श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1124 काम क्रोध त्रिसना के लीने गति नही एकै जानी ॥ फूटी आखै कछू न सूझै बूडि मूए बिनु पानी ॥१॥ चलत कत टेढे टेढे टेढे ॥ असति चरम बिसटा के मूंदे दुरगंध ही के बेढे ॥१॥ रहाउ ॥ राम न जपहु कवन भ्रम भूले तुम ते कालु न दूरे ॥ अनिक जतन करि इहु तनु राखहु रहै अवसथा पूरे ॥२॥ आपन कीआ कछू न होवै किआ को करै परानी ॥ जा तिसु भावै सतिगुरु भेटै एको नामु बखानी ॥३॥ बलूआ के घरूआ महि बसते फुलवत देह अइआने ॥ कहु कबीर जिह रामु न चेतिओ बूडे बहुतु सिआने ॥४॥४॥ {पन्ना 1124} पद्अर्थ: लीने = ग्रसे हुए। ऐकै गति = एक प्रभू (के मेल) की अवस्था। फूटी आखै = आँख फूट जाने के कारण, अंधा हो जाने के कारण। बूडि मूऐ = डूब कर मर गए।1। कत = किसलिए? क्यों? असति = (सं: अस्थि) हड्डी। चरम = चर्म, चमड़ी। मूंदे = भरे हुए। बेढे = लिबड़े हुए।1। रहाउ। तुम ते = तुझसे। राखहु = पाल रहे हो, रक्षा कर रहे हो। रहै = रह जाता है, नाश हो जाता है। अवसथा = अवस्था, उम्र।2। परानी = प्राणी, जीव। भेटै = मिलता है। बखानी = उचारता है।3। बलूआ = बालू, रेत। घरूआ = छोटा सा घर। फुलवत = फूलता, गुमान करता। देह = शरीर। अइआने = हे अंजान! जिह = जिन्होंने।4। अर्थ: (हे अंजान जीव!) क्यों अकड़-अकड़ के चलता है? है तो तू हड्डियों, चमड़ी और विष्ठा से भरा हुआ, और र्दुगंध से लिबड़ा हुआ।1। रहाउ। (हे अंजान!) काम, क्रोध, तृष्णा आदि में ग्रसे रह के तू यह नहीं समझा कि प्रभू के साथ मेल कैसे हो सकेगा। माया में तू अंधा हो रहा है, (माया के बिना) कुछ और तुझे सूझता ही नहीं। तू पानी के बिना ही (सूखे में ही) डूब मरा।1। (हे अंजान!) तू प्रभू को नहीं सिमरता, किन भुलेखों में भूला हुआ है? (क्या तेरा यह ख्याल है कि मौत नहीं आएगी?) मौत तुझसे दूर नहीं। जिस शरीर को अनेकों यतन करके पाल रहा है, यह उम्र पूरी होने पर ढह जाएगा।2। (पर) जीव के भी क्या वश? जीव का अपना किया कुछ नहीं हो सकता। जब प्रभू की रजा होती है (जीव को) गुरू मिलता है (और, गुरू की मेहर से) ये प्रभू के नाम को ही सिमरता है।3। हे अंजान! (यह तेरा शरीर रेत के घर के समान है) तू रेत के घर में बसता है, और इस शरीर पर गर्व करता है। हे कबीर! कह- जिन लोगों ने प्रभू का सिमरन नहीं किया, वह बड़े-बड़े समझदार भी (संसार-समुंद्र में) डूब गए।4।4। शबद का भाव: असारता-शरीर के गुमान में ईश्वर को भुला देना मूर्खता है। यह तो रेत के घर जैसा है। टेढी पाग टेढे चले लागे बीरे खान ॥ भाउ भगति सिउ काजु न कछूऐ मेरो कामु दीवान ॥१॥ रामु बिसारिओ है अभिमानि ॥ कनिक कामनी महा सुंदरी पेखि पेखि सचु मानि ॥१॥ रहाउ ॥ लालच झूठ बिकार महा मद इह बिधि अउध बिहानि ॥ कहि कबीर अंत की बेर आइ लागो कालु निदानि ॥२॥५॥ {पन्ना 1124} पद्अर्थ: टेढी = टेढ़ी। चले = चलते हैं। बीरे = पान के बीड़े। खान लागे = खाने लगते हैं, खाने में मस्त हैं। भाउ = प्यार। सिउ = साथ। कछूअै काजु न = कोई काम नहीं, कोई आवश्यक्ता नहीं। दीवान = कचहरी, हकूमत।1। अभिमानि = अहंकार में। कनिक = सोना। कामनी = स्त्री। महा = बड़ी। पेखि = देख के। सचु = सदा टिके रहने वाले। मानि = माने, मानता है, समझता है।1। रहाउ। मद = अहंकार। इह बिधि = इस तरीके से, इन तरीकों से। अउध = उम्र। बिहानि = गुजरती है, बीतती है। कहि = कहे, कहता है। बेर = समय। आइ लागो = आ पहुँचता है। कालु = मौत। निदानि = आखिर में, सिरे पर।2। अर्थ: मनुष्य अहंकार में (आ के) परमात्मा को भुला देता है। सोना और बड़ी सुंदर स्त्री देख के ये मान बैठता है कि ये सदा रहने वाले हैं।1। रहाउ। (अहंकार में) टेढ़ी पगड़ी बाँधता है, अकड़ कर चलता है, पान के बीड़े खाता है, (और कहता है-) मेरा काम है हकूमत करनी, परमात्मा से प्यार अथवा प्रभू की भक्ति की मुझे कोई जरूरत नहीं।1। (माया का) लालच, झूठ, विकार, बड़ा अहंकार- इन बातों से ही (सारी) उम्र गुजर जाती है। कबीर कहता है-आखिर उम्र खत्म होने पर मौत (सिर पर) आ ही पहुँचती है।2।5। शबद का भाव: असारता- धन, स्त्री, हकूमत के मान में ईश्वर को बिसार के मनुष्य जीवन को व्यर्थ गवा लेता है। चारि दिन अपनी नउबति चले बजाइ ॥ इतनकु खटीआ गठीआ मटीआ संगि न कछु लै जाइ ॥१॥ रहाउ ॥ दिहरी बैठी मिहरी रोवै दुआरै लउ संगि माइ ॥ मरहट लगि सभु लोगु कुट्मबु मिलि हंसु इकेला जाइ ॥१॥ वै सुत वै बित वै पुर पाटन बहुरि न देखै आइ ॥ कहतु कबीरु रामु की न सिमरहु जनमु अकारथु जाइ ॥२॥६॥ {पन्ना 1124} पद्अर्थ: नउबति बजाइ = हकूमत का नगारा बजा के, हकूमत करके। चले = चल पड़े। इतनक खटीआ = माया इतनी कमाई। गठीआ = गाठें बाँध लीं। मटीआ = मिट्टी में (दबा रखीं)।1। रहाउ। दिहरी = दहलीज। मिहरी = पत्नी। दुआरै = बाहरी दरवाजे तक। माइ = माँ। मरहट = मरघट। हंसु = जीवात्मा।1। वे = वह। बित = धन। पुर = नगर। पाटन = शहर। बहुरि = फिर कभी। आइ = आ के। की न = क्यों नहीं? अकारथ = व्यर्थ।2। अर्थ: मनुष्य (यदि राजा भी बन जाए तो भी) थोड़े ही दिन राज भोग के (यहाँ से) चल पड़ता है। यदि इतना धन भी जोड़ ले तो भी कोई चीज़ (आखिर में जीव के) साथ नहीं जाती।1। रहाउ। (जब मर जाता है तब) घर की दहलीज़ पर बैठी पत्नी रोती है, बाहरी दरवाजे तक उसकी माँ (उसके मुर्दा शरीर का) साथ करती है, मरघट तक और लोग व परिवार के व्यक्ति जाते हैं। पर जीवात्मा अकेली ही जाती है।1। वह (अपने) पुत्र, धन, नगर शहर वापस कभी आ के नहीं देख सकता। कबीर कहता है- (हे भाई!) परमात्मा का सिमरन क्यों नहीं करता? (सिमरन के बिना) जीवन व्यर्थ चला जाता है।2।6। शबद का भाव: असारता- धन, हकूमत, पुत्र, स्त्री आदि सबसे आखिर में साथ छूट जाता है। इनके मोह में ही फसे रहने से जीवन व्यर्थ जाता है। नोट: साधारण तौर पर दुनिया की असारता का वर्णन करते हुए भी कबीर जी हिन्दका शब्द 'मरहट' (मरघट) प्रयोग करते हैं। पालन-पोषण जो हिन्दू घर में हुआ। रागु केदारा बाणी रविदास जीउ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ खटु करम कुल संजुगतु है हरि भगति हिरदै नाहि ॥ चरनारबिंद न कथा भावै सुपच तुलि समानि ॥१॥ रे चित चेति चेत अचेत ॥ काहे न बालमीकहि देख ॥ किसु जाति ते किह पदहि अमरिओ राम भगति बिसेख ॥१॥ रहाउ ॥ सुआन सत्रु अजातु सभ ते क्रिस्न लावै हेतु ॥ लोगु बपुरा किआ सराहै तीनि लोक प्रवेस ॥२॥ अजामलु पिंगुला लुभतु कुंचरु गए हरि कै पासि ॥ ऐसे दुरमति निसतरे तू किउ न तरहि रविदास ॥३॥१॥ {पन्ना 1124} पद्अर्थ: खट करम: मनु स्मृति में बताए छह कर्म हरेक ब्राहमण के लिए आवश्यक हैं; अध्यापनमध्यनं याजनं तथा। विद्या पढ़नी और पढ़ानी, यज्ञ करना और करवाना, दान देना और लेना। संजुगतु = संयुक्त, समेत, सहित। चरनारबिंद = चरन+अरबिंद, चरन कमल। सु पच = (श्व+पच) चंडाल, जो कुत्ते को पचा ले, जो कुत्ते का माँस खाते हैं। तुलि = तूल्य, बराबर। समानि = जैसा।1। रे अचेत चित = हे गाफ़ल मन! काहे न = क्यों नहीं? पदहि = दर्जे पर। अमरिओ = पहुँचा हुआ। बिसेख = विशेषता, महत्वता, वडिआई।1। रहाउ। सुआन सत्रु = कुक्तों का वैरी, कुक्तों को मार के खा जाने वाला। अजातु = नीच, चाण्डाल। हेतु = प्यार। बपुरा = बेचारा, निमाणा। सराहै = सिफत करे।2। लुभतु = लुब्धक, शिकारी। कुंचरु = हाथी। दुरमति = बुरी मति वाले।3। अजामल = कन्नौज देश का एक दुराचारी ब्राहमण, जिसने एक वैश्या के साथ विवाह किया था। उस वैश्या के उदर से 10 पुत्र जन्मे। छोटे पुत्र का नाम नारायण होने के कारण अजामल नारायण का भक्त बन गया, और मुक्ति का अधिकारी हो गया। कुंचरु = हाथी, गज। एक गंधर्व जो दैवल ऋषि के श्राप से हाथी बन गया था। वरुण देवता के तालाब में तंदूए ने इसको ग्रस लिया था। जब निर्बल हो के ये डूबने लगा, तब कमल सूँड में लेकर ईश्वर को आराधते हुए ने सहायता के लिए पुकार की थी। भगवान ने तेंदुए के बँधनों से गजराज को मुक्त किया था। ये कथा भागवत के आठवें असकंध के दूसरे अध्याय में है। पिंगला = जनकपुरी में एक गनिका रहती थी, जिसका नाम पिंगला था। उसने एक दिन धनी सुंदर जवान देखा, उस पर मोहित हो गई। पर वह उसके पास नहीं आया। पिंगुला की सारी रात बैचेनी में बीती। अंत को उसके मन में वैराग पैदा हुआ कि यदि ऐसा प्रेम मैं परमेश्वर के प्रति करती, तो कितना अच्छा फल मिलता। पिंगुला ईश्वर के सिमरन में लग के मुक्त हो गई। अर्थ: हे मेरे गाफिल मन! प्रभू को सिमर। हे मन! तू बाल्मीकि की तरफ क्यों नहीं देखता? एक नीच जाति से बहुत बड़े दर्जे पर पहुँच गया-ये महिमा परमात्मा की भक्ति के कारण ही थी।1। रहाउ। अगर कोई मनुष्य ऊँचे ब्राहमण कुल का हो, और, नित्य छह कर्म करता हो; पर अगर उसके हृदय में परमात्मा की भक्ति नहीं, यदि उसको प्रभू के सुंदर चरणों की बातें अच्छी नहीं लगतीं, तो वह चण्डाल के बराबर है, चण्ण्डाल जैसा है।1। (बाल्मीक) कुक्तों का वैरी था, सब लोगों से ज्यादा चण्डाल था, पर उसने प्रभू से प्यार किया। बेचारा जगत उसकी क्या उस्तति कर सकता है? उसकी शोभा तीनों लोकों में बिखर गई।2। अजामल, पिंगुला, शिकारी, कुंचर- ये सारे (मुक्त हो के) प्रभू-चरणों में जा पहुँचे। हे रविदास! अगर ऐसी बुरी मति वालों का उद्धार हो गया तो तू (इस संसार-सागर से) क्यों ना पार लांघेगा?।3।1। शबद का भाव: सिमरन की महिमा। सिमरन बड़े-बड़े पापियों को तार देता है। सिमरन से विहीन मनुष्य असल में नीच है। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |