श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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भैरउ महला ५ ॥ जीउ प्राण जिनि रचिओ सरीर ॥ जिनहि उपाए तिस कउ पीर ॥१॥ गुरु गोबिंदु जीअ कै काम ॥ हलति पलति जा की सद छाम ॥१॥ रहाउ ॥ प्रभु आराधन निरमल रीति ॥ साधसंगि बिनसी बिपरीति ॥२॥ मीत हीत धनु नह पारणा ॥ धंनि धंनि मेरे नाराइणा ॥३॥ नानकु बोलै अम्रित बाणी ॥ एक बिना दूजा नही जाणी ॥४॥६॥ {पन्ना 1137}

पद्अर्थ: जीउ = जिंद। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। रचिओ = बनाया है। जिनहि = जिन ही = ('जिनि' की 'नि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। पीर = पीड़ा, दर्द, स्नेह।1।

तिस कउ: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'कउ' के कारण हटा दी गई है।

जीअ कै काम = जिंद के काम, जिंद के वास्ते लाभदायक। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। जा की = जिस (परमात्मा) की। सद = सदा। छाम = छाया, शाम, आसरा।1। रहाउ।

रीति = जीव मर्यादा, जीवन जुगति। निरमल = पवित्र। संगि = संगति में। बिनसी = नाश हो जाती है। बिपरीति = (सिमरन से) उलटी जीवन जुगति।2।

हीत = हितु, स्नेही। पारणा = परना, आसरा। धंनि = सलाहने योग्य। नाराइणा = हें नारायण! हे परमात्मा!।3।

नानकु बोलै = नानक बोलता है। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली। जाणी = जाणि।4।

अर्थ: हे भाई! जिस (गुरू) का जिस (गोबिंद) का इस लोक में और परलोक में सदा (मनुष्य को) आसरा है, वह गुरू (ही) वह गोबिंद (ही) जिंद की सहायता करने वाला है।1। रहाउ।

हे भाई! जिस (परमात्मा) ने जिंद-प्राण (दे के जीवों के) शरीर रचे हैं, हे भाई! जिस परमात्मा ने जीव पैदा किए हैं, उसको ही (जीवों का) दर्द है।1।

हे भाई! उस परमात्मा का सिमरना ही पवित्र जीवन-जुगति है (ये जीवन-जुगति साध-संगति में प्राप्त होती है)। हे भाई! साध-संगति में रहके (सिमरन से) उल्टी जीवन-जुगति नाश हो जाती है (भाव, सिमरन ना करने की बुरी वादी खत्म हो जाती है)।2।

हे भाई! मित्र, हितैषी, धन- यह (मनुष्य की जिंद का) सहारा नहीं हैं। हे मेरे परमात्मा! (तू ही हम जीवों का आसरा है) तू ही सलाहनेयोग्य है, तू ही सराहनीय है।3।

हे भाई! नानक आत्मिक जीवन देने वाला (यह) बचन कहता है कि एक परमात्मा के बिना किसी और को (जिंदगी का सहारा) ना समझना।4।6।

भैरउ महला ५ ॥ आगै दयु पाछै नाराइण ॥ मधि भागि हरि प्रेम रसाइण ॥१॥ प्रभू हमारै सासत्र सउण ॥ सूख सहज आनंद ग्रिह भउण ॥१॥ रहाउ ॥ रसना नामु करन सुणि जीवे ॥ प्रभु सिमरि सिमरि अमर थिरु थीवे ॥२॥ जनम जनम के दूख निवारे ॥ अनहद सबद वजे दरबारे ॥३॥ करि किरपा प्रभि लीए मिलाए ॥ नानक प्रभ सरणागति आए ॥४॥७॥ {पन्ना 1137}

पद्अर्थ: आगै = आगे आने वाले समय में। पाछै = पीछे बीत चुके समय में। दयु = (दय्, to love, feel pity) तरस करने वाला प्रभू। मधि भागि = बीच के हिस्से में, अब ही। रसाइण = सारे रसों का घर, सारे सुख देने वाला।1।

हमारै = हमारे लिए। सउण = शगन, अच्छा महूरत। सासत्र सउण = शगन बताने वाला शास्त्र। भउण = भवन, घर।1। रहाउ।

रसना = जीभ (से)। करन = कानों से। सुणि = सुन के। जीवे = आत्मिक जीवन हासिल कर गए। सिमरि सिमरि = सदा सिमर के। अमर = अ+मर, आत्मिक मौत से बचे हुए। थिरु = (विकारों से) अडोल चिक्त। थीवे = हो गए।2।

निवारे = दूर कर लिए। अनहद = (अनाहत् = अन+आहत) बिना बजाए, एक रस। सबद = (पाँचों किस्मों के साजों के) आवाज़। दरबारे = दरबार में, हृदय में।3।

करि = कर के। प्रभि = प्रभू ने। नानक = हे नानक!।4।

अर्थ: हे भाई! प्रभू का नाम ही हमारे लिए अच्छा महूरत बताने वाला शास्त्र है (जिसके हृदय में प्रभू का नाम बसता है, उस) हृदय-घर में सदा आत्मिक अडोलता के सुख हैं आनंद हैं।1। रहाउ।

हे भाई! आगे आने वाले समय में परमात्मा ही (हम जीवों पर) तरस करने वाला है, बीत चुके समय में भी परमात्मा ही (हमारा रखवाला था)। अब भी सारे सुखों का दाता प्रभू ही (हमारे साथ) प्यार करने वाला है।1।

हे भाई! जीभ से नाम (जप के), कानों से (नाम) सुन के (अनेकों ही जीव) आत्मिक जीवन प्राप्त कर गए। परमात्मा का नाम सदा सिमर के (अनेकों जीव) आत्मिक मौत से बच गए, (विकारों के मुकाबले पर) अडोल-चिक्त बने रहे।2।

हे भाई! (जिन्होंने परमात्मा के नाम को जीवन का आसरा बनाया, उन्होंने अपने) अनेकों ही जन्मों के दुख-पाप दूर कर लिए, उनके हृदय-दरबार में यॅूँ एक-रस आनंद बन गया जैसे पाँचों ही किस्मों के साज़ बजने से संगीतक रस बनता है।3।

हे नानक! (जो मनुष्य शगन आदि के भ्रम छोड़ के सीधे) परमात्मा की शरण आ पड़े, परमात्मा ने कृपा करके उनको अपने चरणों में जोड़ लिया।4।7।

भैरउ महला ५ ॥ कोटि मनोरथ आवहि हाथ ॥ जम मारग कै संगी पांथ ॥१॥ गंगा जलु गुर गोबिंद नाम ॥ जो सिमरै तिस की गति होवै पीवत बहुड़ि न जोनि भ्रमाम ॥१॥ रहाउ ॥ पूजा जाप ताप इसनान ॥ सिमरत नाम भए निहकाम ॥२॥ राज माल सादन दरबार ॥ सिमरत नाम पूरन आचार ॥३॥ नानक दास इहु कीआ बीचारु ॥ बिनु हरि नाम मिथिआ सभ छारु ॥४॥८॥ {पन्ना 1137}

पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। मनोरथ = मन के रथ, मन की माँगें। आवहि हाथ = हाथों में आ जाते हैं, मिल जाते हैं। पांथ = पंध में साथ देने वाला (पंथ = रास्ता, पंध = यात्रा)। संगी = साथी। जम मारग कै = मौत के रास्ते पर, मरने के बाद।1।

गोबिंद नाम = परमात्मा का नाम। जो = जो मनुष्य। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था, मुक्ति। बहुड़ि = फिर। भ्रमाम = भटकना।1। रहाउ।

तिस की: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'की' के कारण हटा दी गई है।

निहकाम = वासना रहित।2।

सादन = (सदन) घर। पूरन आचार = स्वच्छ आचरण।3।

दास = दासों ने। मिथिआ = नाशवंत। छारु = राख (के तूल्य)।4।

अर्थ: हे भाई! गुरू गोबिंद का नाम (ही असल) गंगा-जल है। जो मनुष्य (गोबिंद का नाम) सिमरता है, उसकी उच्च आत्मिक अवस्था बन जाती है, जो (इस नाम गंगा-जल को) पीता है दोबारा जूनियों में नहीं भटकता।1। रहाउ।

हे भाई! (जो मनुष्य नाम जपता है उसके) मन की करोड़ों माँगें पूरी हो जाती हैं। मरने के बाद भी यह नाम ही उसका साथी बनता है सहायक बनता है।1।

हे भाई! हरि-नाम ही (देव-) पूजा है, नाम ही जप-तप है, नाम ही तीर्थ-स्नान है। नाम सिमरने से (सिमरन करने वाले) दुनियावी वासनाओं से रहत हो जाते हैं।2।

हे भाई! राज, माल, महल-माढ़ियां, दरबार लगाने (जो सुख इनमें हैं, नाम-सिमरन वालों को वह सुख नाम-सिमरन से प्राप्त होते हैं)। हे भाई! हरी-नाम सिमरते हुए मनुष्य का आचरण स्वच्छ बन जाता है।3।

हे नानक! प्रभू के सेवकों ने यह निष्चय किया होता है कि परमात्मा के नाम के बिना और सारी (माया) नाशवंत है राख (के तुल्य) है।4।8।

भैरउ महला ५ ॥ लेपु न लागो तिल का मूलि ॥ दुसटु ब्राहमणु मूआ होइ कै सूल ॥१॥ हरि जन राखे पारब्रहमि आपि ॥ पापी मूआ गुर परतापि ॥१॥ रहाउ ॥ अपणा खसमु जनि आपि धिआइआ ॥ इआणा पापी ओहु आपि पचाइआ ॥२॥ प्रभ मात पिता अपणे दास का रखवाला ॥ निंदक का माथा ईहां ऊहा काला ॥३॥ जन नानक की परमेसरि सुणी अरदासि ॥ मलेछु पापी पचिआ भइआ निरासु ॥४॥९॥ {पन्ना 1137}

पद्अर्थ: लेपु = बुरा असर। तिल का = तिल जितना भी, रक्ती भर भी। न मूलि = बिल्कुल नहीं। दुसटु = पापी, बुरा चंदरा।1।

हरि जन = परमात्मा के भगत, परमात्मा के सेवक। पारब्रहमि = परमात्मा ने। गुर परतापि = गुरू के प्रताप से।1। रहाउ।

जनि = जन ने, सेवक ने। इआणा = मूर्ख। पचाइआ = जलाया, नाश किया।2।

ईहां ऊहा = इस लोक में और परलोक में। माथा काला = मुँह काला।3।

परमेसरि = परमेश्वर ने। मलेछु = बुरी नीयत वाला। पचिआ = मारा। निरासु = जिसकी आशा पूरी नहीं हो सकी।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने अपने सेवकों की रक्षा (सदा ही) स्वयं की है। (देखो, विश्वासघाती ब्राहमण) दुष्ट गुरू के प्रताप से (स्वयं ही) मर गया है।1। रहाउ।

हे भाई! (परमात्मा की मेहर से अपने सेवक पर हुई है, बालक (गुरू) हरि गोबिंद पर दुष्ट की बुरी करतूत का) बिल्कुल भी बुरा असर नहीं हो सका (पर गुरू के प्रताप से वह) दुष्ट ब्राहमण (पेट में) शूल उठने के कारण मर गया है।1।

हे भाई! (परमात्मा ने अपने सेवकों की स्वयं रक्षा की है, क्योंकि) सेवक ने अपने मालिक-प्रभू को सदा अपने हृदय में बसाया है। वह बेसमझ दुष्ट (इस ईश्वरीय भेद को समझ ना सका, और परमात्मा ने) स्वयं ही उसको मार डाला।2।

हे भाई! माता-पिता (की तरह) प्रभू अपने सेवक का सदा स्वयं ही रखवाला बनता है (तभी प्रभू के सेवक के) दोखी का मुँह लोक-परलोक दोनों जहानों में काला होता है।3।

हे नानक! (कह- हे भाई!) अपने सेवक की परमेश्वर ने (अरदास) सुनी है (देखो, परमेश्वर के सेवक पर वार करने वाला) दुष्ट पापी (खुद ही) मर गया, और बेमुराद ही रहा।4।9।

भैरउ महला ५ ॥ खूबु खूबु खूबु खूबु खूबु तेरो नामु ॥ झूठु झूठु झूठु झूठु दुनी गुमानु ॥१॥ रहाउ ॥ नगज तेरे बंदे दीदारु अपारु ॥ नाम बिना सभ दुनीआ छारु ॥१॥ अचरजु तेरी कुदरति तेरे कदम सलाह ॥ गनीव तेरी सिफति सचे पातिसाह ॥२॥ नीधरिआ धर पनह खुदाइ ॥ गरीब निवाजु दिनु रैणि धिआइ ॥३॥ नानक कउ खुदि खसम मिहरवान ॥ अलहु न विसरै दिल जीअ परान ॥४॥१०॥ {पन्ना 1137-1138}

पद्अर्थ: खूबु = सुंदर, अच्छा, मीठा। झूठु = जल्दी खत्म हो जाना। दुनी = दुनिया का। गुमानु = माण, घमण्ड।1। रहाउ।

नगज = नगज़, सुंदर, सोहाने। अपारु = बेअंत (सुंदर)। सभ = सारी। छारु = राख (के तूल्य)।1।

अचरजु = हैरान करने वाला काम। कदम = चरण। सलाह = सराहनीय। गनीव = ग़नीमत, अमूल्य। सचे = हे सदा कायम रहने वाले!।2।

नीधरिआ धर = निआसरों का आसरा। पनह = पनाह, ओट। खुदाइ = परमात्मा। गरीब निवाजु = गरीबों पर मेहर करने वाला। रैणि = रात। धिआइ = सिमरा कर।3।

नानक कउ = हे नानक! जिस कउ = हे नानक! जिस मनुष्य पर। खुदि = खुद, स्वयं। अलहु = अल्लाह, परमात्मा। जीअ = जिंद से।4।

अर्थ: हे प्रभू! तेरा नाम सोहाना है, तेरा नाम मीठा है, तेरा नाम अच्छा है। (पर हे भाई!) दुनिया का मान झूठ है, जल्दी खत्म हो जाने वाला है, दुनिया के माण का क्या भरोसा?।1। रहाउ।

हे प्रभू! तेरी भक्ति करने वाले बंदे सुंदर हैं, उनका दर्शन बेअंत (अमूल्य) है। हे प्रभू! तेरे नाम के बिना (जीव के लिए) सारी दुनिया (का धन-पदार्थ) राख (के तुल्य) है।1।

हे प्रभू! तेरी रची कुदरति एक हैरान करने वाला तमाशा है, तेरे चरण सराहनीय हैं। हे सदा कायम रहने वाले पातशाह! तेरी सिफत-सालाह (एक) अमूल्य (खजाना) है।2।

हे भाई! दिन-रात उस परमात्मा का नाम सिमरा कर, वह निआसरों का आसरा है (निओटों की) ओट है।3।

हे नानक! जिस मनुष्य पर मालिक-प्रभू स्वयं दयावान होता है, उसकी जिंद से, उसके दिल से, उसके प्राणों से वह कभी नहीं बिसरता।4।10।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh