श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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भैरउ महला ३ ॥ मेरी पटीआ लिखहु हरि गोविंद गोपाला ॥ दूजै भाइ फाथे जम जाला ॥ सतिगुरु करे मेरी प्रतिपाला ॥ हरि सुखदाता मेरै नाला ॥१॥ गुर उपदेसि प्रहिलादु हरि उचरै ॥ सासना ते बालकु गमु न करै ॥१॥ रहाउ ॥ माता उपदेसै प्रहिलाद पिआरे ॥ पुत्र राम नामु छोडहु जीउ लेहु उबारे ॥ प्रहिलादु कहै सुनहु मेरी माइ ॥ राम नामु न छोडा गुरि दीआ बुझाइ ॥२॥ संडा मरका सभि जाइ पुकारे ॥ प्रहिलादु आपि विगड़िआ सभि चाटड़े विगाड़े ॥ दुसट सभा महि मंत्रु पकाइआ ॥ प्रहलाद का राखा होइ रघुराइआ ॥३॥ हाथि खड़गु करि धाइआ अति अहंकारि ॥ हरि तेरा कहा तुझु लए उबारि ॥ खिन महि भैआन रूपु निकसिआ थम्ह उपाड़ि ॥ हरणाखसु नखी बिदारिआ प्रहलादु लीआ उबारि ॥४॥ संत जना के हरि जीउ कारज सवारे ॥ प्रहलाद जन के इकीह कुल उधारे ॥ गुर कै सबदि हउमै बिखु मारे ॥ नानक राम नामि संत निसतारे ॥५॥१०॥२०॥ {पन्ना 1133}

पद्अर्थ: दूजै भाइ = (प्रभू को छोड़ कर) और के प्यार में (रहने वाले)। जम जाला = जमका जाल, आत्मिक मौत का जाल। प्रतिपाला = रक्षा।1।

उपदेसि = उपदेश से। उचरै = उचारता है, जपता है। सासना = ताड़ना, दण्ड, शारीरिक कष्ट। ते = से। गमु = ग़म। गमु न करै = घबराता नहीं, डरता नही।1। रहाउ।

उपदेसै = समझाती है। प्रहिलाद = हे प्रहलाद! पुत्र = हे पुत्र!जीउ = जिंद। लेहु उबारे = बचा ले। माइ = हे माँ! न छोडा = ना छोड़ू, मैं नहीं छोड़ता। गुरि = गुरू ने। दीआ बुझाइ = समझा दिया है।2।

संडा मरका = संड और अमरक। सभि = सारे। जाइ = जा के। चाटड़े = पढ़ने वाले लड़के। महि = में। मंत्रु पकाइआ = सलाह पक्की की। रघुराइआ = परमात्मा।3।

हाथि = हाथ में। खड़गु = तलवार। करि = कर के, ले के। अति अहंकारि = बड़े ही अहंकार से। कहा = कहाँ? लऐ उबारि = उबार लिए, (जो तुझे) बचा ले। भैआन = भयानक। उपाड़ि = फाड़ के। नखी = नाखूनों से। बिदारिआ = चीर दिया।4।

कारज = सारे काम। उधारे = बचा लिए। कै सबदि = के शबद से। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाला जहर। नामि = नाम में (जोड़ के)। निसतारे = पार लंघाता है।5।

अर्थ: हे भाई! (अपने) गुरू की शिक्षा पर चल के प्रहलाद परमात्मा का नाम जपता है। बालक (प्रहलाद) किसी भी शारीरिक कष्ट से डरता नहीं।1। रहाउ।

हे भाई! (प्रहलाद अपने पढ़ाने वालों को रोज कहता है-) मेरी तख्ती पर हरी का नाम लिख दो, गोबिंद का नाम लिख दो, गोपाल का नाम लिख दो। जो मनुष्य सिर्फ माया के प्यार में रहते हैं, वे आत्मिक मौत के जाल में फसे रहते हैं। मेरा गुरू मेरी रक्षा कर रहा है। सारे सुख देने वाला परमात्मा (हर वक्त) मेरे अंग-संग बसता है।1।

हे भाई! (प्रहलाद को उसकी) माँ समझाती है- हे प्यारे प्रहलाद! हे (मेरे) पुत्र! परमात्मा का नाम छोड़ दे, अपनी जान बचा ले। (आगे से) प्रहलाद कहता है- हे मेरी माँ! सुन, मैं परमात्मा का नाम नहीं छोड़ूगा (यह नाम जपना मुझे मेरे) गुरू ने समझाया है।2।

हे भाई! संड अमरक व और सभी ने जा के (हर्नाक्षस के पास) पुकार की- प्रहलाद खुद ही बिगड़ा हुआ है, (उसने) बाकी के सारे बच्चे भी बिगाड़ दिए हैं। हे भाई! (ये सुन के) उन दुष्टों ने सलाह पक्की की (कि प्रहलाद को खत्म कर दिया जाए। पर) प्रहलाद का रक्षक स्वयं परमात्मा बन गया।3।

हे भाई! (हर्णाक्षस व हर्णाकश्यप) हाथ में तलवार पकड़ के बड़े अहंकार से (प्रहलाद पर) टूट पड़ा (और कहने लगा- बता) कहाँ है तेरा हरी, जो (तुझे) बचा ले? (ये कहने की देर थी कि एक दम) एक पल में ही (परमात्मा) भयानक रूप (धारण करके) खंभा फाड़ के निकल आया। (उसने नरसिंघ रूप में) हर्णाकश्यप को (अपने नाखूनों से) चीर डाला और प्रहलाद को बचा लिया।4।

हे भाई! परमात्मा सदा अपने भक्तों के सारे काम सँवारता है (देख! उसने) प्रहलाद की 21 कुलों का (भी) उद्धार कर दिया। हे नानक! परमात्मा अपने संतों को गुरू शबद में जोड़ के (उनके अंदर से) आत्मिक मौत लाने वाले अहंकार को समाप्त कर देता है, और, हरी-नाम में जोड़ के उनको संसार-समुंद्र से पार लंघा देता है।5।10।20।

भैरउ महला ३ ॥ आपे दैत लाइ दिते संत जना कउ आपे राखा सोई ॥ जो तेरी सदा सरणाई तिन मनि दुखु न होई ॥१॥ जुगि जुगि भगता की रखदा आइआ ॥ दैत पुत्रु प्रहलादु गाइत्री तरपणु किछू न जाणै सबदे मेलि मिलाइआ ॥१॥ रहाउ ॥ अनदिनु भगति करहि दिन राती दुबिधा सबदे खोई ॥ सदा निरमल है जो सचि राते सचु वसिआ मनि सोई ॥२॥ मूरख दुबिधा पड़्हहि मूलु न पछाणहि बिरथा जनमु गवाइआ ॥ संत जना की निंदा करहि दुसटु दैतु चिड़ाइआ ॥३॥ प्रहलादु दुबिधा न पड़ै हरि नामु न छोडै डरै न किसै दा डराइआ ॥ संत जना का हरि जीउ राखा दैतै कालु नेड़ा आइआ ॥४॥ आपणी पैज आपे राखै भगतां देइ वडिआई ॥ नानक हरणाखसु नखी बिदारिआ अंधै दर की खबरि न पाई ॥५॥११॥२१॥ {पन्ना 1133}

पद्अर्थ: दैत = दैत्य, दुर्जन। आपे = आप ही (परमात्मा ने)। तिन महि = उनके मन में।1।

जुग जुग = हरेक युग में। दैत पुत्रु = दैत्य (हर्णाकश्यप) का पुत्र। तरपणु = पित्रों नमिक्त पानी अर्पण करना (ये हर रोज किए जाने पाँचों यज्ञों में से एक है। हरेक हिन्दू इसका करना आवश्यक समझता है)।

गाइत्री = एक बहुत ही पवित्र पंक्ति (जिसका पाठ हरेक बाहमण सवेरे शाम करता है। इसके बार-बार पाठ करने से बड़े-बड़े पाप भी नाश हो जाते हैं: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमही धियो यो न: प्रचोदयात्॥ R.V. 3.2.10l)।

सबदे = गुरू के शबद में। मेलि = जोड़ के। मिलाइआ = अपने साथ मिला लिया।1। रहाउ।

अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। करहि = करते हैं (बहुवचन)। दुबिधा = मेर तेर, भेद भाव। खोई = समाप्त कर ली। निरमल = पवित्र। सचि = सदा स्थिर हरी नाम में। राते = रंगे हुए, मस्त, रति हुए। सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभू। मनि = (उनके) मन में।2।

पढ़हि = पढ़ते हैं (बहुवचन)। दुबिधा पढ़हि = भेदभाव पैदा करने वाली विद्या पढ़ते हैं। मूलु = जगत को पैदा करने वाला। बिरथा = व्यर्थ। दुसटु दैतु = दुष्ट (हर्णाक्षस) दैत्य को। चिढ़ाइआ = चिढ़ाया? (प्रहलाद के विरोध में) गुस्सा दिलाया।3।

पढ़ै = पढ़ता है (एक वचन)। कालु = मौत। दैतै = दैत्य का।4।

पैज = लाज, इज्जत। देइ = देता है। नखी = नाखूनों से। बिदारिआ = चीर दिया। अंधै = (अहंकार में) अंधे हो चुके ने। दर = परमात्मा का दर। खबरि = सूझ।5।

अर्थ: हे भाई! हरेक युग में (परमात्मा अपने) भगतों की (इज्जत) रखता आया है। (देखो) हर्णाक्षस का पुत्र प्रहलाद गायत्री (मंत्र का पाठ करना; पित्रों की प्रसन्नता के लिए) पूजा-अर्चना (करनी) ये सब कुछ भी नहीं था जानता। (परमात्मा ने उसको गुरू के) शबद में जोड़ के (अपने चरणों में) मिला लिया।1। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा स्वयं ही (अपने) संत जनों को (दुख देने के लिए उन पर) दैत्य चिपका देता है, पर वह स्वयं ही (संत जनों का) रखवाला बनता है। हे प्रभू! जो मनुष्य तेरी शरण में सदा टिके रहते हैं (दुष्ट भले ही कितने ही कष्ट उनकों दें) उनके मन को कोई तकलीफ़ नहीं होती।1।

हे भाई! जो मनुष्य दिन-रात हर वक्त परमात्मा की भक्ति करते हैं, उन्होंने गुरू के शबद से (अपने अंदर से) मेर-तेर समाप्त कर ली होती है। हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर हरी-नाम में रति रहते हैं, जिनके मन में वह सदा-स्थिर प्रभू ही बसा रहता है उनका जीवन सदा पवित्र टिका रहता है।2।

हे भाई! मूर्ख लोग मेर-तेर (पैदा करने वाली विद्या ही नित्य) पढ़ते हैं, रचनहार करतार के साथ सांझ नहीं डालते, संतजनों की निंदा (भी) करते हैं (इस तरह अपना) जीवन व्यर्थ गवा लेते हैं। (इस तरह के मूर्ख संड अमरक आदि ने ही) दुष्ट दैत्य (हर्णाक्षस) को (प्रहलाद के विरुद्ध) भड़काया था।3।

पर, हे भाई! प्रहलाद मेर-तेर (पैदा करने वाली विद्या) नहीं पढ़ता, वह परमात्मा का नाम नहीं छोड़ता, वह किसी का डराया डरता नहीं। हे भाई! परमात्मा अपने संतजनों का रखवाला स्वयं है। (प्रहलाद से पंगा ले के मूर्ख हणाक्षस) दैत्य का काल (बल्कि) नजदीक आ पहुँचा।4।

हे भाई! (भगतों की इज्जत और परमात्मा की इज्जत सांझी है। भगतों के सम्मान को अपना सम्मान जान के) परमात्मा ( भगतों की मदद करके) अपना सम्मान स्वयं बचाता है, (अपने) भगतों को (सदा) वडिआई बख्शता है। (तभी तो) हे नानक! (परमात्मा ने नरसिंघ रूप धार के) हर्णाक्षस को (अपने) नाखूनों से चीर दिया। (ताकत के नशे में) अंधे हो चुके (हर्णाक्षस) ने परमात्मा के दर का भेद ना समझा।5।11।21।8।21।29।

शबदों का वेरवा:
भैरव महला १---------------- 8
भैरव महला ३--------------- 21
जोड़----------------------------29


रागु भैरउ महला ४ चउपदे घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हरि जन संत करि किरपा पगि लाइणु ॥ गुर सबदी हरि भजु सुरति समाइणु ॥१॥ मेरे मन हरि भजु नामु नराइणु ॥ हरि हरि क्रिपा करे सुखदाता गुरमुखि भवजलु हरि नामि तराइणु ॥१॥ रहाउ ॥ संगति साध मेलि हरि गाइणु ॥ गुरमती ले राम रसाइणु ॥२॥ गुर साधू अम्रित गिआन सरि नाइणु ॥ सभि किलविख पाप गए गावाइणु ॥३॥ तू आपे करता स्रिसटि धराइणु ॥ जनु नानकु मेलि तेरा दास दसाइणु ॥४॥१॥ {पन्ना 1133-1134}

पद्अर्थ: करि = कर के। पगि = पैरों में, चरणों में। लाइणु = लगाने वाला है। गुर सबदी = गुरू के शबद से। भजु = जपा कर। समाइणु = जाग (नाम की)।1।

मन = हे मन! सुखदाता = सुखों का दाता। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। भवजलु = संसार समुंद्र। नामि = नाम में (जोड़ के)।1। रहाउ।

मेलि = मेल में। हरि गाइणु = हरी की सिफत सालाह। गुरमती = गुरू की मति पर चल के। रसाइणु = (रस+आयन) सारे रसों का घर।2।

गिआन सरि = ज्ञान के सरोवर में। साधू = गुरू। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। नाइणु = स्नान। सभि = सारे। किलविख = पाप।3।

आपे = आप ही। धराइणु = आसरा। मेलि = मिला (अपने चरणों में)। दास दसाइणु = दासों का दास।4।

अर्थ: हे मेरे मन! हरी का नाम जपा कर, नारायण नारायण जपा कर। सारे सुखों को देने वाला परमात्मा जिस मनुष्य पर कृपा करता है, उसको गुरू की शरण में रख के अपने नाम के द्वारा संसार-समुंद्र से पार लंघा लेता है।1। रहाउ।

हे मेरे मन! (परमात्मा स्वयं) कृपा करके (जिस मनुष्य को अपने) संत जनों के चरणों में लगाता है (वह मनुष्य हरी का नाम जपता है)। हे मन! (तू भी गुरू की शरण पड़, और) गुरू के शबद से परमात्मा का नाम जप, अपनी सुरति में हरी-नाम की जाग लगा।1।

हे मेरे मन! साध-संगति के मेल में टिक के परमात्मा की सिफतसालाह किया कर, गुरू की मति पर चल के परमात्मा का नाम जपा कर, यह नाम ही सारे रसों का घर है।2।

हे मेरे मन! जो मनुष्य गुरू के आत्मिक जीवन देने वाले ज्ञान-सरोवर में स्नान करता है, उसके सारे पाप सारे एैब दूर हो जाते हैं।3।

हे प्रभू! तू स्वयं ही सारी सृष्टि का रचनहार है, तू स्वयं ही सारी सृष्टि का आसरा है। दास नानक को (अपने चरणों में) मिलाए रख, (नानक) तेरे दासों का दास है।4।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh