श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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भैरउ महला ५ ॥ लाज मरै जो नामु न लेवै ॥ नाम बिहून सुखी किउ सोवै ॥ हरि सिमरनु छाडि परम गति चाहै ॥ मूल बिना साखा कत आहै ॥१॥ गुरु गोविंदु मेरे मन धिआइ ॥ जनम जनम की मैलु उतारै बंधन काटि हरि संगि मिलाइ ॥१॥ रहाउ ॥ तीरथि नाइ कहा सुचि सैलु ॥ मन कउ विआपै हउमै मैलु ॥ कोटि करम बंधन का मूलु ॥ हरि के भजन बिनु बिरथा पूलु ॥२॥ बिनु खाए बूझै नही भूख ॥ रोगु जाइ तां उतरहि दूख ॥ काम क्रोध लोभ मोहि बिआपिआ ॥ जिनि प्रभि कीना सो प्रभु नही जापिआ ॥३॥ धनु धनु साध धंनु हरि नाउ ॥ आठ पहर कीरतनु गुण गाउ ॥ धनु हरि भगति धनु करणैहार ॥ सरणि नानक प्रभ पुरख अपार ॥४॥३२॥४५॥ {पन्ना 1149}

पद्अर्थ: लाज मरै = शर्म से मर जाता है, शर्म के कारण हल्के जीवन वाला हो जाता है। किउ सोवै = कैसे सो सकता है? नहीं हो सकता। छाडि = छोड़ के। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। मूल = (वृक्ष का) आदि, जड़। साखा = टहणी। कत = कैसे? आहै = है, हो सकती है।1।

मन = हे मन! धिआइ = सिमरा कर। उतारै = दूर कर देता है। बंधन = माया के मोह के बंधन। संगि = साथ। मिलाइ = जोड़ देता है।1। रहाउ।

तीरथि = तीर्थ पर। नाइ = नहा के। सुचि = पवित्रता। सैलु = पत्थर, पत्थर दिल मनुष्य। विआपै = जोर डाले रखती है। कोटि करम = करोड़ों (मिथे हुए धार्मिक) कर्म। मूलु = कारण, वसीला। पूलु = (कर्मों का) पूला, पंड।2।

बूझै नही = नहीं समझती। जाइ = जो दूर हो जाए। उतरहि = उतर जाते हैं (बहुवचन)। मोहि = मोह में। बिआपिआ = फसा हुआ। जिनि प्रभि = जिस प्रभू ने।3।

धनु धनु = भाग्य वाले। गुण गाउ = गुणों का गायन (करते हैं)। धनु = सरमाया।4।

अर्थ: हे मेरे मन! गुरू को गोविंद को (सदा) सिमरा करो। (यह सिमरन) अनेकों जन्मों की (विकारों की) मैल दूर कर देता है, माया के मोह के फंदों को काट के (मनुष्य को) परमात्मा के साथ जोड़ देता है।1। रहाउ।

हे भाई! जो परमात्मा का नाम नहीं सिमरता, वह अपने आप में शर्म से हल्का पड़ जाता है (शर्म से मर जाए, जो नाम नहीं सिमरता)। परमात्मा का नाम सिमरन के बिना मनुष्य सुख की नींद नहीं सो सकता। (जो मनुष्य) हरी-नाम का सिमरन छोड़ के सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था (हासिल करनी) चाहता है (उसकी यह चाहत व्यर्थ है, जैसे वृक्ष की) जड़ के बिना (उस पर) कोई टहनी, शाखा नहीं उगती।1।

हे भाई! पत्थर (पत्थर-दिल मनुष्य) तीर्थ पर स्नान करके (आत्मिक) पवित्रता हासिल नहीं कर सकता, (उसके) मन को (यही) अहंकार की मैल चिपकी रहती है (कि मैं तीर्थ-यात्रा कर आया हूँ)। हे भाई! (तीर्थ-यात्रा आदि मिथे हुए धार्मिक कर्म मनुष्य के सिर पर) व्यर्थ के गठड़ी हैं।2।

हे भाई! (भोजन) खाए बिना (पेट की) भूख (की आग) नहीं बुझती (रोग से पैदा हुए) शारीरिक दुख तब ही दूर होते हैं, अगर (अंदर से) रोग दूर हो जाए। हे भाई! जिस परमात्मा ने पैदा किया है जो मनुष्य उसका नाम नहीं जपता, वह सदा काम क्रोध लोभ मोह में फसा रहता है।3।

हे भाई! वे गुरमुख मनुष्य भाग्यशाली हैं, जो परमात्मा का नाम जपते हैं, जो आठों पहर परमात्मा की सिफत-सालाह करते हैं, परमात्मा के गुणों का गायन करते हैं। हे नानक! जो मनुष्य बेअंत और सर्व-व्यापक प्रभू की शरण पड़े रहते हैं, उनके पास परमात्मा की भक्ति का धन सृजनहार के नाम का धन (सदा मौजूद) है।4।32।45।

भैरउ महला ५ ॥ गुर सुप्रसंन होए भउ गए ॥ नाम निरंजन मन महि लए ॥ दीन दइआल सदा किरपाल ॥ बिनसि गए सगले जंजाल ॥१॥ सूख सहज आनंद घने ॥ साधसंगि मिटे भै भरमा अम्रितु हरि हरि रसन भने ॥१॥ रहाउ ॥ चरन कमल सिउ लागो हेतु ॥ खिन महि बिनसिओ महा परेतु ॥ आठ पहर हरि हरि जपु जापि ॥ राखनहार गोविद गुर आपि ॥२॥ अपने सेवक कउ सदा प्रतिपारै ॥ भगत जना के सास निहारै ॥ मानस की कहु केतक बात ॥ जम ते राखै दे करि हाथ ॥३॥ निरमल सोभा निरमल रीति ॥ पारब्रहमु आइआ मनि चीति ॥ करि किरपा गुरि दीनो दानु ॥ नानक पाइआ नामु निधानु ॥४॥३३॥४६॥ {पन्ना 1149}

पद्अर्थ: सुप्रसंन = अच्छी तरह खुश। भउ गऐ = हरेक डर दूर हो गया। निरंजन = (निर+अंजन) माया की कालिख से रहित प्रभू। लऐ = लेता है। सगले = सारे। जंजाल = माया के मोह के बंधन।1।

सहज = आत्मिक अडोलता। घने = बहुत। संगि = संगति में। भै = ('भउ' का बहुवचन) सारे डर। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला हरी नाम। रसन = जीभ से।"ने = उचारता है।1। रहाउ।

हेतु = हित, प्यार। परेतु = अशुद्ध स्वभाव, खोटा स्वभाव। जापि = जपा कर।2।

कउ = को। प्रतिपारै = पालता है। सास = सांस (बहुवचन)। निहारै = देखता है, ताकता है। मानस = मनुष्य। कहु = बताओ। केतक बात = कितनी बात, कितनी पायां? जम ते = जमों से। दे करि = दे कर।3।

निरमल = बेदाग़। रीति = जीवन जुगति। मनि = मन में। चीति = चिक्त में। गुरि = गुरू ने। निधानु = खजाना।4।

अर्थ: हे भाई! साध-संगति में रह के जो मनुष्य अपनी जीभ से आत्मिक जीवन देने वाला हरी-नाम उचारता रहता है, उसके सारे डर-वहम दूर हो जाते हैं (उसके अंदर) आत्मिक अडोलता के बड़े सुख-आनंद बने रहते हैं।1। रहाउ।

हे भाई! सतिगुरू जिस मनुष्य पर बहुत प्रसन्न होता है, उसका हरेक डर दूर हो जाता है (क्योंकि) वह मनुष्य (हर वक्त) माया-रहित परमात्मा का नाम अपने मन में बसाए रखता है। हे भाई! दीनों पर दया करने वाला प्रभू जिस मनुष्य पर कृपा करता है, (उसके अंदर से) माया के मोह के सारे बंधन नाश हो जाते हैं।1।

हे भाई! प्रभू के सुंदर चरणों से जिस मनुष्य का प्यार बन जाता है, उसके अंदर से (खोटा स्वभाव रूपी) बड़ा प्रेत एक छिन में खत्म हो जाता है। हे भाई! तू आठों पहर परमात्मा के नाम का जाप जपा कर, सबकी रक्षा कर सकने वाला गुरू गोविंद स्वयं (तेरी भी रक्षा करेगा)।2।

हे भाई! प्रभू अपने सेवक की आप रक्षा करता है, प्रभू अपने भकतों की सांसों को ध्यान से देखता रहता है (भाव, बड़े ध्यान से भगत-जनों की रक्षा करता है)। हे भाई! बता, मनुष्य बेचारे भगत-जनों का क्या बिगाड़ सकते हैं? परमात्मा तो उनको हाथ दे के जमों से भी बचा लेता है।3।

हे भाई! जिस मनुष्य के मन में चिक्त में परमात्मा आ बसता है, उसकी हर जगह बेदाग़ शोभा बनी रहती है, उसकी जीवन-जुगति सदा पवित्र होती है। हे नानक! (कह-हे भाई!) मेहर करके गुरू ने जिस मनुष्य को (नाम की) दाति बख्शी, उसने नाम-खजाना हासिल कर लिया।4।33।46।

भैरउ महला ५ ॥ करण कारण समरथु गुरु मेरा ॥ जीअ प्राण सुखदाता नेरा ॥ भै भंजन अबिनासी राइ ॥ दरसनि देखिऐ सभु दुखु जाइ ॥१॥ जत कत पेखउ तेरी सरणा ॥ बलि बलि जाई सतिगुर चरणा ॥१॥ रहाउ ॥ पूरन काम मिले गुरदेव ॥ सभि फलदाता निरमल सेव ॥ करु गहि लीने अपुने दास ॥ राम नामु रिद दीओ निवास ॥२॥ सदा अनंदु नाही किछु सोगु ॥ दूखु दरदु नह बिआपै रोगु ॥ सभु किछु तेरा तू करणैहारु ॥ पारब्रहम गुर अगम अपार ॥३॥ निरमल सोभा अचरज बाणी ॥ पारब्रहम पूरन मनि भाणी ॥ जलि थलि महीअलि रविआ सोइ ॥ नानक सभु किछु प्रभ ते होइ ॥४॥३४॥४७॥ {पन्ना 1149}

पद्अर्थ: करण = जगत, सृष्टि। कारण = मूल। समरथु = सबकुछ कर सकने वाला। जीअ दाता = जिंद देने वाला। प्राण दाता = प्राण देने वाला। सुखदाता = सारे सुख देने वाला। नेरा = (सबसे) नजदीक। भै भंजन = सारे डरों को नाश करने वाला। राइ = राय, पातशाह। दरसनि देखिअै = अगर दर्शन कर लें। जाइ = दूर हो जाता है।1।

जत कत = जहाँ कहाँ, हर जगह। पेखउ = मैं देखता हूँ। बलि जाई = मैं कुर्बान जाता हूँ।1। रहाउ।

काम = कामना, इच्छा। सभि = सारे (बहुवचन)। निरमल = जीवन को पवित्र करनेवाली। करु = हाथ (एक वचन)। गहि = पकड़ के। रिद = हृदय में।2।

सोगु = शोक। बिआपै = अपना जोर डाल सकता है। करणैहारु = पैदा कर सकने की समर्था वाला।3।

निरमल = बेदाग़। अचरज बाणी = विस्माद अवस्था पैदा कर सकनेवाली बाणी। पूरन = सर्वव्यापक। मनि = (जिस मनुष्य के) मनमें। भाणी = भा गई, प्यारी लगने लग जाती है। जलि = जल में। थलि = थल में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल के ऊपर, अंतरिक्ष में, आकाश में। रविआ = व्यापक। ते = से।4।

अर्थ: हे प्रभू! मैं (अपने) गुरू के चरणों से सदा सदके जाता हूँ (जिसने मुझे तेरे चरणों में जोड़ा है, अब) मैं हर जगह तेरा ही आसरा देखता हूँ।1। रहाउ।

हे भाई! मेरा गुरू-परमेश्वर सारी सृष्टि का मूल है, सब ताकतों का मालिक है, (सबको) जिंद देने वाला है, प्राण देने वाला है, सारे सुख देने वाला है, (सबके) नजदीक (बसता है)। हे भाई! वह पातिशाह (जीवों के सारे) डर दूर करने वाला है, वह स्वयं नाश रहित है, अगर उसके दर्शन हो जाएं, (तो मनुष्य का) सारा दुख दूर हो जाता है।1।

हे भाई! गुरदेव-प्रभू को मिल के सारी कामनाएं पूरी हो जाती हैं, वह प्रभू सारे फल देने वाला है, उसकी सेवा-भक्ति जीवन पवित्र कर देती है। हे भाई!प्रभू अपने दासों का हाथ पकड़ के उनको अपने बना लेता है, और उनके हृदय में अपना नाम टिका देता है।2।

हे गुरू-पारब्रहम! हे अपहुँच! हे बेअंत! (जो कुछ दिखाई दे रहा है, यह) सब कुछ तेरा पैदा किया हुआ है, तू ही सब कुछ पैदा करने की समर्था वाला है। जिसके हृदय में तू अपना नाम टिकाता है (उसके अंदर) सदा आनंद बना रहता है, उसको कोई ग़म (छू नहीं सकता)। कोई दुख कोई दर्द कोई रोग उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकता।3।

हे भाई!सर्व-व्यापक परमात्मा की विस्माद पैदा करने वालीसिफत-सालाह जिस मनुष्य के मन को मीठी लगने लग जाती है, उसकी बे-दाग़ शोभा (हर जगह पसर जाती है)। हे नानक! वह प्रभू जल में धरती में आकाश में हर जगह मौजूद है (जो कुछ जगत में हो रहा है) सब कुछ प्रभू से (प्रभूके हुकम से ही) हो रहा है।4।34।47।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh