श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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भैरउ महला ५ ॥ नामु हमारै अंतरजामी ॥ नामु हमारै आवै कामी ॥ रोमि रोमि रविआ हरि नामु ॥ सतिगुर पूरै कीनो दानु ॥१॥ नामु रतनु मेरै भंडार ॥ अगम अमोला अपर अपार ॥१॥ रहाउ ॥ नामु हमारै निहचल धनी ॥ नाम की महिमा सभ महि बनी ॥ नामु हमारै पूरा साहु ॥ नामु हमारै बेपरवाहु ॥२॥ नामु हमारै भोजन भाउ ॥ नामु हमारै मन का सुआउ ॥ नामु न विसरै संत प्रसादि ॥ नामु लैत अनहद पूरे नाद ॥३॥ प्रभ किरपा ते नामु नउ निधि पाई ॥ गुर किरपा ते नाम सिउ बनि आई ॥ धनवंते सेई परधान ॥ नानक जा कै नामु निधान ॥४॥१७॥३०॥ {पन्ना 1144}

पद्अर्थ: हमारै = मेरे हृदय में, मेरे वास्ते। अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। आवै कामी = काम आता है, हरेक काम सँवारता है। रोमि रोमि = हरेक रोम में। रविआ = रच रहा है। सतिगुर पूरै = पूरे गुरू ने।1।

मेरै = मेरे वास्ते, मेरे दिल में। रतनु = कीमती पदार्थ। भंडार = खजाने। अगम = अपहुँच। अमोला = जो किसी दुनियावी पदार्थ के बदले ना मिल सके। अपर अपार = बेअंत।1। रहाउ।

निहचल धनी = सदा कायम रहने वाला मालिक। महिमा = वडिआई। पूरा साहु = वह शाह जिसके घर में कोई किसी चीज़ की कमी ना हो। वेपरवाहु = बेमुथाज।2।

भाउ = प्यार। सुआउ = स्वार्थ, मांग, मनोरथ। संत प्रसादि = गुरू संत की कृपा से। अनहद नाद = एक रस बज रहे बाजे।3।

ते = से, साथ। नउनिधि = धरती के नौ ही खजाने। सिउ = साथ। सेई = वह लोग। जा कै = जिन के हृदय में। निधान = खजाना।4।

अर्थ: हे भाई! (पूरे गुरू की कृपा से) अपहुँच और बेअंत परमात्मा का कीमती नाम मेरे हृदय में आ बसा है, यह ऐसा खजाना है जो किसी कीमत से नहीं मिल सकता।1। रहाउ।

हे भाई! पूरे गुरू ने मुझे (हरी-नाम रतन का) दान दिया है, (अब) सबके दिल की जानने वाले हरी का नाम मेरे हृदय में बस रहा है, हरी-नाम मेरे सारे काम सँवार रहा है, (गुरू की कृपा से) हरी-नाम मेरे रोम-रोम में बस गया है।1।

हे भाई! अब परमात्मा का नाम ही (मेरे सिर पर) सदा कायम रहने वाला मालिक है। हरी-नाम की महिमा ही सब जीवों के अंदर शोभा दे रही है। हे भाई! अब परमात्मा का नाम ही (मेरे लिए वह) शाह है जिसके घर में कोई कमी नहीं, हरी-नाम ही (मेरे सिर पर वह) मालिक है जिसको किसी की मुथाजी नहीं।2।

हे भाई! (जब से पूरे गुरू ने मुझे नाम का दान दिया है, तब से) परमात्मा का नाम परमात्मा के नाम का प्यार ही मेरी आत्मिक खुराक बन गई है। हरी-नाम ही हर वक्त मेरे मन की मुराद हो गई है। हे भाई! गुरू-संत की कृपा से परमात्मा का नाम मुझे कभी नहीं भूलता। हे भाई! नाम जपते हुए (अंतरात्मे में ऐसा प्रतीत होता है कि) सारे संगीतमयी साज़ एक-रस बजने लग पड़े हैं।3।

हे भाई! परमात्मा की किरपा से मुझे (उसका) नाम मिल गया है (जो मेरे लिए, मानो, धरती के सारे) नौ खजाने हैं। गुरू की कृपा से मेरा प्यार परमात्मा के नाम से बन गया है।

हे नानक! जिन मनुष्यों के हृदय में नाम-खजाना (आ बसता है), वही (असल) धनाढ हैं, वही (लोक-परलोक में) सम्मानीय व्यक्ति हैं।4।17।30।

भैरउ महला ५ ॥ तू मेरा पिता तूहै मेरा माता ॥ तू मेरे जीअ प्रान सुखदाता ॥ तू मेरा ठाकुरु हउ दासु तेरा ॥ तुझ बिनु अवरु नही को मेरा ॥१॥ करि किरपा करहु प्रभ दाति ॥ तुम्हरी उसतति करउ दिन राति ॥१॥ रहाउ ॥ हम तेरे जंत तू बजावनहारा ॥ हम तेरे भिखारी दानु देहि दातारा ॥ तउ परसादि रंग रस माणे ॥ घट घट अंतरि तुमहि समाणे ॥२॥ तुम्हरी क्रिपा ते जपीऐ नाउ ॥ साधसंगि तुमरे गुण गाउ ॥ तुम्हरी दइआ ते होइ दरद बिनासु ॥ तुमरी मइआ ते कमल बिगासु ॥३॥ हउ बलिहारि जाउ गुरदेव ॥ सफल दरसनु जा की निरमल सेव ॥ दइआ करहु ठाकुर प्रभ मेरे ॥ गुण गावै नानकु नित तेरे ॥४॥१८॥३१॥ {पन्ना 1144}

पद्अर्थ: जीअ दाता = जिंद देने वाला, प्राण दाता। प्रान दाता = प्राण देने वाला। सुख दाता = सारे सुख देने वाला। ठाकुर = मालिक। हउ = मैं। अवरु को = कोई और।1।

करि = कर के। प्रभ = हे प्रभू! उसतति = सिफत सालाह। करउ = करूँ, मैं करता रहूँ।1। रहाउ।

जंत = यंत्र, साज़। भिखारी = मंगते। देहि = तू देता है। तउ परसादि = तेरी कृपा से। घट घट अंतरि = हरेक शरीर में। तुमहि = तू ही।2।

ते = से, साथ। जपीअै = जपा जा सकता है। साध संगि = गुरू की संगति में। गाउ = मैं गाता रहूँ। दरद बिनासु = दर्द का नाश। मइआ = कृपा। बिगासु = विगास, खुशियां, खेड़ा।3।

हउ = मैं। जाउ = मैं जाऊँ। सफल = फल देने वाला। निरमल = पवित्र करने वाली। प्रभ = हे प्रभू! गावै = गाता रहे।4।

अर्थ: हे प्रभू! मेहर कर के (मुझे यह) दाति बख्श (कि) मैं दिन-रात तेरी सिफत-सालाह करता रहूँ।1। रहाउ।

हे प्रभू! मेरे वास्ते तू ही पिता है, मेरे वास्ते तू ही माँ है। तू ही मुझे जिंद देने वाला है, तू ही मुझे प्राण देने वाला है, तू ही मुझे सारे सुख देने वाला है। तू मेरा मालिक है, मैं तेरा सेवक हूँ। तेरे बिना और कोई मेरा (आसरा) नहीं है।1।

हे प्रभू! हम जीव तेरे (संगीतक) साज़ हैं, तू (इन साज़ों को) बजाने वाला है। हे दातार! हम तेरे (दर के) मंगते हैं, तू हमें दान देता है। तेरी मेहर से ही हम (बेअंत) रंग-रस पा रहे हैं। हे प्रभू! हरेक शरीर में तू ही मौजूद है।2।

हे प्रभू! तेरी मेहर से ही तेरा नाम जपा जा सकता है, (मेहर कर कि) मैं साध-संगति में टिक के तेरे गुण गाता रहूँ। हे प्रभू! तेरी मेहर से (ही) मेरे हरेक दर्द का नाश होता है, तेरी मेहर से (ही) मेरा हृदय-कमल खिलता है (मुझे प्रसन्नता मिलती है)।3।

हे भाई! मैं अपने गुरू से सदा सदके जाता हूँ, उस गुरू का दर्शन मुरादें पूरी करने वाला है, उस गुरू की सेवा जीवन को पवित्र बनाती है। हे मेरे ठाकुर! हे मेरे प्रभू! मेहर कर, (तेरा दास) नानक सदा तेरे गुण गाता रहे।4।18।31।

भैरउ महला ५ ॥ सभ ते ऊच जा का दरबारु ॥ सदा सदा ता कउ जोहारु ॥ ऊचे ते ऊचा जा का थान ॥ कोटि अघा मिटहि हरि नाम ॥१॥ तिसु सरणाई सदा सुखु होइ ॥ करि किरपा जा कउ मेलै सोइ ॥१॥ रहाउ ॥ जा के करतब लखे न जाहि ॥ जा का भरवासा सभ घट माहि ॥ प्रगट भइआ साधू कै संगि ॥ भगत अराधहि अनदिनु रंगि ॥२॥ देदे तोटि नही भंडार ॥ खिन महि थापि उथापनहार ॥ जा का हुकमु न मेटै कोइ ॥ सिरि पातिसाहा साचा सोइ ॥३॥ जिस की ओट तिसै की आसा ॥ दुखु सुखु हमरा तिस ही पासा ॥ राखि लीनो सभु जन का पड़दा ॥ नानकु तिस की उसतति करदा ॥४॥१९॥३२॥ {पन्ना 1144}

पद्अर्थ: सभ ते = सब (पातिशाहियों के दरबारों) से। जा का = जिस (प्रभू पातशाह) का। ता कउ = उसको। जोहारु = नमस्कार। कोटि = करोड़ों। अघा = पाप। मिटहि = मिट जाते हैं (बहुवचन)।

सरणाई = शरण पड़े को। जा कउ = जिस (मनुष्य) को। सोइ = वह (प्रभू आप) ही।1। रहाउ।

लखे न जाहि = समझे नहीं जा सकते। भरवासा = सहारा। घट = हृदय। साधू कै संगि = गुरू की संगति में। अराधहि = आराधते हैं, जपते हैं। अनदिनु = हर रोज़, हर वक्त। रंगि = प्रेम से।2।

देदे = देते हुए। तोटि = कमी, घाटा। थापि = पैदा कर के। उथापनहारा = नाश कर सकने वाला। न मेटै = मोड़ नहीं सकता। सिरि पातिशाहा = (सारे) बातशाहों के सिर पर। साचा = सदा कायम रहने वाला।3।

जिस की: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'की' के कारण हटा दी गई है। तिस ही: 'तिसि' की 'सि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

सभु = सारा, हर जगह।4।

अर्थ: हे भाई! वह प्रभू स्वयं ही मेहर कर के जिस मनुष्य को अपने चरणों में जोड़ता है, उस (प्रभू) की शरण में (रह के) उसको सदा आनंद बना रहता है।1। रहाउ।

हे भाई! जिस (परमात्मा) का दरबार सब (पातिशाहियों के दरबारों) से ऊँचा है, उस (प्रभू-पातशाह) को सदा ही सदा नमस्कार करनी चाहिए। हे भाई! जिस प्रभू-पातशाह का महल ऊँचे से ऊँचा है, उस हरी-पातिशाह के नाम की बरकति से करोड़ों पाप खत्म हो जाते हैं।1।

हे भाई! जिस प्रभू-पातशाह के चोज-तमाशे समझे नहीं जा सकते, जिस परमात्मा का सहारा हरेक जीव के हृदय में है, वह प्रभू-पातशाह गुरू की संगति में रहने से (मनुष्य के हृदय में) प्रकट हो जाता है। उस के भगत हर वक्त प्रेम से उसका नाम जपते रहते हैं।2।

हे भाई! (दुनिया के) पातिशाहों के सिर पर सदा कायम रहने वाला (पातिशाह) वह (परमात्मा) ही है, (जीवों को बेअंत दातें) देते हुए भी (उसके) खजानों में कभी कोई कमी नहीं आती, वह एक छिन में पैदा करके नाश करने की समर्था रखता है। हे भाई! कोई भी जीव उसका हुकम मोड़ नहीं सकता।3।

हे भाई! (दुखों से बचने के लिए हम जीवों को) जिस (परमात्मा) का आसरा है, (सुखों की प्राप्ति के लिए भी) उसी की (सहायता की) आस है। हे भाई! दुख (से बचने के लिए, और) सुख (की प्राप्ति के लिए) हम जीवों की उसके पास ही (सदा अरदास) है। हे भाई! अपने सेवक की इज्जत परमात्मा हर जगह रख लेता है, नानक उस की (ही सदा) सिफत-सालाह करता है।4।19।32।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh