श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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भैरउ महला ५ ॥ तउ कड़ीऐ जे होवै बाहरि ॥ तउ कड़ीऐ जे विसरै नरहरि ॥ तउ कड़ीऐ जे दूजा भाए ॥ किआ कड़ीऐ जां रहिआ समाए ॥१॥ माइआ मोहि कड़े कड़ि पचिआ ॥ बिनु नावै भ्रमि भ्रमि भ्रमि खपिआ ॥१॥ रहाउ ॥ तउ कड़ीऐ जे दूजा करता ॥ तउ कड़ीऐ जे अनिआइ को मरता ॥ तउ कड़ीऐ जे किछु जाणै नाही ॥ किआ कड़ीऐ जां भरपूरि समाही ॥२॥ तउ कड़ीऐ जे किछु होइ धिङाणै ॥ तउ कड़ीऐ जे भूलि रंञाणै ॥ गुरि कहिआ जो होइ सभु प्रभ ते ॥ तब काड़ा छोडि अचिंत हम सोते ॥३॥ प्रभ तूहै ठाकुरु सभु को तेरा ॥ जिउ भावै तिउ करहि निबेरा ॥ दुतीआ नासति इकु रहिआ समाइ ॥ राखहु पैज नानक सरणाइ ॥४॥५॥१८॥ {पन्ना 1140}

पद्अर्थ: तउ = तब, तब ही। कड़ीअै = कुड़ना, खिझना, चिंता करनी है। विसरै = भूल जाता है। नरहरि = परमात्मा। भाऐ = अच्छा लगता है। किआ कड़ीअै = चिंता फिकर करने की आवश्यक्ता नहीं पड़ती। जां = जब।1।

मोहि = मोह में (फस के)। कड़े कड़ि = खिझ खिझ के। पचिआ = जल मरता है। भ्रमि = भटक के। खपिआ = दुखी होता है।1। रहाउ।

अनिआइ = अन्याय, न्याय के विपरीत, परमात्मा के हुकम में बाहर। को = कोई जीव। भरपूरि = हर जगह, नाको नाक। समाही = (हे प्रभू!) तू व्यापक है।2।

धिङाणै = बदो बदी, परमात्मा से बेबस। भूलि = भूल के, भुलेखे से। रंञाणै = रंज में रखता है, दुखी करता है। गुरि = गुरू ने। प्रभ ते = प्रभू से, प्रभू के हुकम से। काड़ा = चिंता, खिझा। छोडि = छोड़ के। अचिंत = बेफिक्र। सोते = सोते हैं? रहते हैं।3।

प्रभ = हे प्रभू! ठाकुरु = मालिक। सभु को = हरेक जीव। करहि = तू करता है। निबेरा = फैसला। दुतीआ = दूसरा, तेरे बिना कोई और। नासति = न अस्ति, नहीं है। पैज = लाज, इज्जत।4।

अर्थ: हे भाई! माया के मोह में फसा हुआ मनुष्य खिझ खिझ के आत्मिक मौत मरता रहता है। परमात्मा के नाम के बिना (माया की खातिर) भटक के भटक के भटक के दुखी होता रहता है।1। रहाउ।

हे भाई! अगर (जीव को यह ख्याल बना रहे कि परमात्मा मुझसे अलग) कहीं दूर है, तब (हर बात पर) चिंता होती है। तब भी चिंता करते रहते हैं जब परमात्मा (हमारे मन से) भूल जाए। जब (परमात्मा के बिना) कोई और पदार्थ (परमात्मा से ज्यादा) प्यारा लगने लग जाता है, तब (भी बंदा) झुरता रहता है। पर जब (यह यकीन बना रहे कि परमात्मा) हरेक जगह व्यापक है, तब चिंता-फिकर समाप्त हो जाता है।1।

हे प्रभू! अगर (ये ख्याल टिका रहे कि परमात्मा के बिना) कोई और कुछ कर सकने वाला है, तब चिंता-फिक्र में फसे रहते हैं। तब भी झुरते हैं जब ये ख्याल बना रहे कि कोई प्राणी परमात्मा के हुकम से बाहर मर सकता है। अगर यह यकीन टिक जाए कि परमात्मा हमारी आवश्यक्ताएं जानता नहीं है, तब भी झुरते रहते हैं। पर, हे प्रभू! तू तो हर जगह मौजूद है, फिर हम चिंता-फिक्र क्यों करें?।2।

हे भाई! कुछ भी परमात्मा के हुकम के बाहर नहीं होता, किसी को भी वह भुलेखे से दुखी नहीं करता, फिर चिंता-फिक्र क्यों किया जाऐ? हे भाई! गुरू ने यह बताया है कि जो कुछ होता है सब प्रभू के हुकम से ही होता है। इस लिए हम तो चिंता-फिक्र छोड़ के (उसकी रज़ा में) बेफिक्र टिके हुए हैं।3।

हे प्रभू! तू सब जीवों का मालिक है, हरेक जीव तेरा (पैदा किया हुआ) है। जैसे तेरी रज़ा होती है, तू (जीवों की किस्मत का) फैसला करता है। हे प्रभू! तेरे बिना (तेरे बराबर का) और कोई नहीं है, तू ही हर जगह व्यापक है। हे नानक! (प्रभू के ही दर पर अरदास किया कर कि, हे प्रभू!) मैं तेरी शरण आया हूँ, मेरी लाज रख।4।5।18।

भैरउ महला ५ ॥ बिनु बाजे कैसो निरतिकारी ॥ बिनु कंठै कैसे गावनहारी ॥ जील बिना कैसे बजै रबाब ॥ नाम बिना बिरथे सभि काज ॥१॥ नाम बिना कहहु को तरिआ ॥ बिनु सतिगुर कैसे पारि परिआ ॥१॥ रहाउ ॥ बिनु जिहवा कहा को बकता ॥ बिनु स्रवना कहा को सुनता ॥ बिनु नेत्रा कहा को पेखै ॥ नाम बिना नरु कही न लेखै ॥२॥ बिनु बिदिआ कहा कोई पंडित ॥ बिनु अमरै कैसे राज मंडित ॥ बिनु बूझे कहा मनु ठहराना ॥ नाम बिना सभु जगु बउराना ॥३॥ बिनु बैराग कहा बैरागी ॥ बिनु हउ तिआगि कहा कोऊ तिआगी ॥ बिनु बसि पंच कहा मन चूरे ॥ नाम बिना सद सद ही झूरे ॥४॥ बिनु गुर दीखिआ कैसे गिआनु ॥ बिनु पेखे कहु कैसो धिआनु ॥ बिनु भै कथनी सरब बिकार ॥ कहु नानक दर का बीचार ॥५॥६॥१९॥ {पन्ना 1140}

पद्अर्थ: कैसे = कैसा? फबता नहीं। निरतकारी = नाच। कंठ = गला। जील = तंदी। सभि = सारे।1।

कहहु = बताओ। को = कौन? कैसे = कैसे?।1। रहाउ।

जिहवा = जीभ। कहा = कहाँ? को = कोई। बकता = बोलने योग्य। स्रवन = श्रवण, कान। पेखै = देख सकता है। कही न लेखै = किसी भी लेखे में नहीं, कहीं भी इज्जत नहीं पा सकता।2।

अमर = हुकम। राज मंडित = राज की सजावट। ठहराना = टिक सकता है। बउराना = झल्ला।3।

बैरागु = उपरामता, निर्मोहता। हउ = अहंकार। बसि = वश में। पंच = कामादिक पाँचों। चूरे = मारा जा सके। सद = सदा।4।

दीखिआ = उपदेश। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। बिनु पेखै = देखे बिना। कहु = बताओ। कैसो = कैसा? बिन भै = डर अदब के बिना। कथनी सरब = सारी कहनी। विकार = विकारों का मूल। नानक = हे नानक!।5।

अर्थ: हे भाई! बताओ, परमात्मा का नाम सिमरन के बिना कौन संसार समुंद्र से पार लांघ सकता है? गुरू की शरण पड़े बिना कैसे कोई पार लांघ सकता है?।1। रहाउ।

हे भाई! (नृत्य के साथ) साज़ों के बिना नृत्य नहीं फबता। गले के बिना कोई गवईया गा नहीं सकता। तंदी के बिना रबाब नहीं बज सकती। (इसी तरह) परमात्मा का नाम सिमरन के बिना (दुनिया वाले और) सारे काम व्यर्थ चले जाते हैं।1।

हे भाई! जीभ के बिना कोई बोलने योग्य नहीं हो सकता, कान के बिना कोई सुन नहीं सकता। आँखों के बिना कोई देख नहीं सकता। (इसी तरह) परमात्मा के नाम सिमरन के बिना मनुष्य की कोई बात नहीं पूछता।2।

हे भाई! विद्या प्राप्ति के बगैर कोई पंडित नहीं बन सकता। (राजाओं के) हुकम के बिना राज की सजावटें किसी काम की नहीं। (आत्मिक जीवन की) सूझ के बिना मनुष्य का मन कहीं टिक नहीं सकता। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना सारा जगत पागल हुआ फिरता है।3।

हे भाई! अगर वैरागी के अंदर माया के प्रति निर्मोह नहीं, तो वह वैरागी कैसा? अहंकार को त्यागे बिना कोई त्याग नहीं कहलवा सकता। कामादिक पाँचों को वश में किए बिना मन मारा नहीं जा सकता। हे भाई! परमात्मा का नाम सिमरन के बिना मनुष्य सदा ही सदा ही चिंता-फिक्र में पड़ा रहता है।4।

हे भाई! गुरू के उपदेश के बिना आत्मिक जीवन की सूझ नहीं पड़ सकती। हे भाई! वह समाधि कैसी, अगर अपने ईष्ट के दर्शन नहीं होते? हे भाई! परमात्मा का डर-अदब हृदय में बसाए बिना मनुष्य का सारा चोंच-ज्ञान विकारों का मूल है। हे नानक! कह- हे भाई! परमात्मा के दर पर पहुँचाने वाली यही विचार है।5।6।19।

भैरउ महला ५ ॥ हउमै रोगु मानुख कउ दीना ॥ काम रोगि मैगलु बसि लीना ॥ द्रिसटि रोगि पचि मुए पतंगा ॥ नाद रोगि खपि गए कुरंगा ॥१॥ जो जो दीसै सो सो रोगी ॥ रोग रहित मेरा सतिगुरु जोगी ॥१॥ रहाउ ॥ जिहवा रोगि मीनु ग्रसिआनो ॥ बासन रोगि भवरु बिनसानो ॥ हेत रोग का सगल संसारा ॥ त्रिबिधि रोग महि बधे बिकारा ॥२॥ रोगे मरता रोगे जनमै ॥ रोगे फिरि फिरि जोनी भरमै ॥ रोग बंध रहनु रती न पावै ॥ बिनु सतिगुर रोगु कतहि न जावै ॥३॥ पारब्रहमि जिसु कीनी दइआ ॥ बाह पकड़ि रोगहु कढि लइआ ॥ तूटे बंधन साधसंगु पाइआ ॥ कहु नानक गुरि रोगु मिटाइआ ॥४॥७॥२०॥ {पन्ना 1140-1141}

पद्अर्थ: कउ = को। रोगि = रोग ने। मैगलु = हाथी। बसि = वश में। रोगि = रोग में। पचि मुऐ = जल मरे। द्रिसटि रोगि = देखने के रोग में। नाद = (घंडे हेड़े की) आवाज़ (हिरनों को पकड़ने के लिए मढ़े हुए घड़े की) आवाज। कुरंगा = हिरन।1।

जोगी = (प्रभू में) जुड़ा हुआ।1। रहाउ।

मीनु = मॅछ (पुलिंग)। ग्रसिआनो = पकड़ा हुआ। बासन = वासना, सुगंधि। हेत = मोह। त्रिबिधि रोग महि = त्रिगुणी माया के मोह में। बधे = बंधे हुए। बिकारा = विकार, एैब।2।

रोगे = रोग में ही। फिरि फिरि = बार बार। भरमै = भटकता है। बंधु = बंधन। रहनु = भटकना से निजात, शांति, टिकाव। रती = रक्ती भर भी। कतहि = किसी तरह भी।3।

पारब्रहमि = पारब्रहम ने। पकड़ि = पकड़ के। रोगहु = रोगों से। गुरि = गुरू ने।4।

अर्थ: हे भाई! जो जो जीव (जगत में) दिखाई दे रहा है, हरेक किसी ना किसी रोग में फंसा हुआ है। (असल) जोगी मेरा सतिगुरू (सब) रोगों से रहित है।1। रहाउ।

हे भाई! (परमात्मा ने) मनुष्य को अहंकार का रोग दे रखा है, काम-वासना के रोग ने हाथी को अपने वश में किया हुआ है। (दीए की ज्योति को) देखने के रोग के कारण पतंगे (दीए की ज्योति पर) जल मरते हैं। (घंडे हेड़े की) आवाज़ (सुनने) के रोग के कारण हिरन दुखी होते हैं।1।

हे भाई! जीभ के रोग के कारण मछली पकड़ी जाती है, सुगंधि के रोग के कारण (फूल की सुगंधि लेने के रस के कारण) भँवरा (फूल की पंखुड़ियों में बंद हो के) नाश हो जाता है। हे भाई! सारा जगत मोह के रोग का शिकार हुआ पड़ा है, त्रैगुणी माया के मोह के रोग में बँधे हुए जीव अनेकों विकार करते हैं।2।

हे भाई! (मनुष्य किसी ना किसी आत्मिक) रोग में (फसा हुआ) ही मर जाता है, (किसी ना किसी आत्मिक) रोग में (ग्रसा हुआ) ही पैदा होता है, उस रोग के कारण ही बार-बार जूनियों में भटकता रहता है, रोग के बँधनों के कारण (जूनियों में) भटकने से रक्ती भर भी खलासी नहीं मिल सकती। हे भाई! गुरू की शरण के बिना (यह) रोग किसी तरह भी दूर नहीं होता।3।

हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा ने मेहर कर दी, उसको उसने बाँह पकड़ के रोगों से बचा लिया। जब उसने गुरू की संगति प्राप्त की, उसके (आत्मिक रोगों के सारे) बँधन टूट गए। हे नानक! कह- (जो भी मनुष्य गुरू की शरण पड़ा,) गुरू ने (उसका) रोग मिटा दिया।4।7।20।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh