श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1125 रागु भैरउ महला १ घरु १ चउपदे ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु तुझ ते बाहरि किछू न होइ ॥ तू करि करि देखहि जाणहि सोइ ॥१॥ किआ कहीऐ किछु कही न जाइ ॥ जो किछु अहै सभ तेरी रजाइ ॥१॥ रहाउ ॥ जो किछु करणा सु तेरै पासि ॥ किसु आगै कीचै अरदासि ॥२॥ आखणु सुनणा तेरी बाणी ॥ तू आपे जाणहि सरब विडाणी ॥३॥ करे कराए जाणै आपि ॥ नानक देखै थापि उथापि ॥४॥१॥ {पन्ना 1125} पद्अर्थ: तुझ ते बाहरि = तेरी मर्जी के उलट। देखहि = तू संभाल करता है। जाणहि सोइ = तू ही उस (अपने किए) को समझता है।1। अहै = है, हो रहा है। रजाइ = मर्जी, हुकम, मर्यादा।1। रहाउ। कीचै = की जाए।2। बाणी = सिफतसालाह। विडाण = आश्चर्यजनक करिश्मे। विडाणी = आश्चर्यजनक करिश्मे करने वाला। सरब विडाणी = हे आश्चर्य भरे करिश्मे करने वाले!।3। थापि = बना के, पैदा करके। उथापि = गिरा के।4। अर्थ: (हे प्रभू! जगत में) जो कुछ हो रहा है सब तेरी मर्जी के मुताबिक हो रहा है (चाहे वह जीवों के लिए सुख है चाहे दुख है। अगर जीवों को कोई कष्ट मिल रहा है, तो भी उसके विरुद्ध रोस के रूप में) हम जीव क्या कह सकते हैं? (हमें तेरी रज़ा की समझ नहीं है, इसलिए हम जीवों से) कोई गिला किया नहीं जा सकता (कोई गिला फबता नहीं है)।1। रहाउ। (जगत में) कोई भी काम तेरी मर्जी के विरुद्ध नहीं हो रहा। तू स्वयं ही सब कुछ कर-कर के संभाल करता है तू आप ही (अपने किए को) समझता है।1। (अगर तेरी रजा में कोई ऐसी घटना घटित हो जो हम जीवों को दुखदाई लगे, तब भी तेरे बिना) किसी और के आगे आरजू नहीं की जा सकती, सो हम जीवों ने जो भी कोई तरला करना है (फरियाद करनी है) तेरे पास ही करना है।2। हे सारे आश्चर्यजनक करिश्मे करने वाले प्रभू! तू स्वयं ही (अपने किए हुए कामों के राज़) समझता है (हम जीवों को) यही फबता है कि हम तेरी सिफत-सलाह ही करें और सुनें।3। हे नानक! जगत को रच के भी और विनाश कर के भी प्रभू स्वयं ही संभाल करता है। प्रभू स्वयं ही सब कुछ करता है स्वयं ही (जीवों से) करवाता है और स्वयं ही (सारे भेद को) समझता है (कि क्यों यह कुछ कर और करा रहा है)।4।1। ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु भैरउ महला १ घरु २ ॥ गुर कै सबदि तरे मुनि केते इंद्रादिक ब्रहमादि तरे ॥ सनक सनंदन तपसी जन केते गुर परसादी पारि परे ॥१॥ भवजलु बिनु सबदै किउ तरीऐ ॥ नाम बिना जगु रोगि बिआपिआ दुबिधा डुबि डुबि मरीऐ ॥१॥ रहाउ ॥ गुरु देवा गुरु अलख अभेवा त्रिभवण सोझी गुर की सेवा ॥ आपे दाति करी गुरि दातै पाइआ अलख अभेवा ॥२॥ मनु राजा मनु मन ते मानिआ मनसा मनहि समाई ॥ मनु जोगी मनु बिनसि बिओगी मनु समझै गुण गाई ॥३॥ गुर ते मनु मारिआ सबदु वीचारिआ ते विरले संसारा ॥ नानक साहिबु भरिपुरि लीणा साच सबदि निसतारा ॥४॥१॥२॥ {पन्ना 1125} पद्अर्थ: सबदि = शबद से। कै सबदि = के शबद से। मुनि = मौनधारी साधू, सदा चुप साध के रखने वाले। केते = कितने ही, बेअंत। इंद्रादिक = इन्द्र आदि, इन्द्र और उस जैसे और। ब्रहमादि = ब्रहमा आदि, ब्रहमा व उस जैसे और। सनक, सनंदन = ब्रहमा के पुत्र। पारि परे = (भवजल से) पार लांघ गए।1। भवजलु = संसार समुंद्र। किउ तरीअै = कैसे तैरा जाए? नहीं तैरा जा सकता। रोगि = रोग में, दुबिधा के रोग में। बिआपिआ = ग्रसा हुआ, फसा हुआ। दुबिधा = दो किस्मा पन, मेरे तेर। डुबि = डूब के। डुबि डुबि = बार बार डूब के। मरीअै = आत्मिक मौत सहेड़ लेता है।1। रहाउ। देवा = प्रकाश रूप, रोशनी का श्रोत। अभेवा = जिसका भेद ना पड़ सके। गुरि = गुरू ने। दातै = दाते ने।2। राजा = बलवान हाकम, इन्द्रियों का मालिक, इन्द्रियों पर काबू पा सकने वाला। मन ते = मन से, मन (के मायावी फुरनों) से। मानिआ = मान गया, मना हो गया। मनसा = मन की वासना। मनहि = मनि ही, मन में ही। जोगी = प्रभू चरणों में मिला हुआ। बिनसि = बिनस के, मर के, स्वै भाव से समाप्त हो के। बिओगी = बिरही, प्रेमी। गाई = गाए, गाता है।3। गुर ते = गुरू से, गुरू से उपदेश ले के। ते = वह लोग। भरिपुरि = सारे जगत में नाकोनाक भरा हुआ। लीण = सारे जगत में व्यापक। सबदि = शबद में जुड़ा हुआ।4। अर्थ: गुरू के शबद (की अगुवाई) के बिना संसार-समुंद्र से पार नहीं लांघा जा सकता, (क्योंकि) परमात्मा के नाम से वंचित रहके जगत (मेर-तेर के भेद-भाव के) रोग में फसा रहता है, और मेर-तेर (के गहरे पानियों) में बार-बार डूब के (गोते खा-खा के आखिर) आत्मिक मौत सहेड़ लेता है।1। रहाउ। इन्द्र, ब्रहमा और उन जैसे अन्य अनेकों समाधियाँ लगाने वाले साधू गुरू शबद में जुड़ के ही (संसार-समुंद्र से) पार लांघते रहे, (ब्रहमा के पुत्र) सनक सनंदन व अन्य अनेकों तपी साधुगण गुरू की मेहर से ही भवजल से पार हुए।1। गुरू (आत्मिक जीवन के) प्रकाश का श्रोत है, गुरू अलख अभेव परमात्मा (का रूप) है, (गुरू के बताए हुए रास्ते पर चलने से ही) गुरू की बताई हुई कार कमाने से ही तीनों भवनों (में व्यापक प्रभू) की समझ आती है। नाम की दाति देने वाले गुरू ने जिस मनुष्य को स्वयं (नाम की) दाति दी, उसको अलॅख-अभेव प्रभू मिल गया।2। (गुरू की मेहर से) जो मन अपनी शारीरिक इन्द्रियों पर काबू पाने के लायक हो गया; वह मन मायावी फुरनों के पीछे दौड़-भाग बँद करनी मान गया, उस मन की वासना उसके अपने ही अंदर लीन हो गई। (गुरू की मेहर से वह) मन प्रभू-चरणों का मिलापी हो गया, वह मन स्वैभाव से समाप्त हो के प्रभू (-दीदार) का प्रेमी हो गया, वह मन ऊँची समझ वाला हो गया, और प्रभू की सिफत-सालाह करने लग पड़ा।3। (पर,) हे नानक! जगत में वह विरले बंदे हैं जिन्होंने गुरू की शरण पड़ कर अपना मन वश में किया है और गुरू के शबद को अपने अंदर बसाया है (जिन्होंने यह पदवी पा ली है), उनको मालिक प्रभू सारे जगत में (नाको-नाक) व्यापक दिखाई दे जाता है, गुरू के सच्चे शबद की बरकति से (संसार-समुंद्र के मेर-तेर के गहरे पानी में से) वे पार लांघ जाते हैं।4।1।2। नोट: 'घरु २' का यह पहला शबद है। अंक १ का यही भाव है। भैरउ महला १ ॥ नैनी द्रिसटि नही तनु हीना जरि जीतिआ सिरि कालो ॥ रूपु रंगु रहसु नही साचा किउ छोडै जम जालो ॥१॥ प्राणी हरि जपि जनमु गइओ ॥ साच सबद बिनु कबहु न छूटसि बिरथा जनमु भइओ ॥१॥ रहाउ ॥ तन महि कामु क्रोधु हउ ममता कठिन पीर अति भारी ॥ गुरमुखि राम जपहु रसु रसना इन बिधि तरु तू तारी ॥२॥ बहरे करन अकलि भई होछी सबद सहजु नही बूझिआ ॥ जनमु पदारथु मनमुखि हारिआ बिनु गुर अंधु न सूझिआ ॥३॥ रहै उदासु आस निरासा सहज धिआनि बैरागी ॥ प्रणवति नानक गुरमुखि छूटसि राम नामि लिव लागी ॥४॥२॥३॥ {पन्ना 1125-1126} पद्अर्थ: नैनी = आँखों में। द्रिसटि = देखने की शक्ति। हीना = कमजोर। जरि = जर ने, बुढ़ापे ने। सिरि = सिर पर। कालो = काल, मौत। रहसु = खिलना, प्रसन्नता। साचा = सदा कायम रहने वाला, रॅबी। जम जाले = जम का जाल, जम की फाही।1। जनमु = मनुष्य का जनम। गइओ = लांघता जा रहा है। न छूटसि = तू (जम जाल से) मुक्ति नहीं पा सकेगा।1। रहाउ। हउ = मैं मैं, अहंम्। मम = मेरा। ममता = मल्कियतों की चाहत। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। रसु = (सिमरन का) स्वाद। रसना = जीभ से। इन बिधि = इन तरीकों से।2। बहरे = जिसे सुनाई ना देता हो। करन = कान। अकलि = मति, समझ। होछी = थोड़े दायरे वाली। सहजु = अडोल अवस्था, शांत रस। सबद सहजु = सिफत सालाह का शांत रस। मनमुखि = मन की ओर मुँह कर के, मन के पीछे चल के। अंधु = अंधा।3। उदासु = उपराम, निर्लिप। निरासा = आशाओं से निराला। सहज धिआनि = अडोलता की समाधि में। धिआनि = ध्यान में, समाधि में। बैरागी = वैरागवान, निर्मोह। छूटसि = माया की मौत से बचेगा। नामि = नाम में।4। अर्थ: हे प्राणी! परमात्मा का सिमरन कर। जिंदगी बीतती जा रही है। परमात्मा की सिफतसालाह से वंचित रह के (माया के मोह से, जम के जाल से) तू कभी बचा नहीं रह सकेगा। तेरी जिंदगी व्यर्थ चली जाएगी।1। रहाउ। हे प्राणी! तेरी आँखों में देखने की (पूरी) ताकत नहीं रही, तेरा शरीर कमजोर हो गया है, बुढ़ापे ने तुझे जीत लिया है (बुढ़ापे ने तुझे मात दे दी है)। तेरे सिर पर अब मौत कूक रही है। ना तेरा ईश्वरीय-रूप बना, ना तुझे ईश्वरीय रंग चढ़ा, ना तेरे अंदर ईश्वरीय आनंद आया, (बता) जमका जाल तुझे कैसे छोड़ेगा?।1। हे प्राणी! तेरे शरीर में काम (जोर डाल रहा) है, क्रोध (प्रबल) है, अहंकार है, मल्कियतों की तमन्ना है, इन सबकी बहुत ज्यादा पीड़ा उठ रही है (इन विकारों में डूबने से तू कैसे बचे?)। हे भाई! गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा का भजन कर, जीभ से (सिमरन का) स्वाद ले। इन तरीकों से (इन विकारों के गहरे पानी में से सिमरन की) तारी लगा के पार हो जा।2। हे प्राणी! (सिफतसालाह के प्रति) तेरे कान बहरे (ही रहे), तेरी बुद्धि तुच्छ हो गई है (थोड़ी-थोड़ी बात पर आपे से बाहर हो जाना तेरा स्वभाव बन गया है), सिफतसालाह का शांत-रस तू समझ नहीं सका। अपने मन के पीछे लग के तूने कीमती मनुष्य-जन्म गवा लिया है। गुरू की शरण ना आने के कारण तू (आत्मिक जीवन के प्रति) अंधा ही रहा, तुझे (आत्मिक जीवन की) समझ ना आई।3। (हे प्राणी!) नानक विनती करता है (और तुझे समझाता है कि) जो मनुष्य गुरू के बताए हुए रास्ते पर चलता है वह (विकारों के फंदों से) मुक्ति पा लेता है, प्रभू के नाम में उसकी सुरति टिकी रहती है, वह (दुनिया में विचरता हुआ भी दुनिया से) उपराम रहता है, आशाओं से निर्लिप रहता हहै, अडोलता की समाधि में टिका रह के वह (दुनिया से) निर्मोह रहता है।4।2।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |