श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1145 भैरउ महला ५ ॥ रोवनहारी रोजु बनाइआ ॥ बलन बरतन कउ सनबंधु चिति आइआ ॥ बूझि बैरागु करे जे कोइ ॥ जनम मरण फिरि सोगु न होइ ॥१॥ बिखिआ का सभु धंधु पसारु ॥ विरलै कीनो नाम अधारु ॥१॥ रहाउ ॥ त्रिबिधि माइआ रही बिआपि ॥ जो लपटानो तिसु दूख संताप ॥ सुखु नाही बिनु नाम धिआए ॥ नाम निधानु बडभागी पाए ॥२॥ स्वांगी सिउ जो मनु रीझावै ॥ स्वागि उतारिऐ फिरि पछुतावै ॥ मेघ की छाइआ जैसे बरतनहार ॥ तैसो परपंचु मोह बिकार ॥३॥ एक वसतु जे पावै कोइ ॥ पूरन काजु ताही का होइ ॥ गुर प्रसादि जिनि पाइआ नामु ॥ नानक आइआ सो परवानु ॥४॥२०॥३३॥ {पन्ना 1145} पद्अर्थ: रोजु = हर रोज का नियम। बलन = व्यवहार। बलन बरतन कउ = वरतण व्यवहार की खातिर। चिति = चिक्त में। बूझि = (जगत के संबंध को) समझ के। कोइ = कोई मनुष्य। बैरागु = निर्मोहता। सोगु = ग़म।1। बिखिआ = माया। धंधु = धंधा, दुनियादारी। अधारु = आसरा।1। रहाउ। त्रिबिधि = तीनगुणों वाली। रही बिआपि = (अपना) जोर डाल रही है। लपटानो = चिपकता है। संताप = (अनेकों) कलेश। निधानु = खजाना।2। सिउ = साथ। रीझावै = रिझाता है, परचाता है। स्वागि उतारिअै = जब स्वांग उतार दिया जाता है। मेघ = बादल। परपंचु = जगत पसारा।3। वसतु = नाम पदार्थ। ताही का = उसी का। प्रसादि = कृपा से। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। आइआ = जगत में पैदा हुआ।4। अर्थ: हे भाई! (जगत में) माया का ही सारा धंधा है, माया का ही सारा पसारा है। किसी विरले मनुष्य ने (माया का आसरा छोड़ के) परमात्मा के नाम का आसरा लिया है।1। रहाउ। हे भाई! (किसी संबंधी के मरने से मायावी संबंधों के कारण ही) रोने वाली स्त्री (रोनेको) हर रोज नियम बनाए रखती है (क्योंकि उसको विछुड़े हुए संबंधी के साथ) वरतण-व्यवहार का संबंध याद आता रहता है। पर, अगर कोई प्राणी (यह) समझ के (कि ये मायावी संबंध सदा कायम नहीं रह सकते अपने अंदर) निर्मोहता पैदा कर ले, तो उसको (किसी के) जनम (की खुशी, और, किसी के) मरने का ग़म नहीं व्यापता।1। हे भाई! यह त्रैगुणी माया (सारे जीवों पर अपना) जोर डाल रही है। जो मनुष्य (इस माया के साथ) चिपका रहता है, उसको (अनेकों) कलेश व्यापते रहते हैं। हे भाई! परमात्मा का नाम सिमरे बिना सुख हासिल नहीं होसकता। कोई विरला भाग्यशाली मनुष्य ही नाम-खजाना हासिल करता है।2। हे भाई! जो मनुष्य किसी स्वांगधारी (बहरूपिए, भेष करके दिखावा करने वाले) के साथ प्यार डाल लेता है, जब वह स्वांग उतार दिया जाता है तब वह (प्यार डालने वाला अस्लियत देख के) पछताता है। हे भाई! जैसे बादलों की छाया (को ठहरी हुई छाया समझ के उसका) उपयोग करना है, वैसे ही यह जगत-पसारा मोह आदि विकारों का मूल है।3। हे भाई! अगर कोई मनुष्य परमात्मा का नाम खजाना हासिल कर ले, उसी का ही (जीवन का असल) काम सफल होता है। हे नानक! जगत में पैदा हुआ वही मनुष्य (लोक-परलोक में) कबूल होता है जिसने गुरू की कृपा से परमात्मा का नाम हासिल कर लिया है।4।20।33। भैरउ महला ५ ॥ संत की निंदा जोनी भवना ॥ संत की निंदा रोगी करना ॥ संत की निंदा दूख सहाम ॥ डानु दैत निंदक कउ जाम ॥१॥ संतसंगि करहि जो बादु ॥ तिन निंदक नाही किछु सादु ॥१॥ रहाउ ॥ भगत की निंदा कंधु छेदावै ॥ भगत की निंदा नरकु भुंचावै ॥ भगत की निंदा गरभ महि गलै ॥ भगत की निंदा राज ते टलै ॥२॥ निंदक की गति कतहू नाहि ॥ आपि बीजि आपे ही खाहि ॥ चोर जार जूआर ते बुरा ॥ अणहोदा भारु निंदकि सिरि धरा ॥३॥ पारब्रहम के भगत निरवैर ॥ सो निसतरै जो पूजै पैर ॥ आदि पुरखि निंदकु भोलाइआ ॥ नानक किरतु न जाइ मिटाइआ ॥४॥२१॥३४॥ {पन्ना 1145} पद्अर्थ: निंदा = आचरण पर दूषण लगाने। सहाम = सहने पड़ते हैं। डानु = दण्ड, सजा। जाम = जमराज।1। संगि = साथ। करहि = करते हैं (बहुवचन)। बादु = झगड़ा। सादु = स्वाद, आनंद।1। रहाउ। कंधु = शरीर। छेदावै = (विकारों से) परो देती है। भुंचावै = भोगाती है। गरभ महि = अनेकों जूनियों में। राज ते = ऊँची आत्मिक पदवी से। टलै = नीचे गिर जाता है।2। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। खाइ = खाता है, फल पाता है। ते = से। जार = व्यभचारी। अणहोदा भारु = उन विकारों का भार जो पहले उसके अपने अंदर नहीं थे। निंदकि = निंदा करने वाले ने। सिरि = सिर पर।3। निरवैर = किसी के साथ भी वैर ना करने वाले। निसतरै = संसार समुंद्र से पार लांघ जाता है (एक वचन)। पैर = (भक्तों के) पैर। आदि पुरखि = आदि पुरख ने। भोलाइआ = भुलाया, गलत राह पर डाल दिया। किरतु = किया हुआ काम, किए हुए कर्मों के संस्कारों का समूह।4। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के भक्त के साथ झगड़ा खड़ा किए रखते हैं, उन निंदकों को जीवन का कोई आत्मिक आनंद नहीं आता।1। रहाउ। हे भाई! किसी गुरमुख के आचरण पर बेवजही दूषण लगाने से मनुष्य कई जूनियों में भटकता फिरता है, क्योंकि वह मनुष्य उन दुष्टों का जिकर करता-करता खुद ही अपने आप को उन दुष्टों का शिकार बना लेता है, (इसका नतीजा यह निकलता है कि यहाँ जगत में वह मनुष्य उस) निंदा के कारण (कई आत्मिक) दुख सहता रहता है (और आगे परलोक में भी) निंदक को जमराज सजा देता है।1। हे भाई! किसी गुरमुख पर कीचड़ उछालने से मनुष्य अपने ही शरीर को उन दूषणों से परो लेता है (इस तरह) गुरमुख की निंदा (निंदा करने वाले को) नर्क (का दुख) भोगाती है, उस निंदा करने के कारण मनुष्य अनेकों जूनियों में गलता फिरता है, और उच्च आत्मिक पदवी से नीचे गिर जाता है।2। हे भाई! दूसरों पर सदा कीचड़ फेंकने वाले मनुष्य की अपनी ऊँची आत्मिक अवस्था कभी भी नहीं बनती (इस तरह निंदक, निंदा का यह बुरा बीज) बीज के खुद ही उसका फल खाता है। हे भाई! निंदा करने वाला मनुष्य चोर से, व्यभचारी से जुआरी से भी बुरा साबित होता है, क्योंकि निंदक ने अपने सिर पर सदा उन विकारों का भार उठाया होता है जो पहले उसके अंदर नहीं थे।3। हे भाई! परमात्मा के भक्त किसी के साथ भी वैर नहीं रखते। जो भी मनुष्य उनकी शरण आता है वह संसार-समुंद्र से पार लांघ जाता है। (पर, निंदक के भी क्या वश?) परमात्मा ने खुद ही निंदक को गलत राह पर डाल रखा है। हे नानक! पिछले अनेकों जन्मों के किए हुए निंदा के कर्मों के संस्कारों का ढेर उसके अपने प्रयासों से मिटाया नहीं जा सकता।4।21।34। भैरउ महला ५ ॥ नामु हमारै बेद अरु नाद ॥ नामु हमारै पूरे काज ॥ नामु हमारै पूजा देव ॥ नामु हमारै गुर की सेव ॥१॥ गुरि पूरै द्रिड़िओ हरि नामु ॥ सभ ते ऊतमु हरि हरि कामु ॥१॥ रहाउ ॥ नामु हमारै मजन इसनानु ॥ नामु हमारै पूरन दानु ॥ नामु लैत ते सगल पवीत ॥ नामु जपत मेरे भाई मीत ॥२॥ नामु हमारै सउण संजोग ॥ नामु हमारै त्रिपति सुभोग ॥ नामु हमारै सगल आचार ॥ नामु हमारै निरमल बिउहार ॥३॥ जा कै मनि वसिआ प्रभु एकु ॥ सगल जना की हरि हरि टेक ॥ मनि तनि नानक हरि गुण गाउ ॥ साधसंगि जिसु देवै नाउ ॥४॥२२॥३५॥ {पन्ना 1145} पद्अर्थ: हमारै = हमारे लिए, मेरे लिए। बेद = वेद (शास्त्र आदि की चर्चा)। नाद = (जोगियों के सिंगी आदि) बजाने। अरु = और (अरि = वैरी)। पूजा देव = देव पूजा।1। गुरि पूरै = पूरे गुरू ने। द्रिढ़िओ = (मेरे दिल में) पक्का कर दिया है। ते = से।1। रहाउ। मजन = स्नान। ते = वह लोग (बहुवचन)। सगल = सारे। पवीत = अच्छे आचरण वाले।2। सउण = सगन (बिचारने)। संजोग = नक्षत्रोंका मेल विचारना, महूरत बिचारने। त्रिपति = तृप्ति। सुभोग = स्वादिष्ट भोगों की। आचार = कर्मकाण्ड, तीर्थयात्रा आदि मिथे हुए धर्म कर्म। बिउहारु = कार्य व्यवहार।3। जा कै मनि = जिस (मनुष्य) के मन में। टेक = आसरा। मनि = मन में। तनि = तन में, शरीर में। गुण गाउ = सिफत सालाह, गुणों का गायन। साध संगि = साध-संगति में।4। अर्थ: हे भाई! पूरे गुरू ने (मेरे हृदय में) परमात्मा का नाम पक्का कर दिया है (अब मुझे निश्चय हो गया है कि) सब कामों से श्रेष्ठ काम परमात्मा के नाम का सिमरन है।1। रहाउ। हे भाई! (जब सेगुरू नेमेरे अंदर हरी-नाम दृढ़ किया है, तब से) परमात्मा का नाम ही मेरे लिए वेद (शास्त्र आदि की चर्चा है) और (जोगियों की सिंज्ञी आदि) बजाना हो चुका है। परमात्मा का नाम मेरे सारे काम सफल करता है, यह हरी-नाम ही मेरेवास्ते देव-पूजा है, हरी-नाम सिमरना ही मेरे लिए गुरू की सेवा भक्ति (करने के बराबर) है।1। हे भाई! (गुरू ने मेरे हृदय में नाम दृढ़ कर दिया है, अब) हरी-नाम जपना ही मेरेलिए पर्वों के समय तीर्थ-स्नान है, (तीर्थों पर जा कर) सब कुछ (ब्राहमणों को) दान कर देना- यह भी मेरे लिए नाम-सिमरन ही है। हे भाई! जो मनुष्य नाम जपते हैं, वे सारे स्वच्छ आचरण वाले बन जाते हैं, नाम जपने वाले ही मेरे भाई हैं मेरे मित्र हैं।2। हे भाई! (कार्य-व्यवहारों की सफलता के लिए लोग) शगन (बिचारते हैं) महूरत (निकलवाते हैं), पर मेरे लिए तो हरी-नाम ही सब कुछ है। दुनिया के स्वादिष्ट पदार्थों को खा-खा के तृप्त होना - (यह सारा स्वाद) मेरे लिए हरी-नाम का सिमरन है। हे भाई! (तीर्थ-यात्रा आदि मिथे हुए) सारे धर्म-कर्म मेरे वास्ते परमात्मा का नाम ही है। यही है मेरे लिए पवित्र कार्य-व्यवहार।3। हे भाई! परमात्मा (का नाम) ही सारे जीवों का सहारा है। हे नानक! जिस मनुष्य के मन में सिर्फ परमात्मा आ बसा है जो मनुष्य मन से शरीर से प्रभू की सिफत सालाह करता रहता है (वह भाग्यशाली है, पर यह काम वही मनुष्य करता है) जिसको परमात्मा साध-संगति में रख के अपने नाम की दाति देता है।4।22।35। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |