श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1148

भैरउ महला ५ ॥ गुर मिलि तिआगिओ दूजा भाउ ॥ गुरमुखि जपिओ हरि का नाउ ॥ बिसरी चिंत नामि रंगु लागा ॥ जनम जनम का सोइआ जागा ॥१॥ करि किरपा अपनी सेवा लाए ॥ साधू संगि सरब सुख पाए ॥१॥ रहाउ ॥ रोग दोख गुर सबदि निवारे ॥ नाम अउखधु मन भीतरि सारे ॥ गुर भेटत मनि भइआ अनंद ॥ सरब निधान नाम भगवंत ॥२॥ जनम मरण की मिटी जम त्रास ॥ साधसंगति ऊंध कमल बिगास ॥ गुण गावत निहचलु बिस्राम ॥ पूरन होए सगले काम ॥३॥ दुलभ देह आई परवानु ॥ सफल होई जपि हरि हरि नामु ॥ कहु नानक प्रभि किरपा करी ॥ सासि गिरासि जपउ हरि हरी ॥४॥२९॥४२॥ {पन्ना 1148}

पद्अर्थ: गुर मिलि = गुरू को मिल के। भाउ = प्यार। दूजा भाउ = (परमात्मा के बिना) अन्य प्यार, माया का मोह। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के। नामि = नाममें। रंगु = प्रेम। जनम जनम का = अनेकों जनमों का।1।

करि = कर के। साधू संगि = गुरू की संगति में।1। रहाउ।

गुर सबदि = गुरू के शबद से। निवारे = दूर कर लिए। अउखधु = दवाई। भीतरि = में। सारे = सम्भालता है, संभाल के रखता है। गुर भेटत = गुरू को मिलते हुए। मनि = मन में। सरब = सारे। निधन = खजाने। दोख = ऐब, विकार।2।

जम त्रास = जमराज का सहम। त्रास = डर, सहम। ऊंध = उल्टा हुआ, माया की तरफ परता हुआ। बिगास = खेड़ा, खिलाव। गावत = गाते हुए। निहचलु = (माया के हमलों से) अडोल। बिस्राम = ठिकाना। काम = काम।3।

दुलभ = बड़ी मुश्किल से मिलने वाली। देह = काया, मनुष्य शरीर। आईपरवानु = कबूल हो गई। जपि = जप के। नानक = हे नानक! प्रभि = प्रभू ने। सासि = हरेक सांस के साथ। गिरासि = हरेक ग्रास के साथ। जपउ = मैं जपता हूँ।4।

अर्थ: हे भाई! मेहर करके परमात्मा (जिस मनुष्य को) अपनी सेवा-भक्ति में जोड़ता है, वह मनुष्य संगत में टिक के सारे आत्मिक आनंद पाता है।1। रहाउ।

हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरू को मिल के (अपने अंदर से) माया का मोह छोड़ दिया, जिस मनुष्य ने गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम जपना शुरू कर दिया, (उसके मन की) चिंता समाप्त हो गई, परमात्मा के नाम में उसका प्यार बन गया, अनेकों जन्मों के माया के मोह की नींद में सोया हुआ अब वह जाग गया (उसको जीवन-जुगति की समझ आ गई)।1।

हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरू को मिल के (अपने मन में से) रोग और विकार दूर कर लिए, जो मनुष्य नाम-दारू अपने मन में संभाल के रखता है, गुरू को मिल के उसके मन में आनंद बन आता है। हे भाई! भगवान का नाम सारे सुखों का खजाना है।2।

हे भाई! (मेहर करके प्रभू जिस मनुष्य को अपनी सेवा-भगती में जोड़ता है, उसके मन में से) जनम-मरण के चक्करों का सहम जम-राज का डर मिट जाता है, साध-संगति की बरकति से उसका (पहले माया केमोह की ओर) उल्टा हुआ कमल-हृदय खिल उठता है। परमात्मा के गुण गाते हुए (उसको वह आत्मिक) ठिकाना (मिल जाता है जो माया के हमलों के मुकाबले पर) अडोल रहता है, उसके सारे काम सफल हो जाते हैं।3।

हे भाई! (मेहर करके प्रभू जिस मनुष्य को अपनी सेवा-भगती में जोड़ता है) परमात्मा का नाम सदा जपके उस का यह दुर्लभ शरीर (लोक-परलोक में) कबूल हो जाता है।

हे नानक! कह- (हे भाई!) प्रभू ने (मेरे पर) मेहर की है, मैं भी हरेक सांस के साथ हरेक ग्रास के साथ उसका नाम जप रहा हॅूँ।4।29।42।

भैरउ महला ५ ॥ सभ ते ऊचा जा का नाउ ॥ सदा सदा ता के गुण गाउ ॥ जिसु सिमरत सगला दुखु जाइ ॥ सरब सूख वसहि मनि आइ ॥१॥ सिमरि मना तू साचा सोइ ॥ हलति पलति तुमरी गति होइ ॥१॥ रहाउ ॥ पुरख निरंजन सिरजनहार ॥ जीअ जंत देवै आहार ॥ कोटि खते खिन बखसनहार ॥ भगति भाइ सदा निसतार ॥२॥ साचा धनु साची वडिआई ॥ गुर पूरे ते निहचल मति पाई ॥ करि किरपा जिसु राखनहारा ॥ ता का सगल मिटै अंधिआरा ॥३॥ पारब्रहम सिउ लागो धिआन ॥ पूरन पूरि रहिओ निरबान ॥ भ्रम भउ मेटि मिले गोपाल ॥ नानक कउ गुर भए दइआल ॥४॥३०॥४३॥ {पन्ना 1148}

पद्अर्थ: ते = से। जा का = जिस (परमात्मा) का। नाउ = नाम, वडिआई, महिमा। ता के = उस (प्रभू) के। गाउ = गाया कर। सिमरत = सिमरते हुए। सगला = सारा। सरब सूख = सारे सुख (बहुवचन)। वसहि = आ बसते हैं (बहुवचन)। मनि = मनमें। आइ = आ के।1।

मना = हे मन! साचा = सदा कायम रहने वाला। सोइ = वह (प्रभू) ही। हलति = (अत्र) इस लोक में। पलति = (परत्र) परलोक में। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।1। रहाउ।

पुरख = सर्व व्यापक। निरंजन = (निर+अंजन) (माया के मोह की) कालख से रहित। आहार = खुराक़। कोटि = करोड़ों। खते = पाप (बहुवचन)। भाइ = प्यार में। (भाउ = प्यार)। निसतार = पार लंघाने वाला।2।

साची = सदा कायम रहनेवाली। वडिआई = इज्जत। ते = से। निहचल = (विकारों की तरफ) ना डोलने वाली। पाई = प्राप्त कर ली। करि = कर के। ता का = उस (मनुष्य) का। अंधिआरा = (माया के मोह वाला) अंधेरा।3।

सिउ = साथ। निरबान = वासना रहित। भ्रम = भटकना। मेटि = मिटा के, दूर कर के। नानक कउ = हे नानक! जिस को। दइआल = दयावान।4।

अर्थ: हे (मेरे) मन! तू उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा को ही सिमरा कर (सिमरन की बरकति से) इस लोक में और परलोक में तेरी ऊँची आत्मिक अवस्था बनी रहेगी।1। रहाउ।

हे भाई! जिस परमात्मा की वडिआई सबसे ऊँची है, जिसका सिमरन करते हुए सारे दुख दूर हो जाते हैं और सारे आनंद मन में आ बसते हैं, तू सदा ही उसके गुण गाया कर।1।

हे मन! (तू सदा उस सदा-स्थिर प्रभूका सिमरन किया कर) जो सर्व-व्यापक है, जो माया के मोह की कालिख़ से रहित है, जो सबको पैदा करने वाला है, जो सब जीवों को खाने के लिए ख़ुराक देता है, जो (जीवों के) करोड़ों पाप एक छिन में बख्श सकने वाला है, जो उन जीवों को सदा संसार-समुंद्र से पार लंघा देता है जो प्रेम में टिक के उसकी भक्ति करते हैं।2।

हे भाई! जिस मनुष्य ने पूरे गुरू से विकारों से अडोल रहने वाली सिमरन की मति प्राप्त कर ली, उसको सदा कायम रहने वाला नाम-धन मिल गया, उसको सदा-स्थिर रहने वाली (लोक-परलोक की) शोभा मिल गई। हे भाई! रक्षा करने वाला प्रभू जिस मनुष्य को मेहर कर के (सिमरन की दाति देता है) उसके अंदर से माया के मोह का सारा अंधेरा दूर हो जाता है।3।

हे नानक! जिस मनुष्य पर सतिगुरू जी दयावान होते हैं, उसकी सुरति परमात्मा के चरणों में जुड़ी रहती है, उसको वासना-रहित प्रभू हर जगह बसता दिखाई देता है (व्यापक दिखता है), वह मनुष्य (अपने अंदर से) हरेक किस्म की भटकना और डर मिटा के सृष्टि के पालक प्रभू को मिल जाता है।4।30।43।

भैरउ महला ५ ॥ जिसु सिमरत मनि होइ प्रगासु ॥ मिटहि कलेस सुख सहजि निवासु ॥ तिसहि परापति जिसु प्रभु देइ ॥ पूरे गुर की पाए सेव ॥१॥ सरब सुखा प्रभ तेरो नाउ ॥ आठ पहर मेरे मन गाउ ॥१॥ रहाउ ॥ जो इछै सोई फलु पाए ॥ हरि का नामु मंनि वसाए ॥ आवण जाण रहे हरि धिआइ ॥ भगति भाइ प्रभ की लिव लाइ ॥२॥ बिनसे काम क्रोध अहंकार ॥ तूटे माइआ मोह पिआर ॥ प्रभ की टेक रहै दिनु राति ॥ पारब्रहमु करे जिसु दाति ॥३॥ करन करावनहार सुआमी ॥ सगल घटा के अंतरजामी ॥ करि किरपा अपनी सेवा लाइ ॥ नानक दास तेरी सरणाइ ॥४॥३१॥४४॥ {पन्ना 1148}

पद्अर्थ: मनि = मन में। प्रगासु = प्रकाश, आत्मिक जीवनकी सूझ। मिटहि = मिट जाते हैं (बहुवचन)। सूख निवासु = सुखों में निवास। सहजि = आत्मिक अडोलता में। तिसहि = उस (मनुष्य) को ही ('तिसु' की 'ु' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। देइ = देता है। पाऐ = पाता है, जोड़ता है।1।

प्रभ = हे प्रभू! मन = हे मन! गाउ = गाया कर।1। रहाउ।

इछै = इच्छा करता है, माँगता है। मंनि = मन में। रहे = समाप्त हो जाते हैं। धिआइ = सिमर के। भाइ = प्यार से (भाउ = प्यार)। लिव = लगन। लाइ = लगा के।2।

बिनसे = नाश हो गए। टेक = आसरा। रहै = रहता है। जिसु = जिस मनुष्य को।3।

सुआमी = हे स्वामी! घट = शरीर, हृदय। अंतरजामी = हे सब के दिल की जानने वाले! करि = कर के। लाइ = लगाए रख। नानक = हे नानक!।4।

अर्थ: हे प्रभू! तेरा नाम सारे सुखों का मूल है। हे मेरे मन! आठों पहर (हर वक्त) प्रभू के गुण गाया कर।1। रहाउ।

हे भाई! जिस परमात्मा का नाम सिमरने से (मनुष्य के) मन में आत्मिक जीवन की सूझ पैदा हो जाती है (जिसका सिमरन करके सारे) कलेश मिट जाते हैं, सुखों में आत्मिक अडोलता में टिक जाता है, वह परमात्मा जिस मनुष्य को (सिमरन की दाति) देता है उसी को मिलती है, (परमात्मा उस मनुष्य को) पूरे गुरू की सेवा में जोड़ देता है।1।

हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का नाम (अपने) मन में बसाता है, वह मनुष्य जो कुछ (परमात्मा से) माँगता है वही फल हासिल कर लेता है। भगती-भाव से प्रभू में सुरति जोड़ के प्रभू का ध्यान धर के उसके जनम-मरण के चक्कर समाप्त हो जाते हैं।2।

हे भाई! परमात्मा जिस मनुष्य को (अपने नाम की) दाति देता है, वह मनुष्य दिन-रात परमात्मा के ही आसरे रहता है (उसके अंदर से) माया के मोह की तारें टूट जाती हैं, (उसके अंदर से) काम क्रोध अहंकार (ये सारे विकार) नाश हो जाते हैं।3।

हे नानक! (प्रभू के दर पर अरदास किया कर और कहा कर-) हे सब कुछ करने योग्य स्वामी! हे जीवों से सब कुछ करा सकनेकी समर्थावाले स्वामी! हे सब जीवों के दिल की जानने वाले! मेहर कर के (मुझे) अपनी सेवा-भगती में जोड़े रख, (मैं तेरा) दास तेरी शरण आया हूँ।4।31।44।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh