श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1142 भैरउ महला ५ ॥ सतिगुरु मेरा बेमुहताजु ॥ सतिगुर मेरे सचा साजु ॥ सतिगुरु मेरा सभस का दाता ॥ सतिगुरु मेरा पुरखु बिधाता ॥१॥ गुर जैसा नाही को देव ॥ जिसु मसतकि भागु सु लागा सेव ॥१॥ रहाउ ॥ सतिगुरु मेरा सरब प्रतिपालै ॥ सतिगुरु मेरा मारि जीवालै ॥ सतिगुर मेरे की वडिआई ॥ प्रगटु भई है सभनी थाई ॥२॥ सतिगुरु मेरा ताणु निताणु ॥ सतिगुरु मेरा घरि दीबाणु ॥ सतिगुर कै हउ सद बलि जाइआ ॥ प्रगटु मारगु जिनि करि दिखलाइआ ॥३॥ जिनि गुरु सेविआ तिसु भउ न बिआपै ॥ जिनि गुरु सेविआ तिसु दुखु न संतापै ॥ नानक सोधे सिम्रिति बेद ॥ पारब्रहम गुर नाही भेद ॥४॥११॥२४॥ {पन्ना 1142} पद्अर्थ: बेमुहताजु = किसी की मुथाजी नहीं। सचा = सदा कायम रहने वाला। साजु = मर्यादा। सभस दा = सब जीवों का। बिधाता = सृजनहार प्रभू (का रूप)।1। को = कोई। देव = देवता। मसतकि = माथे पर। भागु = अच्छी किस्मत।1। रहाउ। प्रतिपालै = पालना करता है। मारि = (माया के मोह से) मार के। जीवालै = आत्मिक जीवन देता है। वडिआई = शोभा।2। ताणु = सहारा। निताणु = निआसरा मनुष्य। घरि = हृदय घर में। दीबाणु = आसरा। कै = से। हउ = मैं। सद = सदा। बलि जाइआ = सदके हूँ। जिनि = जिस (गुरू) ने। प्रगटु = प्रत्यक्ष, सीधा। मारगु = रास्ता।3। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकता। न संतापै = दुखी नहीं कर सकता। सोधे = खोज के देख लिए हैं। भेद = फर्क, अंतर।4। अर्थ: हे भाई! गुरू जैसा कोई और देवता नहीं है। जिस (मनुष्य) के माथे पर अच्छी किस्मत (जाग उठे) वह मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है।1। रहाउ। हे भाई! प्यारे गुरू को किसी की मुथाजी नहीं (गुरू की अपनी कोई जाती गरज़ नहीं अपना व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं) - गुरू की यह सदा कायम रहने वाली मर्यादा है (कि वह सदा बेगर्ज है)। हे भाई! गुरू सब जीवों को (दातें) देने वाला है। गुरू और सृजनहार अकाल-पुरख एक-रूप है।1। हे भाई! प्यारा गुरू सब जीवों की रक्षा करता है, (जो मनुष्य उसके दर पर आता है, उसको माया के मोह से उपराम करके) मार के आत्मिक जीवन दे देता है। हे भाई! गुरू की यह ऊँची शोभा हर जगह रौशन हो गई है।2। हे भाई! जिस मनुष्य का और कोई भी आसरा नहीं (जब वह गुरू की शरण आ पड़ता है) गुरू (उसका) आसरा बन जाता है, गुरू उसके हृदय-घर को सहारा देता है। हे भाई! जिस (गुरू) ने आत्मिक जीवन का सीधा रास्ता दिखा दिया है, मैं उससे सदा कुर्बान जाता हूँ।3। हे भाई! जिस (मनुष्य) ने गुरू की शरण ली है, कोई डर उस पर अपना जोर नहीं डाल सकता। हे नानक! (कह- हे भाई!) स्मृतियां-वेद (आदि धर्म-पुस्तकें) खोज के देख लिए हैं (गुरू सबसे ऊँचा है) गुरू और परमात्मा में कोई अंतर नहीं है।4।11।24। भैरउ महला ५ ॥ नामु लैत मनु परगटु भइआ ॥ नामु लैत पापु तन ते गइआ ॥ नामु लैत सगल पुरबाइआ ॥ नामु लैत अठसठि मजनाइआ ॥१॥ तीरथु हमरा हरि को नामु ॥ गुरि उपदेसिआ ततु गिआनु ॥१॥ रहाउ ॥ नामु लैत दुखु दूरि पराना ॥ नामु लैत अति मूड़ सुगिआना ॥ नामु लैत परगटि उजीआरा ॥ नामु लैत छुटे जंजारा ॥२॥ नामु लैत जमु नेड़ि न आवै ॥ नामु लैत दरगह सुखु पावै ॥ नामु लैत प्रभु कहै साबासि ॥ नामु हमारी साची रासि ॥३॥ गुरि उपदेसु कहिओ इहु सारु ॥ हरि कीरति मन नामु अधारु ॥ नानक उधरे नाम पुनहचार ॥ अवरि करम लोकह पतीआर ॥४॥१२॥२५॥ {पन्ना 1142} पद्अर्थ: लैत = लेते हुए, जपते हुए। परगटु = रौशन। तन ते = शरीर से। सगल पुरबाइआ = सारे पर्व, सारे पवित्र दिन। अठसठि = अढ़सठ (तीर्थ)। मजनाइआ = स्नान (हो जाता है)।1। हमरा = हमारा। को = का। गुरि = गुरू ने। ततु गिआन = ज्ञान का तत्व, आत्मिक जीवन की सूझ का निचोड़।1। रहाउ। दूरि पराना = दूर हो जाता है। अति मूढ़ = बड़ा मूर्ख। सुगिआना = अच्छा समझदार। परगटि = प्रकट हो जाता है। छुटे = समाप्त हो जाते हैं। जंजारा = जंजाल, मन के मोह के बँधन।2। नेड़ि = नजदीक। दरगह = परमात्मा की हजूरी में। कहै साबासि = आदर सत्कार करता है। साची = सदा कायम रहने वाली। रासि = पूँजी, सरमाया।3। गुरि = गुरू ने। सारु = श्रेष्ठ। कीरति = कीर्ति, सिफत सालाह। अधारु = आसरा। उधरे = संसार समुंद्र से पार लांघ गए। पुनहचार = किए पापों की निवृक्ति के लिए प्रायश्चित कर्म। अवरि = और ('अवर' का बहुवचन शब्द)। लोकह पतीआर = लोगों को (अपने धार्मिक होने की) तसल्ली देने के लिए।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम ही हमारा तीर्थ है। गुरू ने (हमें) आत्मिक जीवन की सूझ का यह निचोड़ समझा दिया है।1। रहाउ। हे भाई! परमात्मा का नाम जपते हुए (मनुष्य का) मन (विकारों के अंधकार में से निकल के) रौशन हो जाता है (क्योंकि) नाम सिमरते हुए (हरेक किस्म का) पाप शरीर से दूर हो जाता है। हे भाई! नाम सिमरते हुए (मानो) सारे पर्व मनाए गए, नाम जपते हुए अढ़सठ तीर्थों का स्नान हो गया।1। हे भाई! परमात्मा का नाम जपते हुए (मनुष्य का) मन (विकारों के अंधेरे से निकल के) प्रकाशमान हो जाता है। हे भाई! नाम सिमरने से (जैसे) मन में आत्मिक जीवन का प्रकाश हो जाता है (क्योंकि) नाम जपते हुए (मन के माया के मोह के सारे) बँधन कट जाते हैं।2। हे भाई! परमात्मा का नाम जपने से जम (मनुष्य के) नजदीक नहीं आता, मनुष्य परमात्मा की हजूरी में टिक के आत्मिक आनंद लेता है, नाम सिमरने से परमात्मा (भी) आदर-मान देता है। हे भाई! परमात्मा का नाम ही हम जीवों के लिए सदा कायम रहने वाली राशि-पूँजी है।3। हे भाई! गुरू ने (मुझे) यह सबसे बढ़िया उपदेश दे दिया है कि परमात्मा की सिफतसालाह परमात्मा का नाम (ही) मन का आसरा है। हे नानक! वह मनुष्य (विकारों की लहरों से) पार लांघ जाते हैं, जो नाम जपने का प्रायश्चित कर्म करते हैं। और सारे (प्रायश्चित) कर्म लोगों की तसल्ली करवाने के लिए हैं (कि हम धार्मिक बन गए हैं)।4।12।25। भैरउ महला ५ ॥ नमसकार ता कउ लख बार ॥ इहु मनु दीजै ता कउ वारि ॥ सिमरनि ता कै मिटहि संताप ॥ होइ अनंदु न विआपहि ताप ॥१॥ ऐसो हीरा निरमल नाम ॥ जासु जपत पूरन सभि काम ॥१॥ रहाउ ॥ जा की द्रिसटि दुख डेरा ढहै ॥ अम्रित नामु सीतलु मनि गहै ॥ अनिक भगत जा के चरन पूजारी ॥ सगल मनोरथ पूरनहारी ॥२॥ खिन महि ऊणे सुभर भरिआ ॥ खिन महि सूके कीने हरिआ ॥ खिन महि निथावे कउ दीनो थानु ॥ खिन महि निमाणे कउ दीनो मानु ॥३॥ सभ महि एकु रहिआ भरपूरा ॥ सो जापै जिसु सतिगुरु पूरा ॥ हरि कीरतनु ता को आधारु ॥ कहु नानक जिसु आपि दइआरु ॥४॥१३॥२६॥ {पन्ना 1142} पद्अर्थ: ता कउ = उस (परमात्मा) को। बार = बारी। वारि दीजै = सदके कर दें। ता कै सिमरनि = उस (प्रभू) के सिमरन की बरकति से। मिटहि = मिट जाते हैं (बहुवचन)। संताप = दुख कलेश। न विआपहि = अपना जोर नहीं डाल सकते।1। हीरा = कीमती पदार्थ। निरमल = पवित्र (करने वाला)। जासु जपत = जिसको जपते हुए। सभि = सारे। काम = काम।1। रहाउ। जा की द्रिसटि = जिस की (मेहर की) निगाह से। ढहै = ढहि जाता है (एक वचन)। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। सीतलु = ठंडा, शांति देने वाला। मनि = मन में। गहै = पकड़ के रखता है। पूजारी = पुजारी, पूजा करने वाला। मनोरथ = मांगें, जरूरतें। पूरनहारी = पूरी करने वाला।2। ऊणे = खाली। सुभर = नाको नाक।3। रहिआ भरपूरा = पूरी तौर पर बस रहा है। जापै = जपता है। ता को = उसके हृदय में। आधारु = आसरा। दइआरु = दयावान।4। अर्थ: हे भाई! (जीवों के हृदय) पवित्र करने वाला हरी-नाम ऐसा कीमती पदार्थ है कि उसको जपते हुए सारे काम सफल हो जाते हैं।1। रहाउ। हे भाई! उस परमात्मा के आगे लाखों बार सिर झुकाना चाहिए, अपना यह मन उस परमात्मा के आगे भेट कर देना चाहिए। हे भाई! उस परमात्मा के नाम के सिमरन की बरकति से (सारे) दुख-कलेश मिट जाते हैं, (मन में) खुशी पैदा होती है, कोई भी दुख अपना प्रभाव नहीं डाल सकता।1। हे भाई! जिस परमात्मा की मेहर की निगाह से (मनुष्य के अंदर से) दुखों का डेरा ढहि जाता है, (जो मनुष्य उसका) आत्मिक जीवन देने वाला नाम (अपने) मन में बसाता है (उसका हृदय) ठंडा-ठार हो जाता है। हे भाई! अनेकों ही भक्त जिस परमात्मा के चरण पूज रहे हैं, वह प्रभू (अपने भक्तों के) सारे मनोरथ पूरे करने वाला है।2। हे भाई! (उस परमात्मा का नाम) खाली (हृदयों) को एक छिन में (गुणों से) लबा-लब भर देता है, (आत्मिक जीवन वाले) सूखे हुओं को एक छिन में हरे कर देता है, जिसको कहीं कोई आदर-सत्कार नहीं देता, वह परमात्मा उसको एक छिन में आदर-मान बख्श देता है।3। हे भाई! सब जीवों में वह परमात्मा ही पूरे तौर पर बस रहा है। (पर उसका नाम) वह मनुष्य (ही) जपता है, जिसको पूरा गुरू (प्रेरित करता है)। हे नानक! कह-हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा स्वयं दयावान होता है उसके हृदय में परमात्मा की सिफत-सालाह आसरा बन जाती है।4।13।26। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |