श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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भैरउ महला ५ ॥ चीति आवै तां महा अनंद ॥ चीति आवै तां सभि दुख भंज ॥ चीति आवै तां सरधा पूरी ॥ चीति आवै तां कबहि न झूरी ॥१॥ अंतरि राम राइ प्रगटे आइ ॥ गुरि पूरै दीओ रंगु लाइ ॥१॥ रहाउ ॥ चीति आवै तां सरब को राजा ॥ चीति आवै तां पूरे काजा ॥ चीति आवै तां रंगि गुलाल ॥ चीति आवै तां सदा निहाल ॥२॥ चीति आवै तां सद धनवंता ॥ चीति आवै तां सद निभरंता ॥ चीति आवै तां सभि रंग माणे ॥ चीति आवै तां चूकी काणे ॥३॥ चीति आवै तां सहज घरु पाइआ ॥ चीति आवै तां सुंनि समाइआ ॥ चीति आवै सद कीरतनु करता ॥ मनु मानिआ नानक भगवंता ॥४॥८॥२१॥ {पन्ना 1141}

पद्अर्थ: चीति = चिक्त में। आवै = (परमात्मा) आ बसता है। सभि = सारे। भंज = नाश। न झूरी = चिंता फिकर नहीं करता।1।

अंतरि = (जिस मनुष्य के) हृदय में। रामराइ = प्रभू पातशाह। आइ = आ के। गुरि पूरै = पूरे गुरू से। रंगु = आत्मिक आनंद।1। रहाउ।

को = का। पूरे = सफल हो जाता है। रंगि = रंग में। निहाल = प्रसन्न।2।

सद = सदा। निभरंता = भ्रांति के बिना, भटकना से बच जाता है। चूकी = समाप्त हो जाती है। काणे = काणि, मुथाजी।3।

सहज घरु = आत्मिक अडोलता का ठिकाना। सुंनि = शून्य में, उस अवस्था में जहाँ मायावी फुरनों का शून्य ही शून्य है, अफुर अवस्था में। कीरतनु = सिफत सालाह। मानिआ = पतीज जाता है।4।

अर्थ: हे भाई! पूरे गुरू से जिस मनुष्य के हृदय में प्रभू-पातशाह प्रकट हो जाता है, उसके अंदर रंग लगा देता है (आत्मिक आनंद बना देता है)।1। रहाउ।

हे भाई! (जब किसी मनुष्य के) हृदय में परमात्मा आ बसता है, तब उसके अंदर बड़ा आनंद बन जाता है, तब उसके सारे दुखों का नाश हो जाता है, तब उसकी हरेक आशा पूरी हो जाती है, तब वह कभी भी कोई चिंता-फिक्र नहीं करता।1।

हे भाई! (जब किसी मनुष्य के) हृदय में परमात्मा आ बसता है, तब वह (मानो) सबका राजा बन जाता है, तब उसके सारे काम सफल हो जाते हैं, तब वह गाढ़े आत्मिक आनंद में मस्त रहता है, तब वह सदा प्रसन्न-चिक्त रहता है।2।

हे भाई! (जब परमात्मा किसी मनुष्य के) हृदय में आ बसता है, त बवह सदा के लिए नाम-धन का शाह बन जाता है, तब वह सदा के लिए माया की खातिर भटकना से बच जाता है, त बवह सारे (आत्मिक) आनंद भोगता है, तब उसे किसी की मुथाजी नहीं रह जाती।3।

हे भाई! (जब परमात्मा किसी मनुष्य के) हृदय में आ प्रकट होता है, तब वह मनुष्य आत्मिक अडोलता का ठिकाना पा लेता है, तब वह उस आत्मिक अवस्था में लीन रहता है जहाँ माया वाले फुरने नहीं उठते, तबवह सदा परमात्मा की सिफत-सालाह करता है, हे नानक! तब उसका मन परमात्मा के साथ पतीज जाता है।4।8।21।

भैरउ महला ५ ॥ बापु हमारा सद चरंजीवी ॥ भाई हमारे सद ही जीवी ॥ मीत हमारे सदा अबिनासी ॥ कुट्मबु हमारा निज घरि वासी ॥१॥ हम सुखु पाइआ तां सभहि सुहेले ॥ गुरि पूरै पिता संगि मेले ॥१॥ रहाउ ॥ मंदर मेरे सभ ते ऊचे ॥ देस मेरे बेअंत अपूछे ॥ राजु हमारा सद ही निहचलु ॥ मालु हमारा अखूटु अबेचलु ॥२॥ सोभा मेरी सभ जुग अंतरि ॥ बाज हमारी थान थनंतरि ॥ कीरति हमरी घरि घरि होई ॥ भगति हमारी सभनी लोई ॥३॥ पिता हमारे प्रगटे माझ ॥ पिता पूत रलि कीनी सांझ ॥ कहु नानक जउ पिता पतीने ॥ पिता पूत एकै रंगि लीने ॥४॥९॥२२॥ {पन्ना 1141}

पद्अर्थ: बापु = पिता, प्रभू पिता। सद = सदा। सद चरंजीवी = सदा चिरंजीवी, सदा ही कायम रहने वाला। भाई = सत्संगी, आत्मिक जीवन की सांझ रखने वाला। जीवी = आत्मिक जीवन वाले। अबिनासी = अटल आत्मिक जीवन वाले। कुटंबु = परिवार, इन्द्रियां, बिरतियां। निज घरि = अपने (असल) घर में, प्रभू चरणों में। वासी = बसने वाला, टिके रहने वाला।1।

हम = हम। सुखु = आत्मिक आनंद। सभहि = सारे (भाई, मित्र, कुटंब)। सुहेले = सुखी। गुरि पूरे = पूरे गुरू ने। संगि = साथ। मेले = मिला दिए।1। रहाउ।

मंदर मेरे = मेरे घर, मेरी जिंद के टिके रहने वाले आत्मिक स्थान, वह अवस्था जहाँ मेरी जिंद टिकी रहती है। ते = से। देस मेरे = मेरे प्राणों के आत्मिक ठिकाने। अपूछे = (जम की) पूछ पड़ताल से परे। निहचलु = सदा कायम रहने वाला। राजु = हकूमत, अपनी इन्द्रियों पर हकूमत। मालु = सरमाया, हरी नाम की राशि। अखूटु = कभी ना खत्म होने वाला। अबेचलु = अबिचल, सदा कायम रहने वाला।2।

सभ जुग अंतरि = सारे जुगों में। बाज = मशहूरी। थान थनंतरि = थान थान अंतरि, हरेक जगह में। कीरति = महिमा, वडिआई, कीर्ति। घरि घरि = हरेक घर में। भगति = सेवा मानता। लोई = लोगों में।3।

माझ = (हमारे) हृदय में। रलि = मिल के। सांझ = प्यार। जउ = जब। पतीने = (पुत्र पर) प्रसन्न हो गए। ऐकै रंगि = एक ही प्यार में। लीने = लीन हो गए, एक मेक हो गए।4।

अर्थ: हे भाई! जब पूरे गुरू ने मुझे प्रभू-पिता के साथ मिला दिया, मुझे आत्मिक आनंद प्राप्त हो गया, तब (मेरे साथ संबंध रखने वाले मित्र, भाई सारे इन्द्रियां- यह) सारे ही (आत्मिक आनंद की बरकति से) सुखी हो गए।1। रहाउ।

हे भाई! (जब पूरे गुरू ने मुझे प्रभू-पिता के साथ मिला दिया, तब मुझे निश्चय हो गया कि) हम जीवों का प्रभू-पिता सदा कायम रहने वाला है, मेरे साथ आत्मिक सांझ रखने वाले भी सदा ही आत्मिक जीवन वाले बन गए, मेरे साथ हरी-नाम सिमरन का प्रेम रखने वाले सदा के लिए अटल जीवन वाले हो गए, (सारी इन्द्रियों का) मेरा परिवार प्रभू-चरणों में टिके रहने वाला बन गया।1।

हे भाई! (जब पूरे गुरू ने मुझे प्रभू-पिता के साथ मिला दिया, तब मेरी जिंद के टिके रहने वाले) ठिकाने सारी (मायावी प्रेरणाओं) से ऊँचे हो गए कि यम-राज वहाँ कुछ पूछने के लायक ही ना रहा। तब मेरी अपनी इन्द्रियों पर हकूमत सदा के लिए अॅटल हो गई, तब मेरे पास इतना नाम-खजाना इकट्ठा हो गया, जो खत्म ही ना हो सके, जो सदा के लिए कायम रहे।2।

हे भाई! (जब पूरे गुरू ने मुझे प्रभू-पिता के साथ मिला दिया,मुझे समझ आ गई कि यह जो प्रभू की शोभा) सारे युगों में हो रही है मेरे वास्ते भी यही शोभा है (यह जो) हरेक जगह में (प्रभू की) कीर्ति हो रही है, (यह जो) हरेक घर में (प्रभू की) सिफत-सालाह हो रही है, मेरे लिए भी यही है, (यह जो) सब लोगों में (प्रभू की) भक्ति हो रही है मेरे लिए भी यही है (प्रभू-चरणों में मिलाप की बरकति से मुझे किसी शोभा मशहूरी कीर्ति आदर-मान की वासना नहीं रही)।3।

हे भाई! (जब पूरे गुरू ने मुझे प्रभू-पिता के साथ मिला दिया) प्रभू-पिता मेरे हृदय में प्रकट हो गए, प्रभू-पिता ने मेरे साथ इस तरह प्यार डाल लिया जैसे पिता अपने पुत्र के साथ प्यार बनाता है।

हे नानक! कह-जब पिता-प्रभू (अपने किसी पुत्र पर) दयावान होता है, तब प्रभू-पिता और जीव-पुत्र एक ही प्यार में एक-मेक हो जाते हैं।4।9।22।

भैरउ महला ५ ॥ निरवैर पुरख सतिगुर प्रभ दाते ॥ हम अपराधी तुम्ह बखसाते ॥ जिसु पापी कउ मिलै न ढोई ॥ सरणि आवै तां निरमलु होई ॥१॥ सुखु पाइआ सतिगुरू मनाइ ॥ सभ फल पाए गुरू धिआइ ॥१॥ रहाउ ॥ पारब्रहम सतिगुर आदेसु ॥ मनु तनु तेरा सभु तेरा देसु ॥ चूका पड़दा तां नदरी आइआ ॥ खसमु तूहै सभना के राइआ ॥२॥ तिसु भाणा सूके कासट हरिआ ॥ तिसु भाणा तां थल सिरि सरिआ ॥ तिसु भाणा तां सभि फल पाए ॥ चिंत गई लगि सतिगुर पाए ॥३॥ हरामखोर निरगुण कउ तूठा ॥ मनु तनु सीतलु मनि अम्रितु वूठा ॥ पारब्रहम गुर भए दइआला ॥ नानक दास देखि भए निहाला ॥४॥१०॥२३॥ {पन्ना 1141}

पद्अर्थ: निरवैर = हे किसी से वैर ना रखने वाले! दाते = हे दातार! बखसाते = बख्शने वाले। कउ = को। ढोई = आसरा। निरमलु = पवित्र।1।

मनाइ = मना के, प्रसन्न कर के। पाऐ = हासिल कर लिए।1। रहाउ।

पाब्रहम = हे पारब्रहम! आदेसु = नमस्कार। चूका = समाप्त हो गया। पड़दा = माया के मोह वाली भिक्ति। नदरी आइआ = दिख गया। राइआ = हे पातिशाह!।2।

तिसु भाणा = उस (प्रभू) को अच्छा लगे। कासट = काठ, लकड़ी। थल सिरि = थल के सिर पर। सरिआ = सर, सरोवर। सभि = सारे। सतिगुर पाऐ = गुरू के चरणों में।3

हरामखोर = बेगाना हक खाने वाला। तूठा = दयाल हो जाता है। सीतलु = ठंडा, शांत। मनि = मन में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। वूठा = बस गया। देखि = देख के। निहाला = प्रसन्न।4।

अर्थ: हे भाई! गुरू को हृदय में बसा के (मनुष्य) सारे (इच्छित) फल हासिल कर लेता है। गुरू को प्रसन्न करके (मनुष्य) आत्मिक आनंद प्राप्त कर लेता है।1। रहाउ।

हे किसी से वैर ना रखने वाले गुरू पुरख! हे दातार प्रभू! हम (जीव) भूल (-चूक) करने वाले हैं, तुम (हमारी) भूलें बख्शने वाले हो। हे सतिगुरू! जिस पापी को और कहीं आसरा नहीं मिलता, जब वह तेरी शरण आ जाता है, तब वह पवित्र जीवन वाला बन जाता है।1।

हे गुरू! हे प्रभू! (तुझे मेरी) नमस्कार है। (हम जीवों का यह) मन (यह) तन तेरा ही दिया हुआ है (जो कुछ दिखाई दे रहा है) सारा तेरा ही देश है (हर जगह तू ही बस रहा है)। हे सब जीवों के पातशाह! तू (सबका) पति है। (जब किसी जीव के अंदर से माया के मोह का) पर्दा गिर जाता है तब तू उसको दिखाई दे जाता है।2।

हे भाई! यदि उस प्रभू को ठीक लगे तो सूखे काष्ठ हरे हो जाते हैं, थल पर सरोवर बन जाता है। जब कोई मनुष्य उस प्रभू को अच्छा लग जाए, तब वह सारे फल प्राप्त कर लेता है, गुरू के चरणों में लग के (उसके अंदर से) चिंता दूर हो जाता है।3।

हे भाई! पराया हक खाने वाले गुण-हीन मनुष्य पर भी जब परमात्मा दयालु हो जाता है, उसका मन, उसका तन शांत हो जाता है, उसके मन में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल आ बसता है। हे नानक! जिन सेवकों पर गुरू परमात्मा दयालु होते हैं वे दर्शन करके निहाल हो जाते हैं।4।1।23।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh