श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1132 भैरउ महला ३ ॥ मनसा मनहि समाइ लै गुर सबदी वीचार ॥ गुर पूरे ते सोझी पवै फिरि मरै न वारो वार ॥१॥ मन मेरे राम नामु आधारु ॥ गुर परसादि परम पदु पाइआ सभ इछ पुजावणहारु ॥१॥ रहाउ ॥ सभ महि एको रवि रहिआ गुर बिनु बूझ न पाइ ॥ गुरमुखि प्रगटु होआ मेरा हरि प्रभु अनदिनु हरि गुण गाइ ॥२॥ सुखदाता हरि एकु है होर थै सुखु न पाहि ॥ सतिगुरु जिनी न सेविआ दाता से अंति गए पछुताहि ॥३॥ सतिगुरु सेवि सदा सुखु पाइआ फिरि दुखु न लागै धाइ ॥ नानक हरि भगति परापति होई जोती जोति समाइ ॥४॥७॥१७॥ {पन्ना 1132} पद्अर्थ: मनसा = मन का फुरना (मनीषा)। मनहि = मन में ही। समाइ लै = लीन कर दे। गुर सबदी = गुरू के शबद से। वीचार = (परमात्मा के गुणों की) विचार। ते = से। पवै = पड़ती है। वारो वार = बार बार।1। मन = हे मन! आधारु = आसरा। परसादि = कृपा से। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। पुजावणुहारु = पूरी कर सकने वाला है।1। रहाउ। ऐको = एक परमात्मा ही। रवि रहिआ = व्यापक है। बूझ = समझ। गुरमुखि = गुरू से। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। गाइ = गाता है।2। होरथै = किसी और जगह से। न पाहि = पा नहीं सकते (बहुवचन)। पछुताहि = पछताते हैं (बहुवचन)।3। धाइ = दौड़ के, हल्ला कर के। परापति होई = भाग्यों अनुसार मिल गई। जोति = जिंद। जोती = परमात्मा की ज्योति में। समाइ = लीन हो जाती है (एकवचन)।4। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के नाम को (अपना) आसरा बना। (जो मनुष्य हरी-नाम को अपना आसरा बनाता है) वह गुरू की कृपा से सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है। हे मन! परमात्मा हरेक इच्छा पूरी करने वाला है।1। रहाउ। हे भाई! गुरू के शबद से (परमात्मा के गुणों को) मन में बसा के मन के (मायावी) फुरनों को (अंदर) मन में ही लीन कर दे। हे भाई! जिस मनुष्य को पूरे गुरू से यह समझ हासिल हो जाती है, वह बार-बार जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ता।1। हे भाई! सब जीवों में एक परमात्मा ही व्यापक है, पर गुरू के बिना यह समझ नहीं आती। जिस मनुष्य के अंदर गुरू के द्वारा परमात्मा प्रकट हो जाता है, वह हर वक्त परमात्मा के गुण गाता रहता है।2। हे भाई! सुख देने वाला सिर्फ परमात्मा ही है (जो मनुष्य परमात्मा का आसरा नहीं लेते) वे और-और जगह सुख प्राप्त नहीं कर सकते। हे भाई! गुरू (परमात्मा के नाम की दाति) देने वाला है, जिन्होंने गुरू की शरण नहीं ली, वे आखिर यहाँ से जाने के वक्त हाथ मलते हैं।3। हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरू का आसरा लिया, उसने सदा आनंद पाया। कोई भी दुख हमला करके उससे नहीं चिपक सकता। हे नानक! जिस मनुष्य को सौभाग्य से परमात्मा की भक्ति प्राप्त हो गई, उसकी जीवात्मा परमात्मा की ज्योति में लीन हो जाती है।4।1।17। भैरउ महला ३ ॥ बाझु गुरू जगतु बउराना भूला चोटा खाई ॥ मरि मरि जमै सदा दुखु पाए दर की खबरि न पाई ॥१॥ मेरे मन सदा रहहु सतिगुर की सरणा ॥ हिरदै हरि नामु मीठा सद लागा गुर सबदे भवजलु तरणा ॥१॥ रहाउ ॥ भेख करै बहुतु चितु डोलै अंतरि कामु क्रोधु अहंकारु ॥ अंतरि तिसा भूख अति बहुती भउकत फिरै दर बारु ॥२॥ गुर कै सबदि मरहि फिरि जीवहि तिन कउ मुकति दुआरि ॥ अंतरि सांति सदा सुखु होवै हरि राखिआ उर धारि ॥३॥ जिउ तिसु भावै तिवै चलावै करणा किछू न जाई ॥ नानक गुरमुखि सबदु सम्हाले राम नामि वडिआई ॥४॥८॥१८॥ {पन्ना 1132} पद्अर्थ: बउराना = कमला, झल्ला। भूला = गलत रास्ते पर पड़ा हुआ। खाई = खाता है। मरि मरि जंमै = बार बार मर के पैदा होता है, जनम मरन के चक्कर में पड़ा रहता है। दर की = परमात्मा के दर की। खबरि = सूझ।1। मन = हे मन! हिरदै = हृदय में। सद = सदा। सबदे = शबद से। भवजलु = संसार समुंद्र।1। रहाउ। डोलै = डोलता है। अंतरि = (उसके) अंदर। तिसा = तृष्णा। फिरै = फिरता है। दर बारु = (हरेक के घर के) दर का दरवाजा (खड़काता है)।2। सबदि = शबद से। मरहि = मरते हैं, दुनियां की ख्वाहिशों से मरते हैं। जीवहि = आत्मिक जीवन हासिल कर लेते हैं। मुकति = विकारों से मुक्ति। दुआरि = प्रभू के दर पर (पहुँच)। उर = हृदय। धारि = धारण करके।3। तिसु = उस (परमात्मा) को। भावै = अच्छा लगता है। चलावै = जीवन राह पर चलाता है। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के। समाले = हृदय में बसाता है। नामि = नाम से।4। अर्थ: हे मेरे मन! सदा गुरू की शरण पड़ा रह। (जो मनुष्य गुरू की शरण में टिका रहता है, उसको अपने) हृदय में परमात्मा का नाम सदा प्यारा लगता है। गुरू के शबद से वह संसार-समुंद्र से पार लांघ जाता है।1। रहाउ। हे मन! गुरू की शरण के बिना जगत (विकारों में) झल्ला हुआ फिरता है, गलत रास्ते पर पड़ के (विकारों की) चोटें खाता रहता है, बार-बार जनम मरण के चक्करों में पड़ता है, सदा दुख सहता है, परमात्मा के दर की उसको कोई समझ नहीं पड़ती।1। हे मन! (जो मनुष्य गुरू की शरण से विछुड़ के) कई (धार्मिक) भेष बनाता है, उसका मन (विकारों में ही) डोलता रहता है, उसके अंदर काम (का जोर) है, क्रोध (प्रबल) है, अहंकार (प्रभावशाली) है, उसके अंदर माया की बड़ी तृष्णा है, माया की बड़ी भूख है, वह (कुत्ते की तरह रोटी की खातिर) भौंकता फिरता है, (हरेक घर के) दर का दरवाजा (खड़काता फिरता है।2। हे भाई! जो मनुष्य गुरू के शबद से (विकारों की तरफ से) मरते हैं, वे फिर आत्मिक जीवन हासिल कर लेते हैं, उनको विकारों से निजात मिल जाती है, परमात्मा के दर पर (उनकी पहुँच हो जाती है)। उनके अंदर शांति बनी रहती है उनके अंदर सदा आनंद बना रहता है, (क्योंकि उन्होंने) परमात्मा (के नाम) को अपने हृदय में टिका के रखा हुआ होता है।3। पर, हे भाई! (जीवों के कुछ भी वश नहीं) जैसे परमात्मा को अच्छा लगता है, उसी तरह ही जीवों को जीवन-राह पर चलाता है, हम जीवों का उसके सामने कोई जोर नहीं चल सकता। हे नानक! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर गुरू का शबद हृदय में बसाता है, परमात्मा के नाम में जुड़ने के कारण उसको (लोक-परलोक की) इज्ज़त मिल जाती है।4।8।18। भैरउ महला ३ ॥ हउमै माइआ मोहि खुआइआ दुखु खटे दुख खाइ ॥ अंतरि लोभ हलकु दुखु भारी बिनु बिबेक भरमाइ ॥१॥ मनमुखि ध्रिगु जीवणु सैसारि ॥ राम नामु सुपनै नही चेतिआ हरि सिउ कदे न लागै पिआरु ॥१॥ रहाउ ॥ पसूआ करम करै नही बूझै कूड़ु कमावै कूड़ो होइ ॥ सतिगुरु मिलै त उलटी होवै खोजि लहै जनु कोइ ॥२॥ हरि हरि नामु रिदै सद वसिआ पाइआ गुणी निधानु ॥ गुर परसादी पूरा पाइआ चूका मन अभिमानु ॥३॥ आपे करता करे कराए आपे मारगि पाए ॥ आपे गुरमुखि दे वडिआई नानक नामि समाए ॥४॥९॥१९॥ {पन्ना 1132} पद्अर्थ: मोहि = मोह में (फस के)। खुआइआ = (जीवन राह से) विछुड़ गया। खाइ = खाता है, सहता है। अंतरि = अंदर। बिबेक = (अच्छे बुरे काम की) परख करने की समर्था। भरमाइआ = भटकता फिरता है।1। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। सैसारि = संसार में। सुपनै = सपने में भी, कभी ही। सिउ = साथ।1। रहाउ। पसूआ करम = पशुओं वाले कर्म। करै = करता है (एकवचन)। कूड़ो = झूठ ही। त = तब। एलटी होवै = माया के मोह से सुरति पलटती है। जनु कोइ = कोई विरला मनुष्य। लहै = पा लेता है।2। रिदै = हृदय में। सद = सदा। निधानु = खजाना। परसादी = कृपा से। पूरा = अभुल परमात्मा। मन अभिमानु = मन का अहंकार। चूका = समाप्त हो गया।3। आपे = स्वयं ही। मारगि = रास्ते पर। गुरमुखि = गुरू से। दे = देता है। नामि = नाम में।4। अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का जगत में जीवन (-ढंग) ऐसा ही रहता है कि उसको धिक्कारें ही पड़ती हैं। वह परमात्मा का नाम कभी भी याद नहीं करता, परमात्मा के साथ उसका कभी भी प्यार नहीं बनता।1। रहाउ। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य अहंकार के कारण माया के मोह के कारण जीवन-राह से विछुड़ा रहता है जिस कारण वह दुख ही सहेड़ता है दुख ही सहता है। उसके अंदर लोभ (टिका रहता है जैसे कुत्ते को) हलक (हो जाता) है (कुक्ता खुद भी दुखी होता है और लोगों को भी दुखी करता है। इसी तरह लोभी को) बहुत दुख बना रहता है। अच्छे-बुरे काम की परख ना कर सकने के कारण वह (माया की खातिर) भटकता फिरता है।1। हे भाई! मन का मुरीद मनुष्य पशुओं वाले काम करता है, उसको समझ नहीं आती (कि यह जीव राह गलत है)। नाशवंत माया की खातिर दौड़-भाग करता-करता उसी का रूप हुआ रहता है। पर अगर उसको गुरू मिल जाए, तो उसकी सुरति माया की ओर से पलट जाती है (फिर वह) खोज कर के परमात्मा का मिलाप प्राप्त कर लेता है (पर ऐसा होता) कोई विरला ही है।2। हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम सदा बसा रहता है, वह मनुष्य गुणों के खजाने परमात्मा को मिल जाता है। गुरू की कृपा से उसको पूरन प्रभू मिल जाता है, उसके मन का अहंकार दूर हो जाता है।3। (पर, हे भाई! मनुष्य के भी क्या वश?) परमात्मा स्वयं ही सब कुछ करता है, स्वयं ही (जीवों से) करवाता है, स्वयं ही (जीवों को) सही जीवन-राह पर डालता है, स्वयं ही गुरू के द्वारा इज्जत बख्शता है। हे नानक! (जिस पर परमात्मा मेहर करता है), वह हरी-नाम में लीन रहता है।4।9।19। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |