श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1147 भैरउ महला ५ ॥ तेरी टेक रहा कलि माहि ॥ तेरी टेक तेरे गुण गाहि ॥ तेरी टेक न पोहै कालु ॥ तेरी टेक बिनसै जंजालु ॥१॥ दीन दुनीआ तेरी टेक ॥ सभ महि रविआ साहिबु एक ॥१॥ रहाउ ॥ तेरी टेक करउ आनंद ॥ तेरी टेक जपउ गुर मंत ॥ तेरी टेक तरीऐ भउ सागरु ॥ राखणहारु पूरा सुख सागरु ॥२॥ तेरी टेक नाही भउ कोइ ॥ अंतरजामी साचा सोइ ॥ तेरी टेक तेरा मनि ताणु ॥ ईहां ऊहां तू दीबाणु ॥३॥ तेरी टेक तेरा भरवासा ॥ सगल धिआवहि प्रभ गुणतासा ॥ जपि जपि अनदु करहि तेरे दासा ॥ सिमरि नानक साचे गुणतासा ॥४॥२६॥३९॥ {पन्ना 1147} पद्अर्थ: टेक = आसरे। रहा = मैं रहता हॅँ। कलि माहि = विकारों भरे जगत में। (नोट: किसी खास 'युग' का वर्णन नहीं है। साधारण तौर पर उसी समय का नाम ले दिया है जिसका नाम 'कलिजुग' पड़ा हुआ है)। गाहि = (जो मनुष्य) गाते हैं। कालु = मौत, आत्मिक मौत। जंजाल = माया के मोह का फंदा।1। दीन दुनीआ = परलोक में और इस लोक में। सभ महि = सारी सृष्टि में। रविआ = व्यापक है। साहिबु = मालिक प्रभू।1। रहाउ। करउ = मैं करता हूँ, मैं जानता हूँ। जपउ = मैं जपता हूँ। तरीअै = पार लांघा जाता है। भउ सागरु = संसार समुंद्र। राखणहारु = रक्षा कर सकने वाला।2। भरवासा = सहारा। धिआवहि = सिमरते हैं (बहुवचन)। गुणतासा = गुणों का खजाना। जपि = जप के। करहि = करते हैं।4। अर्थ: हे प्रभू! इस लोक में और परलोक में (हम जीवों को) तेरा ही सहारा है। हे भाई! सारी सृष्टि में मालिक प्रभू ही व्यापक है।1। रहाउ। हे प्रभू! इस विकार भरे जगत में मैं तेरे आसरे ही जीवित हूँ। हे प्रभू! (सब जीव) तेरे ही सहारे हैं, तेरे ही गुण गाते हैं। हे प्रभू!जिस मनुष्य को तेरा आसरा है उस पर आत्मिक मौत अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। तेरे आसरे (मनुष्य की) माया के मोह का फंदा टूट जाता है।1। हे प्रभू! मैं तेरे नाम का आसरा ले के ही आत्मिक आनंद पाता हूँ और गुरू का दिया हुआ तेरा नाम-मंत्र जपता रहता हूँ। हे प्रभू!तेरे (नाम के) सहारे संसार-समुंद्र से पार लांघ जाया जाता है, तू सबकी रक्षा करने के समर्थ है, तू सारे सुखों का (मानो) समुंद्र है।2। हे प्रभू! जिस को तेरे नाम का आसरा है उसको कोई डर व्याप नहीं सकता। हे भाई! वह सदा कायम रहने वाला प्रभू ही सब के दिल की जानने वाला है। हे प्रभू! सब जीवों को तेरा ही आसरा है, सबके मन में तेरे नाम का ही सहारा है। इस लोक में और परलोक में तू ही जीवों का आसरा है।3। हे गुणों के खजाने प्रभू! (हम जीवों को) तेरी ही टेक है तेरा ही आसरा है, सब जीव तेरा ही ध्यान धरते हैं, तेरे दास तेरा नाम जप-जप के आत्मिक आनंद पाते हैं। हे नानक! (तू भी) सदा कायम रहने वाले और गुणों के खजाने प्रभू का नाम सिमरा कर।4।26।39। भैरउ महला ५ ॥ प्रथमे छोडी पराई निंदा ॥ उतरि गई सभ मन की चिंदा ॥ लोभु मोहु सभु कीनो दूरि ॥ परम बैसनो प्रभ पेखि हजूरि ॥१॥ ऐसो तिआगी विरला कोइ ॥ हरि हरि नामु जपै जनु सोइ ॥१॥ रहाउ ॥ अह्मबुधि का छोडिआ संगु ॥ काम क्रोध का उतरिआ रंगु ॥ नाम धिआए हरि हरि हरे ॥ साध जना कै संगि निसतरे ॥२॥ बैरी मीत होए समान ॥ सरब महि पूरन भगवान ॥ प्रभ की आगिआ मानि सुखु पाइआ ॥ गुरि पूरै हरि नामु द्रिड़ाइआ ॥३॥ करि किरपा जिसु राखै आपि ॥ सोई भगतु जपै नाम जाप ॥ मनि प्रगासु गुर ते मति लई ॥ कहु नानक ता की पूरी पई ॥४॥२७॥४०॥ {पन्ना 1147} पद्अर्थ: प्रथमे = सबसे पहले। चिंदा = चिंता। सभु = सारे का सारा। परम = सबसे ऊँचा। बैसनो = विष्णू का भक्त, पवित्र जीवन वाला भगत। पेखि = देख के। हजूरि = अंग संग।1। अैसो = ऐसा। जनु सोइ = वही मनुष्य।1। रहाउ। अहंबुधि = अहंकार। संगु = साथ। रंगु = प्रभाव। धिआवे = ध्याता है। संगि = साथ।2। संमान = एक जैसे, मित्रों जैसे ही। पूरन = व्यापक। आगिआ = रजा। मानि = मान के, मीठी जान के। गुरि पूरै = पूरे गुरू ने। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का कर दिया।3। करि = कर के। मनि = मन में। प्रगासु = प्रकाश, आत्मिक जीवन की सूझ का प्रकाश। ते = से। मति = शिक्षा। ता की = उस मनुष्य की। पूरी पई = सफलता हो गई।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा को अंग-संग बसता देख के (मनुष्य) सबसे ऊँचा वैश्णव बन जाता है, (वह मनुष्य बाहर की स्वच्छता की जगह अंदर कीपवित्रता कायम रख सकने के लिए) सबसे पहले दूसरों के ऐब ढूँढने छोड़ देता है (इस तरह उसके अपने) मन की सारी चिंता उतर जाती है (मन से विकारों का चिंतन उतर जाता है), वह मनुष्य (अपने अंदर से) लोभ और मोह सारे का सारा दूर कर देता है।1। हे भाई! (इस तरह का वैश्णव ही असल त्यागी है, पर) ऐसा त्यागी (जगत में) कोई विरला मनुष्य ही होता है, वही मनुष्य (सही अर्थों में) परमात्मा का नाम जपता है।1। रहाउ। हे भाई! (जो मनुष्य परमात्मा हाज़र-नाज़र देख के असल वैश्णव बन जाता है, वह) अहंकार का साथ छोड़ देता है, (उसके मन से) काम और क्रोध का असर दूर हो जाता है, वह मनुष्य सदा परमात्मा का नाम सिमरता है। हे भाई! ऐसे मनुष्य साध-संगति में रह के संसार-समुंद्र से पार लांघ जाते हैं।2। हे भाई! पूरे गुरू ने जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम पक्के तौर पर टिका दिया, उसने परमात्मा की रजा को मीठा जान के सदा आत्मिक आनंद पाया है, उसको भगवान सब जीवों में व्यापक दिखाई देता है, इस वास्ते उसको वैरी और मित्र एक समान (मित्र ही) दिखाई देते हैं।3। हे भाई! परमात्मा अपनी मेहर करके जिस मनुष्य की स्वयं रक्षा करता है, वही है असल भगत, वही उस के नाम का जाप जपता है। हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरू से (जीवन-जुगति की) शिक्षा ले ली उसके मन में (आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश हो गया। हे नानक! कह- उस मनुष्य का जीवन सफल हो गया।4।27।40। भैरउ महला ५ ॥ सुखु नाही बहुतै धनि खाटे ॥ सुखु नाही पेखे निरति नाटे ॥ सुखु नाही बहु देस कमाए ॥ सरब सुखा हरि हरि गुण गाए ॥१॥ सूख सहज आनंद लहहु ॥ साधसंगति पाईऐ वडभागी गुरमुखि हरि हरि नामु कहहु ॥१॥ रहाउ ॥ बंधन मात पिता सुत बनिता ॥ बंधन करम धरम हउ करता ॥ बंधन काटनहारु मनि वसै ॥ तउ सुखु पावै निज घरि बसै ॥२॥ सभि जाचिक प्रभ देवनहार ॥ गुण निधान बेअंत अपार ॥ जिस नो करमु करे प्रभु अपना ॥ हरि हरि नामु तिनै जनि जपना ॥३॥ गुर अपने आगै अरदासि ॥ करि किरपा पुरख गुणतासि ॥ कहु नानक तुमरी सरणाई ॥ जिउ भावै तिउ रखहु गुसाई ॥४॥२८॥४१॥ {पन्ना 1147} पद्अर्थ: धनि खाटे = अगर धन कमाया जाए। बहुतै धनि खाटे = बहुता धन कमाने से। पेखे = देखने से। निरति = नाच। नाटे = नाटक। कमाऐ = कमाने से, कब्जा कर लेने से। सरब = सारे। गाऐ = गाने से।1। सहज = आत्मिक अडोलता। पाईअै = पा सकते हैं। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर।1। रहाउ। मात = माँ। सुत = पुत्र। बनिता = स्त्री। बंधन = माया के मोह के फंदे। करम धरम = मिथे हुए धार्मिक कर्म (तीर्थ, व्रत नेम आदि)। हउ = मैं, अहम्, अहंकार। काटनहार = काट सकने वाला प्रभू। मनि = मन में। तउ = तब। निज घरि = अपने असल घर में, प्रभू चरणों में।2। सभि = सारे। जाचिक = मंगते (बहुवचन)। देवनहार = सब कुछ दे सकने वाला। निधानु = खजाना। करमु = मेहर, बख्शिश। तिनै जनि = उसी जन ने, उसी मनुष्य ने।3। जिस नो: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है। पुरख गुणतासि = हे गुणों के खजाने अकाल पुरख! नानक = हे नानक! गुसाई = हे सृष्टि के मालिक!।4। अर्थ: हे भाई! (साध-संगति में) गुरू की शरण पड़ कर सदा परमात्मा का नाम जपो, (और, इस तरह) आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद पाओ। पर, हे भाई! बड़ी किस्मत से ही साध-संगति मिलती है।1। रहाउ। हे भाई! बहुत धन कमाने से (आत्मिक) आनंद नहीं मिलता, नाटकों के नाच देखने से भी आत्मिक आनंद प्राप्त नहीं होता। हे भाई! बहुत सारे देशों को जीत लेने से भी सुख नहीं मिलता। पर, हे भाई! परमात्मा की सिफतसालाह करने से सारे सुख प्राप्त हो जाते हैं।1। हे भाई! माता, पिता, पुत्र, स्त्री (आदि सम्बंधी) माया के मोह के फंदे डालते हैं। (तीर्थ आदि मिथे हुए) धार्मिक कर्म भी फंदे पैदा करते हैं (क्योंकि इनके कारण मनुष्य) अहंकार करता है (कि मैंने तीर्थ यात्रा आदि कर्म किए हैं)। पर जब ये फंदे काट सकने वाला परमात्मा (मनुष्य के) मन में आ बसता है तब (माता-पिता-पुत्र-स्त्री आदि सम्बंधियों में रहते हुए ही) आत्मिक आनंद पाता है (क्योंकि तब मनुष्य) परमात्मा के चरणों में जुड़ा रहता है।2। हे भाई! सारे जीव सब कुछ दे सकने वाले प्रभू (के दर) के (ही) मंगते हैं, वह परमात्मा सारे गुणों का खजाना है, बेअंत है, उसकी हस्ती का परला छोर नहीं पाया जा सकता। हे भाई! जिस मनुष्य पर प्यारा प्रभू बख्शिश करता है, उसी ही मनुष्य ने सदा परमात्मा का नाम जपा है।3। हे नानक! अपने गुरू के दर पे (सदा) अरजोई किया कर, और, कहता रह- हे सृष्टि के मालिक! हे गुणों के खजाने अकाल पुरख! मैं तेरी शरण आया हूँ, मेहर कर के जैसे तेरी रज़ा है वैसे मुझे (अपने चरणों में) रख।4।28।41। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |