श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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भैरउ महला ५ ॥ बन महि पेखिओ त्रिण महि पेखिओ ग्रिहि पेखिओ उदासाए ॥ दंडधार जटधारै पेखिओ वरत नेम तीरथाए ॥१॥ संतसंगि पेखिओ मन माएं ॥ ऊभ पइआल सरब महि पूरन रसि मंगल गुण गाए ॥१॥ रहाउ ॥ जोग भेख संनिआसै पेखिओ जति जंगम कापड़ाए ॥ तपी तपीसुर मुनि महि पेखिओ नट नाटिक निरताए ॥२॥ चहु महि पेखिओ खट महि पेखिओ दस असटी सिम्रिताए ॥ सभ मिलि एको एकु वखानहि तउ किस ते कहउ दुराए ॥३॥ अगह अगह बेअंत सुआमी नह कीम कीम कीमाए ॥ जन नानक तिन कै बलि बलि जाईऐ जिह घटि परगटीआए ॥४॥२॥१५॥ {पन्ना 1139}

पद्अर्थ: बन महि = जंगल में। त्रिण = घास का तीला, बनस्पति। ग्रिहि = घर में। उदासाऐ = घरों से उदास त्यागियों में। दंडधार = हाथ में डंडा रखने वाले जोगियों में। जटधारै = जटाधारी जोगी में।1।

संत संगि = संत जनों की संगति में। मन माऐं = मन में, अपने मन में। ऊभ = आकाश में। पइआल = पाताल में। पूरन = व्यापक। रसि = आनंद से। मंगल गुण = आत्मिक आनंद देने वाले गुण। गाऐ = गा के।1। रहाउ।

संनिआसे = सन्यास में। कापड़ाऐ = कपड़े वाले साधुओं में। तपीसुर = (तपी+इसुर) बड़े बड़े तपी।2।

चहु महि = चार वेदों में। खट महि = छे शास्त्रों में। दस असटी = अठारह पुराणों में। मिलि = मिल के। वखानहि = कहते हैं। तउ = तब। कहउ = मैं कहूँ। किस ते = किससे? ('किसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'ते' के कारण हटा दी गई है)। दुराऐ = दूर, छुपा हुआ।3।

अगह = अथाह। कीम = कीमत, मूल्य। तिन कै = उनसे। बलि बलि = सदके, कुर्बान। जाईअै = जाना चाहिए। जिह घटि = जिस (जिस) हृदय में। परगटीआऐ = प्रकट हो गया है।4।

अर्थ: हे भाई! जब संत जनों की संगति में परमात्मा के आनंद देने वाले गुण स्वाद से गा के मैंने उसको अपने मन में बसता देख लिया, तो आकाश-पाताल सब में वह व्यापक दिखाई दे गया।1। रहाउ।

हे भाई! (तब मैंने) जंगल में, बनस्पति में (प्रभू को ही बसता) देख लिया, घर में भी उसी को देख लिया, और, त्यागी में भी उसी को देख लिया। तब मैंने उसको दण्ड-धारियों में, जटा-धारियों में बसता देख लिया, व्रत-नेम व तीर्थ-यात्रा करने वालों में भी देख लिया।1।

हे भाई! (जब मैंने परमात्मा को अपने अंदर बसता देखा, तब मैंने उस परमात्मा को) जोगियों में, सारे भेषों में, सन्यासियों में, जतियों में, जंगमों में, कापड़िए साधुओं में, सबमें बसता देख लिया। तब मैंने उसको तपियों में, बड़े-बड़े तपियों में, मुनियों में, नाटक करनेवाले नटों में, रासधारियों में (सबमें बसता) देख लिया।2।

हे भाई! (जब साध-संगति की कृपा से मैंने परमात्मा को अपने अंदर बसता देखा, तब मैंने उसको) चार वेदों में, छह शास्त्रों में, अठारह पुराणों में, (सारी) स्मृतियों में बसता देख लिया। (जब मैंने यह देख लिया कि) सारे जीव-जंतु मिल के सिर्फ परमात्मा के ही गुण गा रहे हैं, तो अब मैं उसको किस तरह से दूर बैठा कह सकता हूँ?।3।

हे भाई! परमात्मा अथाह है, अगम है, बेअंत है, उसका मूल्य नहीं पाया जा सकता, वह किसी दुनियावी पदार्थ के बदले नहीं मिल सकता। हे दास नानक! (कह- हे भाई! वह प्रभू बसता तो सबमें ही है, पर) जिस-जिस (भाग्यशाली) के हृदय में वह प्रत्यक्ष हो गया है, उनसे सदके कुर्बान जाना चाहिए।4।2।15।

भैरउ महला ५ ॥ निकटि बुझै सो बुरा किउ करै ॥ बिखु संचै नित डरता फिरै ॥ है निकटे अरु भेदु न पाइआ ॥ बिनु सतिगुर सभ मोही माइआ ॥१॥ नेड़ै नेड़ै सभु को कहै ॥ गुरमुखि भेदु विरला को लहै ॥१॥ रहाउ ॥ निकटि न देखै पर ग्रिहि जाइ ॥ दरबु हिरै मिथिआ करि खाइ ॥ पई ठगउरी हरि संगि न जानिआ ॥ बाझु गुरू है भरमि भुलानिआ ॥२॥ निकटि न जानै बोलै कूड़ु ॥ माइआ मोहि मूठा है मूड़ु ॥ अंतरि वसतु दिसंतरि जाइ ॥ बाझु गुरू है भरमि भुलाइ ॥३॥ जिसु मसतकि करमु लिखिआ लिलाट ॥ सतिगुरु सेवे खुल्हे कपाट ॥ अंतरि बाहरि निकटे सोइ ॥ जन नानक आवै न जावै कोइ ॥४॥३॥१६॥ {पन्ना 1139}

पद्अर्थ: निकटि = (अपने) नजदीक (बसता)। बुझै = (जो मनुष्य) समझता है। किउ करै = नहीं कर सकता। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली माया। संचै = इकट्ठी करता है। निकटे = नजदीक ही। अरु = और, पर। सभ = सारी दुनिया।1।

सभु को = हरेक प्राणी। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के। लहै = मिलता है।1। रहाउ।

पर ग्रिहि = पराए घर में। जाइ = जाता है। दरबु = धन। हिरै = चुराता है। मिथिआ = नाशवंत। मिथिआ करि = ये कह कह के भी कि सब कुछ नाशवान है। ठगउरी = ठग मूरी, ठग बूटी, धतूरा, सूझ बूझ खत्म कर देने वाली बूटी। संगि = (अपने) साथ। भरमि = भटकना में (पड़ कर)। भुलाइआ = गलत रास्ते पड़ा रहता है।2।

कूड़ ु = झूठ। मोहि = मोह में। मूठा है = ठगा जा रहा है। मूढ़ ु = मूर्ख मनुष्य (एक वचन)। अंतरि = अंदर। दिसंतरि = देस अंतरि, किसी और देश में, बाहर।3।

मसतकि = माथे पर। करमु = बख्शिश, परमात्मा की मेहर (का लेख)। लिलाट = माथे (पर)। सेवे = शरण पड़ता है। कपाट = किवाड़, बंद हुई भिक्तियां। सोइ = वह (परमात्मा) ही। जन नानक = हे दास नानक! कोइ = (परमात्मा के बिना) कोई (और)।4।

अर्थ: हे भाई! (कहने को तो) हरेक प्राणी (यह) कह देता है (कि परमात्मा सबके) नजदीक है (सबके) पास है। पर कोई विरला मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर इस गहरी बात को समझता है।1। रहाउ।

हे भाई! (जो मनुष्य परमात्मा को अपने) नजदीक (बसता) समझता है वह (किसी के साथ कोई) बुराई नहीं कर सकता। पर जो मनुष्य आत्मिक मौत लाने वाली माया को हर वक्त जोड़ता रहता है, वह मनुष्य (हरेक तरफ से) सदा डरता फिरता है। हे भाई! परमात्मा हरेक के नजदीक तो अवश्य बसता है, पर (नित्य माया जोड़ने वाला मनुष्य) यह भेद नहीं समझता। गुरू की शरण पड़े बिना सारी दुनिया माया के मोह में फसी रहती है।1।

हे भाई! (वही मनुष्य) पराए घर में (चोरी की नीयत से) जाता है, जो परमात्मा को अपने पास बसता नहीं देखता। वह मनुष्य पराया धन चुराता है, और धन को नाशवान कह-कह के भी पराया माल खाए जाता है। हे भाई! गुरू की शरण पड़े बिना भटकना में पड़ कर मनुष्य गलत रास्ते पर पड़ा रहता है, माया ठॅग-बूटी उस पर अपना प्रभाव डाले रखती है, (इस वास्ते वह परमात्मा को अपने) साथ बसता नहीं समझता।2।

हे भाई! (वही मनुष्य) झूठ बोलता है जो परमात्मा को अपने साथ बसता नहीं समझता, वह मूर्ख माया के मोह में फस के (अपनी आत्मिक राशि-पूँजी) लुटाए जाता है। परमात्मा का नाम-धन उसके हृदय में बसता है, पर वह (निरी माया की खातिर ही) बाहर भटकता फिरता है। हे भाई! गुरू की शरण के बिना (जगत) भटकना के कारण गलत राह पर पड़ा रहता है।3।

हे दास नानक! जिस मनुष्य के माथे पर लिलाट पर (परमात्मा की) बख्शिश (का लेख) लिखा उघड़ पड़ता है, वह गुरू की शरण आ पड़ता है, उसके मन में किवाड़ खुल जाते हैं। उसको अपने अंदर और बाहर जगत में एक परमात्मा ही बसता दिखाई देता है, (उसको ऐसा प्रतीत होता है कि परमात्मा के बिना और) कोई ना पैदा होता है ना मरता है।4।3।16।

भैरउ महला ५ ॥ जिसु तू राखहि तिसु कउनु मारै ॥ सभ तुझ ही अंतरि सगल संसारै ॥ कोटि उपाव चितवत है प्राणी ॥ सो होवै जि करै चोज विडाणी ॥१॥ राखहु राखहु किरपा धारि ॥ तेरी सरणि तेरै दरवारि ॥१॥ रहाउ ॥ जिनि सेविआ निरभउ सुखदाता ॥ तिनि भउ दूरि कीआ एकु पराता ॥ जो तू करहि सोई फुनि होइ ॥ मारै न राखै दूजा कोइ ॥२॥ किआ तू सोचहि माणस बाणि ॥ अंतरजामी पुरखु सुजाणु ॥ एक टेक एको आधारु ॥ सभ किछु जाणै सिरजणहारु ॥३॥ जिसु ऊपरि नदरि करे करतारु ॥ तिसु जन के सभि काज सवारि ॥ तिस का राखा एको सोइ ॥ जन नानक अपड़ि न साकै कोइ ॥४॥४॥१७॥ {पन्ना 1139}

पद्अर्थ: संसारै = संसार में। कोटि = करोड़ों। उपाव = ('उपाउ' का बहुवचन) उपाय। चोज विडाणी = आश्चर्यजनक करिश्मों वाला।1।

धारि = धार के, कर के। दरवारि = दर के दरवाजे पर, दर पर।1। रहाउ।

जिनि = जिस (मनुष्य) ने। तिनि = उस (मनुष्य) ने। ऐकु पराता = एक परमात्मा को पहचाना। फुनि = दोबारा।2।

बाणि = आदत। सुजाणि = समझदार। आधारु = आसरा।3।

सभि = सारे। सवारि = सवारे, सवारता है।4।

तिस का: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'का' के कारण हटा दी गई है।4।

अर्थ: हे प्रभू! मैं तेरी शरण में आया हूँ, मैं तेरे दर पर आया हॅूँ, मेहर कर के मेरी रक्षा कर, रक्षा कर।1। रहाउ।

हे प्रभू! जिसको तू बचाए, उसको कोई मार नहीं सकता, (क्योंकि) सारे संसार में सारी (उत्पक्ति) तेरे ही अधीन है। हे भाई! जीव (अपने वास्ते) करोड़ों उपाय सोचता रहता है, पर वही कुछ होता है जो आश्चर्यजनक करिश्मे करने वाला परमात्मा करता है।1।

हे भाई! जिस मनुष्य ने निर्भय और सारे सुख देने वाले परमात्मा की शरण ली, उसने (अपना हरेक) डर दूर कर लिया, उसने एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल ली। हे प्रभू! जो कुछ तू करता है, वही होता है। (तेरे बिना) कोई दूसरा ना किसी को मार सकता है ना बचा सकता है।2।

हे भाई! (अपने) मनुष्य स्वभाव के अनुसार तू क्या (कौन सी) सोचें सोचता रहता है? सर्व-व्यापक परमात्मा हरेक के दिल की जानने वाला है समझदार है। (हम जीवों की) वही टेक है वही आसरा है। जीवों को पैदा करने वाला वह प्रभू सब कुछ जानता है।3।

हे भाई! करतार जिस मनुष्य पर मिहर की निगाह करता है, उस सेवक के वह सारे काम सवारता है। उस मनुष्य का रखवाला वह परमात्मा स्वयं ही बना रहता है। हे दास नानक! (जगत का कोई जीव) उसकी बराबरी नहीं कर सकता।4।4।17।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh