श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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भैरउ महला ३ ॥ सबदु बीचारे सो जनु साचा जिन कै हिरदै साचा सोई ॥ साची भगति करहि दिनु राती तां तनि दूखु न होई ॥१॥ भगतु भगतु कहै सभु कोई ॥ बिनु सतिगुर सेवे भगति न पाईऐ पूरै भागि मिलै प्रभु सोई ॥१॥ रहाउ ॥ मनमुख मूलु गवावहि लाभु मागहि लाहा लाभु किदू होई ॥ जमकालु सदा है सिर ऊपरि दूजै भाइ पति खोई ॥२॥ बहले भेख भवहि दिनु राती हउमै रोगु न जाई ॥ पड़ि पड़ि लूझहि बादु वखाणहि मिलि माइआ सुरति गवाई ॥३॥ सतिगुरु सेवहि परम गति पावहि नामि मिलै वडिआई ॥ नानक नामु जिना मनि वसिआ दरि साचै पति पाई ॥४॥४॥१४॥ {पन्ना 1131}

पद्अर्थ: बीचारे = मन में बसाता है। साचा = ठहरे हुए जीवन वाला (माया के हमलों से) अडोल चिक्त। कै हिरदै = के हृदय में। साचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। साची भगति = सदा स्थिर प्रभू की भक्ति। करहि = करते हैं (बहुवचन)। तनि = शरीर में। न होई = पैदा नहीं होता।1।

कहै = कहता है। (एकवचन)। सभु कोई = हरेक मनुष्य। मिलै = मिलता है।1। रहाउ।

मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। मूलु = राशि पूँजी, सरमाया। लाभु = नफा, लाभ। मागहि = माँगते हैं (बहुवचन)। किदू = कैसे? जमकालु = आत्मिक मौत। दूजै भाइ = माया के प्यार में। पति = इज्जत। खोई = गवा ली।2।

बहले = कई, अनेकों। भवहि = भ्रमण करते हैं (तीर्थ आदि पर)। न जाई = दूर नहीं होता। पढ़ि = पढ़ के। लूझहि = झगड़ते हैं, बहसें करते हैं, शास्त्रार्थ करते हैं। बादु = झगड़ा, बहस, चर्चा। वखाणहि = उचारते हैं, बोलते हैं। मिलि = मिल के। सुरति = आत्मिक जीवन की ओर का होश।3।

सेवहि = शरण पड़ते हैं। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। नामि = नाम में (जुड़े रहने के कारण)। वडिआई = (लोक परलोक की) इज्जत। मनि = मन में। दरि = दर पर। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभू के दर पर। पति = इज्जत।4।

अर्थ: हे भाई! गुरू की शरण पड़े बिना परमात्मा की भक्ति नहीं हो सकती। हे भाई! पूरी किस्मत से ही (किसी मनुष्य को) वह परमात्मा मिलता है, (जिस मनुष्य को मिल जाता है, उसके बारे में) हर कोई कहता है कि ये भगत है भगत है।1। रहाउ।

हे भाई! जो मनुष्य गुरू के शबद को (अपने) मन में बसाता है, वह मनुष्य (माया के हमलों से) अडोल-चिक्त हो जाता है। हे भाई! जिन मनुष्यों के हृदय में सदा कायम रहने वाला परमात्मा बस जाता है, जो मनुष्य दिन-रात सदा-स्थिर प्रभू की भक्ति करते हैं, उनके शरीर में कोई (विकार-) दुख नहीं पैदा होता।1।

हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (अपना) सरमाया (ही) गवा लेते हैं, पर माँगते हैं (आत्मिक) लाभ। (बताओ, उनको) कैसे कमाई हो सकती है? लाभ कहाँ से मिले? आत्मिक मौत सदा उनके सर पर सवार रहती है। माया के प्यार में (फस के उन्होंने लोक-परलोक की) इज्जत गवा ली होती है।2।

हे भाई! जो मनुष्य कई (धार्मिक) भेष करके दिन-रात (जगह-जगह) भ्रमण करते फिरते हैं (उनको अपने इस त्याग का अहंकार हो जाता है, उनका यह) अहंकार का रोग दूर नहीं होता। (और, जो पंडित आदि लोग वेद-शास्त्र आदि) पढ़-पढ़ के (फिर अपने आप में) मिल के बहस करते हैं चर्चा करते हैं उन्होंने भी माया के मोह के कारण (आत्मिक जीवन से अपनी) होश गवा ली होती है।3।

हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ते हैं, वे सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लेते हैं, (परमात्मा के) नाम में जुड़े रहने के कारण उनको (लोक-परलोक की) इज्जत मिल जाती है। हे नानक! जिन मनुष्यों के मन में परमात्मा का नाम आ बसा, उन्होंने सदा-स्थिर प्रभू के दर पर आदर कमा लिया।4।4।14।

भैरउ महला ३ ॥ मनमुख आसा नही उतरै दूजै भाइ खुआए ॥ उदरु नै साणु न भरीऐ कबहू त्रिसना अगनि पचाए ॥१॥ सदा अनंदु राम रसि राते ॥ हिरदै नामु दुबिधा मनि भागी हरि हरि अम्रितु पी त्रिपताते ॥१॥ रहाउ ॥ आपे पारब्रहमु स्रिसटि जिनि साजी सिरि सिरि धंधै लाए ॥ माइआ मोहु कीआ जिनि आपे आपे दूजै लाए ॥२॥ तिस नो किहु कहीऐ जे दूजा होवै सभि तुधै माहि समाए ॥ गुरमुखि गिआनु ततु बीचारा जोती जोति मिलाए ॥३॥ सो प्रभु साचा सद ही साचा साचा सभु आकारा ॥ नानक सतिगुरि सोझी पाई सचि नामि निसतारा ॥४॥५॥१५॥ {पन्ना 1131}

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। आसा = (और ज्यादा माया जोड़ने की) चाहत। उतरै = खत्म होती। दूजै भाइ = माया के प्यार में। खुआऐ = (सही जीवन राह से) टूटे हुए हैं। उदरु = पेट। नै = नय, नदी। साणु = की तरह। पचाऐ = (उनको) जलाती है।1।

रसि = स्वाद में। राते = रंगे हुए, रति हुए, मस्त। हिरदै = दिल में। दुबिधा = मेर तेर। मनि = मन में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। पी = पी के। त्रिपताते = तृप्त हो जाते हैं, अघा जाते हैं।1। रहाउ।

जिनि = जिस ने। साजी = पैदा की, रची। सिरि सिरि = हरेक के सिर पर, हरेक के किए अनुसार। धंधै = धंधे में। आपे = आप ही। दूजै = माया (के मोह) में।2।

तिस नो: संबंधक 'नो' के कारण 'तिसु' की 'ु' मात्रा हट गई है।

किहु = कुछ। सभि = सारे जीव। माहि = में। गुरमुखि = गुरू से। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। बीचारा = मन में बसाया। जोती = प्रभू की ज्योति में।3।

साचा = सदा कायम रहने वाला। सद = सदा। साचा = अस्तित्व वाला। आकारा = जगत। सतिगुरि = गुरू ने। सचि नामि = सदा स्थिर नाम में (जोड़ के)। निसतारा = संसार समुंद्र से पार लंघा दिया।4।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम-रस में भीगे रहते हैं, उनके अंदर सदा आनंद बना रहता है। (माया के मोह के कारण मनुष्य के) मन में मेर-तेर टिकी रहती है, पर जिन मनुष्यों के हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है, उनकी मेर-तेर दूर हो जाती है। परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पी के वह (माया की तरफ से सदा) तृप्त रहते हैं।1। रहाउ।

हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों के अंदर से (और ज्यादा माया जोड़ने की) लालसा दूर नहीं होती। माया के प्यार में वे सही जीवन राह से टूटे रहते हैं। नदी की तरह उनका पेट (माया से) कभी नहीं भरता। तृष्णा की आग उन्हें जलाती रहती है।1।

पर, हे भाई! (जीवों के भी क्या वश?) जिस (परमात्मा) ने जगत रचा है वह परमात्मा स्वयं ही सब जीवों को पिछली की कमाई अनुसार माया की दौड़-भाग में लगाए रखता है। जिस प्रभू ने माया का मोह बनाया है, वह स्वयं ही (जीवों को) माया के मोह में जोड़े रखता है।2।

हे भाई! (माया के मोह के बारे में) उस परमात्मा को कुछ तभी कहा जा सकता है अगर वह हमसे बाहर का हो (बेगाना हो)। हे प्रभू! सारे जीव तेरे में ही लीन हैं (जैसे दरिया की लहरें दरिया में)। हे भाई! जिस मनुष्य ने आत्मिक जीवन की असल सूझ को विचारा है, उसकी जिंद प्रभू की ज्योति में जुड़ी रहती है।3।

हे भाई! वह परमात्मा सदा कायम रहने वाला है, सदा ही अस्तित्व वाला है। यह सारा जगत भी सदा अस्तित्व वाला है (क्योंकि इसमें परमात्मा ही सब जगह व्यापक है)। हे नानक! जिस मनुष्य को गुरू ने (आत्मिक जीवन की) समझ बख्शी है, उसको उसने परमात्मा के नाम में जोड़ के (संसार-समुंद्र से) पार लंघा दिया है।4।5।15।

भैरउ महला ३ ॥ कलि महि प्रेत जिन्ही रामु न पछाता सतजुगि परम हंस बीचारी ॥ दुआपुरि त्रेतै माणस वरतहि विरलै हउमै मारी ॥१॥ कलि महि राम नामि वडिआई ॥ जुगि जुगि गुरमुखि एको जाता विणु नावै मुकति न पाई ॥१॥ रहाउ ॥ हिरदै नामु लखै जनु साचा गुरमुखि मंनि वसाई ॥ आपि तरे सगले कुल तारे जिनी राम नामि लिव लाई ॥२॥ मेरा प्रभु है गुण का दाता अवगण सबदि जलाए ॥ जिन मनि वसिआ से जन सोहे हिरदै नामु वसाए ॥३॥ घरु दरु महलु सतिगुरू दिखाइआ रंग सिउ रलीआ माणै ॥ जो किछु कहै सु भला करि मानै नानक नामु वखाणै ॥४॥६॥१६॥ {पन्ना 1131-1132}

पद्अर्थ: कलि = कलजुग। प्रेत = भूत प्रेत, वह रूहें जिनकी गति नहीं हुई। पछाता = सांझ डाली। सतजुगि = सतजुग में। परम हंस = सबसे ऊँचे हंस, सबसे अच्छे जीवन वाले, महापुरख। बीचारी = विचारवान, जिन्होंने नाम को मन में बसाया है। दुआपरि = द्वापर में। त्रेतै = त्रेते में। माणस = मनुष्य (बहुवचन)। वरतहि = वर्तण व्यवहार करते हैं। विरलै = किसी एक आध ने, किसी विरले ने।1।

जुगि = जुग में। जुगि जुगि = हरेक युग में। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य ने। जाता = जाना, गहरी सांझ बना ली। मुकति = विकारों से खलासी। न पाई = (किसी मनुष्य ने भी) हासिल नहीं की।1। रहाउ।

हिरदै = हृदय में। लखै = देख लेता है। जनु = (जो) मनुष्य। साचा = सदा स्थिर। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के। मंनि = मन में। तरे = (संसार समुंद्र से) पार लांघ जाता है। सगले कुल = सारी कुलें। नामि = नाम में। लिव = लगन।2।

सबदि = गुरू के शबद में (जोड़ के)। जलाऐ = जलाता है। मनि = मन में। से = (बहुवचन) वह। सोहे = सुंदर जीवन वाले बन गए। वसाऐ = बसा के।3।

घरु = (प्रभू का) घर। दरु = (प्रभू का) दरवाजा। महलु = (प्रभू का) ठिकाना। रंग सिउ = आत्मिक आनंद से। करि = कर के, समझ के। नानक = हे नानक! वखाणै = (सदा) उचारता है।4।

अर्थ: हे भाई! (युग चाहे कोई भी हो) हरेक युग में गुरू की शरण पड़ने वाले मनुष्य ने (ही) परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाली है। (किसी भी युग में) परमात्मा के नाम के बिना किसी ने भी विकारों से मुक्ति प्राप्त नहीं की। (इस तरह) कलियुग में भी परमात्मा के नाम में जुड़ के ही (लोक-परलोक का) आदर मिलता है।1। रहाउ।

हे भाई! कलियुग में प्रेत (सिर्फ वही) हैं, जिन्होंने परमात्मा को (अपने दिल में बसता) नहीं पहचाना। सतियुग में सबसे उच्च जीवन वाले वही हैं, जो आत्मिक जीवन की सूझ वाले हो गए (सारे लोग सतियुग में भी परमहंस नहीं)। द्वापर में त्रेते में भी (सतियुग और कलियुग जैसे ही) मनुष्य बसते हैं । (तब भी) किसी विरले ने ही (अपने अंदर से) अहंकार को दूर किया।1।

हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर हरी-नाम (अपने अंदर बसता) समझ लेता है, जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर (हरी-नाम को अपने) मन में बसा लेता है, (वह मनुष्य संसार-समुंद्र से) पार लांघ जाता है। हे भाई! जिन भी मनुष्यों ने परमात्मा के नाम में लगन बनाई, वह स्वयं संसार-समुंद्र से पार लांघ गए, उन्होंने अपनी सारी कुले भी पार लंघा लीं।2।

हे भाई! मेरा परमात्मा गुरू बख्शने वाला है, वह (जीव को गुरू के) शबद में (जोड़ के उसके सारे) अवगुण जला देता है। हे भाई! जिनके मन में परमात्मा का नाम आ बसता है, वह हृदय में नाम को बसा के सुंदर जीवन वाले बन जाते हैं।3।

हे भाई! जिस मनुष्य को गुरू परमात्मा का घर परमात्मा का दर परमात्मा का महल दिखा देता है, वह मनुष्य प्रेम से प्रभू-चरणों के मिलाप का आनंद लेता है। हे नानक! गुरू उस मनुष्य को जो उपदेश देता है, वह मनुष्य उसको भला जान के मान लेता है और परमात्मा का नाम सिमरता रहता है।4।6।16।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh