श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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भैरउ महला ५ ॥ साच पदारथु गुरमुखि लहहु ॥ प्रभ का भाणा सति करि सहहु ॥१॥ जीवत जीवत जीवत रहहु ॥ राम रसाइणु नित उठि पीवहु ॥ हरि हरि हरि हरि रसना कहहु ॥१॥ रहाउ ॥ कलिजुग महि इक नामि उधारु ॥ नानकु बोलै ब्रहम बीचारु ॥२॥११॥ {पन्ना 1138}

पद्अर्थ: साच = सदा कायम रहने वाला। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। लहहु = ढूँढ लो। भाणा = रज़ा, वह बात जो प्रभू को अच्छी लगती है। सति करि = सही जान के, अपने भले के लिए समझ के। सहहु = सहो।1।

जीवत जीवत जीवत = सदा ही आत्मिक जीवन वाले। रसाइणु = रस+आयन, रसों का घर? सबसे श्रेष्ठ रस। नित उठि = सदा उठ के, सदा प्रयास करके। रसना = जीभ से।1। रहाउ।

कलिजुग महि = कलियुग में, जगत में ।

(नोट: यहाँ युगों के भेद का वर्णन नहीं चल रहां साधारण तौर पर वह नाम बरता है जो हिन्दू जनता में आम प्रचलित है)।

नामि = नाम से। उधारु = संसार समुंद्र से पार उतारा। ब्रहम बीचारु = परमात्मा के मिलाप की सोच।2।

अर्थ: हे भाई! सदा ही परमात्मा का नाम अपनी जीभ सें उचारते रहो। हे भाई! सदा ही प्रयत्न करके सब रसों से श्रेष्ठ नाम-रस पीते रहो, (इस तरह) सदा आत्मिक जीवन वाले बने रहो।1। रहाउ।

हे भाई! (यह) सदा कायम रहने वाला (हरी-नाम) धन गुरू की शरण पड़ कर हासिल करो। परमात्मा द्वारा बरती हुई रज़ा को (अपने) भले के लिए जान के सहो।2।

हे भाई! सिर्फ हरी-नाम से ही जगत में संसार-समुंद्र से पार-उतारा होता है, नानक (तुम्हें) परमात्मा के साथ मिलाप की (यही) जुगति बताता है।2।11।

भैरउ महला ५ ॥ सतिगुरु सेवि सरब फल पाए ॥ जनम जनम की मैलु मिटाए ॥१॥ पतित पावन प्रभ तेरो नाउ ॥ पूरबि करम लिखे गुण गाउ ॥१॥ रहाउ ॥ साधू संगि होवै उधारु ॥ सोभा पावै प्रभ कै दुआर ॥२॥ सरब कलिआण चरण प्रभ सेवा ॥ धूरि बाछहि सभि सुरि नर देवा ॥३॥ नानक पाइआ नाम निधानु ॥ हरि जपि जपि उधरिआ सगल जहानु ॥४॥१२॥ {पन्ना 1138}

पद्अर्थ: सेवि = सेव के, शरण पड़ के। सरब फल = सारे फल (देने वाला हरी नाम)। पाऐ = हासल कर लेता है।1।

पतित पावन = (विकारों में) गिरे हुओं को पवित्र करने वाला। प्रभ = हे प्रभू! गुण गाउ = गुणों का गाना। पूरबि = पिछले जनम में। करम लिखे = किए कर्मों के लिखे संस्कारों के अनुसार।1। रहाउ।

साधू संगि = गुरू की संगति में। उधारु = पार उतारा। प्रभ कै दुआर = प्रभू के दर से।2।

सरब कलिआण = सारे सुख। बाछहि = लोचते हैं। सभि = सारे। सुरि नर = दैवी गुणों वाले मनुष्य।3।

निधानु = खजाना। जपि जपि = हर वक्त जप के। उधारिआ = पार लांघ गया।4।

अर्थ: हे प्रभू! तेरा नाम विकारियों को पवित्र करने वाला है। पर तेरे गुण गाने की दाति उसी को मिलती है जिसने पूर्बले जनम में किए कर्मों के अनुसार (गुरू की प्राप्ति उसके भाग्यों में) लिखी है।1। रहाउ।

हे भाई! (जिसको गुरू मिल जाता है, वह) गुरू की शरण पड़ कर सारे फल (देने वाला हरी-नाम) प्राप्त कर लेता है (और, इस तरह) जन्मों-जन्मों के विकारों की मैल दूर कर लेता है।1।

हे भाई! गुरू की संगति में रहने से संसार-समुंद्र से पार-उतारा हो जाता है, (जिस मनुष्य को गुरू मिल जाता है, वह) परमात्मा के दर पर शोभा कमाता है।2।

हे भाई! प्रभू के चरणों की सेवा-भक्ति से सारे सुख प्राप्त होते हैं, (जो मनुष्य प्रभू के चरणों में शरण लेता है) उसके चरणों की धूड़ सारे देवता-गण सारे दैवी-गुणों वाले मनुष्य लोचते हैं।3।

हे नानक! (गुरू की शरण में रह के) नाम-खजाना मिल जाता है। (गुरू की संगति में) हरी-नाम जप-जप के सारा जगत संसार-समुंद्र से पार लांघ जाता है।4।12।

भैरउ महला ५ ॥ अपणे दास कउ कंठि लगावै ॥ निंदक कउ अगनि महि पावै ॥१॥ पापी ते राखे नाराइण ॥ पापी की गति कतहू नाही पापी पचिआ आप कमाइण ॥१॥ रहाउ ॥ दास राम जीउ लागी प्रीति ॥ निंदक की होई बिपरीति ॥२॥ पारब्रहमि अपणा बिरदु प्रगटाइआ ॥ दोखी अपणा कीता पाइआ ॥३॥ आइ न जाई रहिआ समाई ॥ नानक दास हरि की सरणाई ॥४॥१३॥ {पन्ना 1138}

पद्अर्थ: कउ = को। कंठि = गले से। अगनि महि = (निंदा की) आग में (निंदा करते वक्त निंदक के अपने अंदर ईष्या की आग जल रही होती है)। पावै = डालता है।1।

ते = से। राखे = रक्षा करता है। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। कतहू = कहीं भी। पचिआ = जला रहता है, अंदर-अंदर से जला बुझा रहता है। आप कमाइणु = निंदा ईष्या के अपने कमाए कर्मों के कारण।1। रहाउ।

बिपरीति = उल्टी तरफ की प्रीति, बुरे कामों से प्यार।2।

पारब्रहमि = परमात्मा ने। बिरदु = आदि कदीमी स्वभाव। दोखी = निंदक।3।

आइ न जाई = जो प्रभू ना पैदा होता है ना मरता है। रहिआ समाई = जो प्रभू हर जगह व्यापक है। नानक = हे नानक!।4।

अर्थ: हे भाई! निंदक-दोखी से परमात्मा (अपने सेवक को सदा स्वयं) बचाता है। निंदक-दोखी की आत्मिक अवस्था कभी भी ऊँची नहीं हो सकती, (क्योंकि) निंदक'दोखी अपने कमाए कर्मों के अनुसार (सदा निंदा-ईष्या की आग में अंदर-अंदर से) जलता रहता है।1। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा अपने सेवक को (सदा अपने) गले से लगाए रखता है, और (अपने सेवक के) दोखी को (ईष्या की भीतर-भीतर से ही धुख रही) आग में डाले रखता है।1।

हे भाई! परमात्मा के सेवक की परमात्मा के साथ प्रीति बनी रहती है, पर सेवक के दोखी का (निंदा-ईष्या आदि) बुरे कामों से प्यार बना रहता है।2।

हे भाई! (सदा ही) परमात्मा ने (अपने सेवक की लाज रख कर) अपना मूल कदीमी का (यह) स्वभाव (बिरद) (जगत में) प्रकट किया है, (सेवक के) निंदक-दोखी ने (भी सदा) अपने किए बुरे कर्मों का फल भुगता है।3।

हे नानक! जो परमात्मा ना पैदा होता है ना मरता है जो परमात्मा सब जगह व्यापक है, उसके दास (सदा ही) उसकी शरण में पड़े रहते हैं।4।13।

रागु भैरउ महला ५ चउपदे घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ स्रीधर मोहन सगल उपावन निरंकार सुखदाता ॥ ऐसा प्रभु छोडि करहि अन सेवा कवन बिखिआ रस माता ॥१॥ रे मन मेरे तू गोविद भाजु ॥ अवर उपाव सगल मै देखे जो चितवीऐ तितु बिगरसि काजु ॥१॥ रहाउ ॥ ठाकुरु छोडि दासी कउ सिमरहि मनमुख अंध अगिआना ॥ हरि की भगति करहि तिन निंदहि निगुरे पसू समाना ॥२॥ जीउ पिंडु तनु धनु सभु प्रभ का साकत कहते मेरा ॥ अह्मबुधि दुरमति है मैली बिनु गुर भवजलि फेरा ॥३॥ होम जग जप तप सभि संजम तटि तीरथि नही पाइआ ॥ मिटिआ आपु पए सरणाई गुरमुखि नानक जगतु तराइआ ॥४॥१॥१४॥ {पन्ना 1138}

पद्अर्थ: स्री = श्री, लक्ष्मी। स्रीधर = श्री धर, लक्ष्मी का आसरा, परमात्मा। सगल उपावन = सबको पैदा करने वाला। निरंकार = वह जिसका कोई खास स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। छोडि = छोड़ के। करहि = तू करता है। अन सेवा = (अन्य) किसी और की सेवा भगती। बिखिआ = माया। कवन रस = कौन से रसों में? कौन से स्वादों में। माता = मस्त।1।

भाजु = भज, जपा कर। उपाव = (बहुवचन 'उपाउ') उपाय। जो = जो भी उपाय। चितवीअै = सोचा जाता है। तितु = उस (उपाय) से। बिगरसि = बिगड़ जाता है।1। रहाउ।

दासी कउ = माया दासी को। सिमरहि = सिमरते हैं। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। अंध = माया के मोह में अंधे हो चुके मनुष्य। अगिआना = आत्मिक जीवन की सूझ से वंचित। तिन = उनको। पसू समाना = पशुओं के समान जीवन वाले।2।

जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। साकत = परमात्मा से टूटे हुए। अहंबुधि = अहंकार भरी बुद्धि के कारण। दुरमति = दुर्मति, खोटी मति। भवजलि = संसार समुंद्र में।3।

सभि = सारे। संजम = इन्द्रियों को वश में रखने के साधन। तटि = (नदी के) किनारे पर। तीरथि = तीर्थ पर। आपु = स्वै भाव। गुरमुखि = गुरू से।4।

अर्थ: हे मेरे मन! तू (सदा) परमात्मा का नाम जपा कर। (सिमरन के बिना) और सारे उपाय (करते लोग) मैंने देखे हैं (यही) नतीजा निकलता देखा है (कि) और जो भी उपाय सोचा जाता है उस (तरीके) से (आत्मिक जीवन का) काम (बल्कि) बिगड़ता (ही) है।1। रहाउ।

हे मन! जो सुंदर प्रभू! लक्ष्मी का आसरा है, जो आकार-रहित प्रभूसबको पैदा करने वाला है, जो सारे सुख देने वाला है, उसको छोड़ के तू और-और की सेवा-पूजा करता है, तू माया के कोझे स्वादों में मस्त है।1।

हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य, माया के मोह में अंधे हो चुके मनुष्य, आत्मिक जीवन की सूझ से रहित मनुष्य मालिक-प्रभू को छोड़ के उसकी दासी (माया) को ही हर वक्त याद रखते हैं। ऐसे निगुरे मनुष्य, पशुओं जैसे जीवन वाले मनुष्य उन लोगों की निंदा करते हैं जो परमात्मा की भक्ति करते हैं।2।

हे भाई! यह जिंद ये शरीर ये धन- ये सब कुछ परमात्मा का दिया हुआ है, पर परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य कहते रहते हैं कि यह हरेक चीज़ हमारी है। अहंकार वाली बुद्धि के कारण उनकी अक्ल खोटी हुई रहती है, गुरू की शरण के बिना संसार-समुंद्र में उनके चक्कर लगते रहते हैं।3।

हे नानक! हवन, यज्ञ, जप-तप साधनों से, इन्द्रियों को वश में करने वाले सारे साधनों से किसी पवित्र नदी के किनारे पर किसी तीर्थ पर (स्नान करने से) परमात्मा का मिलाप नहीं हो सकता। जो मनुष्य परमात्मा की शरण पड़ते हैं उनके अंदर से स्वै भाव (अहंम्) मिट जाता है। हे नानक! (परमात्मा) गुरू की शरण पा कर जगत (जगत के जीवों) को संसार-समुंद्र से पार लंघा लेता है।4।1।14।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh