकड़-भरी तेरी चाल है, तेरी आँखें भी (विकारों में) अंधी हुई पड़ी हैं, परमात्मा की सिफत-सालाह की ओर ध्यान देना तुझे अच्छा नहीं लगता। वेद-शास्त्र पढ़ता हुआ भी (तू ) त्रिगुणी माया के मोह में फसा हुआ है। तू (मोह में) अंधा हुआ पड़ा है, और माया की खातिर ही दौड़-भाग करता है।3। हे ज्ञान-हीन जीव! बुरी मति के पीछे लग के तू वह आत्मिक जीवन भी गवा बैठा है जो पहले तेरे पल्ले था (यहाँ जन्म ले कर और) आत्मिक लाभ तो तूने क्या कमाना था? हे नानक! जिन लोगों ने सिफतसालाह की बाणी को मन में बसा के प्रभू-नाम (के सिमरन) का स्वाद चखा, वह उस सदा-स्थिर प्रभू (की याद) में मस्त रहते हैं।4।4।5। भैरउ महला १ ॥ गुर कै संगि रहै दिनु राती रामु रसनि रंगि राता ॥ अवरु न जाणसि सबदु पछाणसि अंतरि जाणि पछाता ॥१॥ सो जनु ऐसा मै मनि भावै ॥ आपु मारि अपर्मपरि राता गुर की कार कमावै ॥१॥ रहाउ ॥ अंतरि बाहरि पुरखु निरंजनु आदि पुरखु आदेसो ॥ घट घट अंतरि सरब निरंतरि रवि रहिआ सचु वेसो ॥२॥ साचि रते सचु अम्रितु जिहवा मिथिआ मैलु न राई ॥ निरमल नामु अम्रित रसु चाखिआ सबदि रते पति पाई ॥३॥ गुणी गुणी मिलि लाहा पावसि गुरमुखि नामि वडाई ॥ सगले दूख मिटहि गुर सेवा नानक नामु सखाई ॥४॥५॥६॥ {पन्ना 1126-1127} पद्अर्थ: कै संगि = की संगति में। गुर कै संगि = गुरू की याद में। रसनि = रसना पर, जीभ पर। रंगि = प्रेम में। राता = रंगा हुआ, मस्त। अंतरि = अंदर बसता। जाणि = जान के, समझ के।1। जनु = दास। मै मनि = मेरे मन में। भावै = प्यारा लगता है। आपु = स्वै भाव। अपरंपरि = अपरंपर में, बेअंत प्रभू में, उसमें जो परे से परे है।1। रहाउ। पुरखु = व्यापक। निरंजनु = माया के प्रभाव से रहित प्रभू। पुरख आदेसो = व्यापक प्रभू को नमस्कार। घट = शरीर, हृदय। सरब निरंतरि = एक रस सब में। सचु वेसो = जिसका स्वरूप सदा कायम रहने वाला है।2। मिथिआ = झूठ। राई = रक्ती भर भी। सबदि = शबद में। पति = इज्जत।3। गुणी = गुणवान। मिलि = मिल के। लाहा = लाभ। नामि = नाम में (जुड़ के)। मिटहि = मिट जाते हैं। सखाई = मित्र।4। अर्थ: मेरे मन में तो (परमात्मा का) ऐसा दास प्यारा लगता है जो स्वैभाव (स्वार्थ) खत्म करके बेअंत प्रभू (के प्यार) में मस्त रहता है और सतिगुरू के द्वारा बताए हुए कर्म करता है (उन पद्चिन्हों पर चलता है जो सतिगुरू ने डाले हुए हैं)।1। रहाउ। ऐसा दास दिन-रात गुरू की संगति में रहता है (भाव, गुरू को अपने मन में बसाए रखता है), परमात्मा (के नाम) को अपनी जीभ पर बसाए रखता है, और प्रभू के प्रेम में रंगा रहता है। वह दास सदा सिफत-सालाह के साथ सांझ डालता है (निंदा आदि किसी) और (बल) को नहीं जानता, प्रभू को अपने अंदर बसता जान के उसके साथ सांझ डाले रखता है।1। (मुझे वह दास प्यारा लगता है जो) उस अकाल पुरख को (सदा) नमस्कार करता है जो सारे संसार का आदि है। (उस दास को परमात्मा) अंदर-बाहर हर जगह व्यापक दिखाई देता है, उस प्रभू पर माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता। (उस सेवक को) वह सदा-स्थिर प्रभू हरेक शरीर में एक-रस सब जीवों के अंदर मौजूद प्रतीत होता है।2। जो लोग सदा-स्थिर प्रभू (के प्यार) में मस्त रहते हैं, जिनकी जीभ पर आत्मिक जीवन देने वाला नाम टिका रहता है, झूठ की मैल उनके अंदर रक्ती भर भी नहीं होती। वह लोग पवित्र नाम (जपते हैं), आत्मिक जीवन देने वाले नाम का स्वाद चखते हैं, सिफतसालाह की बाणी में मस्त रहते हैं, और (लोक-परलोक में) इज्जत कमाते हैं।3। गुणवान (सेवक) गुणवान (सेवक) को मिल के (नाम-सिमरन की सांझ बना के) प्रभू-नाम का लाभ कमाता है, गुरू के बताए हुए रास्ते पर चल के नाम में जुड़ के आदर पाता है, गुरू की बताई हुई कार कर के उसके सारे दुख दूर हो जाते हैं; हे नानक! प्रभू का नाम उसका (सदा का) मित्र बन जाता हहै।4।5।6। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |