श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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देव कुली लखिमी कउ करहि जैकारु ॥ माता नरसिंघ का रूपु निवारु ॥ लखिमी भउ करै न साकै जाइ ॥ प्रहलादु जनु चरणी लागा आइ ॥११॥ सतिगुरि नामु निधानु द्रिड़ाइआ ॥ राजु मालु झूठी सभ माइआ ॥ लोभी नर रहे लपटाइ ॥ हरि के नाम बिनु दरगह मिलै सजाइ ॥१२॥ कहै नानकु सभु को करे कराइआ ॥ से परवाणु जिनी हरि सिउ चितु लाइआ ॥ भगता का अंगीकारु करदा आइआ ॥ करतै अपणा रूपु दिखाइआ ॥१३॥१॥२॥ {पन्ना 1155}

पद्अर्थ: देव कुली = देवताओं की सारी कुल, सारे देवता। लखिमी = लक्ष्मी। कउ = को। करहि = करते हैं, करने लग पड़े। जैकारु = नमस्कार, वडिआई। माता = हे माता! निवारु = दूर कर। भउ = डर। करै = करती है। भउ करै = डरती है, डरती थी। न जाइ साकै = जा नहीं सकती। आइ = आ के।11।

सतिगुरि = गुरू ने। निधानु = खजाना। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का कर दिया। सभ = सारी। रहे लपटाइ = चिपके रहे हैं। दरगह = प्रभू की हजूरी में।12।

सभु को = हरेक जीव। कराइआ = परमात्मा का पे्ररित हुआ। से = वह (बहुवचन)। सिउ = साथ। अंगीकारु = पक्ष, सहायता। करतै = करतार ने।13।

अर्थ: हे भाई! सारे देवताओं ने लक्ष्मी की उपमा की (और कहा-) हे माता! (प्रेरणा कर के कह- हे प्रभू!) नरसिंह वाला रूपदूर कर। (पर) लक्ष्मी भी डरती थी, वह भी (नरसिंह के नजदीक) नहीं जा सकती थी। (परमात्मा का) भगत प्रहलाद (नरसिंह के) चरणों में आ लगा।11।

हे भाई! गुरू ने (जिस मनुष्य के हृदय में) परमात्मा का नाम खजाना पक्का कर दिया (उसको दिखाई दे जाता है कि) दुनिया का राज-माल और सारी माया -ये सब कुछ नाशवंत है। पर लालची लोग इसके साथ ही चिपके रहते हैं। परमात्मा के नाम के बिना (उनको) परमात्मा की हजूरी में सजा मिलती है।12।

हे भाई! नानक कहता है- (जीवों के भी क्या वश?) हरेक जीव परमात्मा का प्रेरित हुआ ही (कर्म) करता है। जिन्होंने (यहाँ) परमात्मा (के नाम) से चिक्त जोड़ा, वे प्रभू की हजूरी में कबूल हो गए। हे भाई! धुर से ही परमात्मा अपने भक्तों का पक्ष करता आ रहा है। करतार ने (स्वयं ही अपने भक्तों को) अपना दर्शन दिए हैं (और उनकी सहायता की है)।13।1।2।

भैरउ महला ३ ॥ गुर सेवा ते अम्रित फलु पाइआ हउमै त्रिसन बुझाई ॥ हरि का नामु ह्रिदै मनि वसिआ मनसा मनहि समाई ॥१॥ हरि जीउ क्रिपा करहु मेरे पिआरे ॥ अनदिनु हरि गुण दीन जनु मांगै गुर कै सबदि उधारे ॥१॥ रहाउ ॥ संत जना कउ जमु जोहि न साकै रती अंच दूख न लाई ॥ आपि तरहि सगले कुल तारहि जो तेरी सरणाई ॥२॥ भगता की पैज रखहि तू आपे एह तेरी वडिआई ॥ जनम जनम के किलविख दुख काटहि दुबिधा रती न राई ॥३॥ हम मूड़ मुगध किछु बूझहि नाही तू आपे देहि बुझाई ॥ जो तुधु भावै सोई करसी अवरु न करणा जाई ॥४॥ {पन्ना 1155}

पद्अर्थ: ते = से। गुर सेवा ते = गुरू की सेवा से, गुरू की शरण पड़ने से। अंम्रित फलु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम फल। त्रिसन = तृष्णा, माया का लालच। हृदै = हृदय में। मनि = मन में। मनसा = मनका फुरना (मनीषा)। मनहि = मनि ही, मन में ही। समाई = लीन हो जाती है।1।

हरि = हे हरी! अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। दीन जनु = गरीब सेवक। मांगै = माँगता है (एकवचन)। कै सबदि = के शबद से। उधारे = उद्धार, (संसार समुंद्र से) पार लंघा।1। रहाउ।

कउ = को। जोहि न साकै = ताक नहीं सकता। रती = रक्ती भर भी। अंच = आँच, सेक। न लाई = नहीं लगाता। तरहि = तैर जाते हैं (बहुवचन)। सगले = सारे।2।

पैज = लाज, इज्जत। आपे = स्वयं ही। वडिआई = बड दिली, उपमा, महिमा। किलविख = पाप। काटहि = तू काट देता है। दुबिधा = मेर तेर, दोचिक्ता मन। राई = रक्ती भर भी।3।

हम = हम जीव। मुगध = मूर्ख। बूझहि = (हम) समझते। देहि = तू देता है। बुझाई = (आत्मिक जीवन की) समझ। जो = जो काम। तुधु भावै = तुझे अच्छा लगता है। करसी = (हरेक जीव) करेगा। अवरु = और काम।4।

अर्थ: हे मेरे प्यारे प्रभू जी! (मुझ गरीब पर) मेहर कर। (तेरे दर का) गरीब सेवक (तुझसे) हर वक्त तेरे गुण (गाने की दाति) माँगता है। हे प्रभू! मुझे गुरू के शबद के द्वारा (विकारों से) बचाए रख।1। रहाउ।

हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरू की शरण पड़ के आत्मिक जीवन देने वाला हरी-नाम फल प्राप्त कर लिया, उसने (अपने अंदर से) अहंकार और तृष्णा (की आग) बुझा ली। परमात्मा का नाम उसके हृदय में उसके मन में बस गया, उसके मन का (मायावी) फुरना मन में ही लीन हो गया।1।

हे भाई! परमात्मा की भक्ति करने वाले लोगों की तरफ जमराज (भी) ताक नहीं सकता, (दुनिया के) दुखों का रक्ती भर भी सेका (उनको) लग नहीं सकता। हे प्रभू! जो मनुष्य तेरी शरण आ पड़ते हैं, वह स्वयं (संसार समुंद्र से) पार लांघ जाते हैं, अपनी सारी कुलों को भी पार लंघा लेते हैं।2।

हे प्रभू! अपने भकतों की (लोक-परलोक में) इज्जत तू स्वयं ही रखता है, यह तेरी बुजुर्गी है। तू उनके (पिछले) अनेकों ही जन्मों के पाप और दुख काट देता है, उनके अंदर रक्ती भर भी राई भर भी मेर-तेर नहीं रह जाती (दुबिधा समाप्त हो जाती है)।3।

हे भाई! हम (जीव) मूर्ख हैं अन्जान हैं, हम (आत्मिक जीवन का सही रास्ता) (रक्ती भर) नहीं समझते, तू स्वयं ही (हमें यह) समझा देता है। हे प्रभू! जो काम तुझे अच्छा लगता है, वह (हरेक जीव) करता है, (उससे उलट) और कोई काम नहीं किया जा सकता।4।

जगतु उपाइ तुधु धंधै लाइआ भूंडी कार कमाई ॥ जनमु पदारथु जूऐ हारिआ सबदै सुरति न पाई ॥५॥ मनमुखि मरहि तिन किछू न सूझै दुरमति अगिआन अंधारा ॥ भवजलु पारि न पावहि कब ही डूबि मुए बिनु गुर सिरि भारा ॥६॥ साचै सबदि रते जन साचे हरि प्रभि आपि मिलाए ॥ गुर की बाणी सबदि पछाती साचि रहे लिव लाए ॥७॥ तूं आपि निरमलु तेरे जन है निरमल गुर कै सबदि वीचारे ॥ नानकु तिन कै सद बलिहारै राम नामु उरि धारे ॥८॥२॥३॥ {पन्ना 1155}

पद्अर्थ: उपाइ = पैदा कर के। धंधै = (दुनिया के) धंधों में। भूंडी = बुरी। जूअै = जूए में। सबदै = शबद से। सुरति = आत्मिक जीवन की सूझ।5।

मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। मरहि = मर जाते हैं, आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। अगिआन = आत्मिक जीवन से बेसमझी। अंधेरा = अंधकार। भवजलु = संसार समुंद्र। डूबि मुऐ = (विकारों में) डूब के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। सिरि भारा = सिर के भार।6।

साचै सबदि = सदा स्थिर प्रभू की सिफतसालाह के शबद में। रते = रंगे हुए। प्रभि = प्रभू ने। बाणी = आतम तरंग, वलवला। सबदि = शबद से। पछाती = सांझ डाल ली। साचि = सदा स्थिर प्रभू में। रहे लाऐ = लगाए रखते हैं।7।

निरमलु = पवित्र ('निरमलु' एकवचन; 'निरमल' बहुवचन)। है = हैं। वीचारे = गुणों की विचार करके। सद = सदा। बलिहारै = सदके। उरि = हृदय में।8।

अर्थ: हे प्रभू! (तूने स्वयं ही) जगत को पैदा करके (तूने स्वयं ही इसको माया के) धंधे में लगा रखा है, (तेरी प्रेरणा से जगत माया के मोह की) बुरी कार कर रहा है। (माया के मोह में फस के जगत ने) कीमती मानस जनम को (जुआरिए की तरह) जूए में हार दिया है, गुरू के शबद से (जगत ने) आत्मिक जीवन की सूझ हासिल नहीं की।5।

हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं, उनको आत्मिक जीवन की रक्ती भर भी समझ नहीं पड़ती। बुरी मति का, आत्मिक जीवन के प्रति बेसमझी का (उनके अंदर) अंधकार छाया रहता है। वे मनुष्य गुरू की शरण पड़ बिना विकारों में सिर के भार डूब के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं, वे कभी भी संसार-समुंद्र से पार नहीं लांघ सकते।6।

हे भाई!जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह के शबद में रंगे रहते हैं वे सदा-स्थिर प्रभू का रूप हो जाते हैं। प्रभू ने स्वयं ही उनको अपने साथ मिला लिया होता है। गुरू के शबद से उन्होंने गुरू के आत्म-तरंग के साथ सांझ पा ली होती है। वे मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू में सुरति जोड़े रखते हैं।7।

हे प्रभू! तू स्वयं पवित्र स्वरूप है। तेरे सेवक गुरू के शबद द्वारा (तेरे गुणों का) विचार कर के पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं। हे भाई!नानक उन मनुष्यों से सदा सदके जाता है, जो परमात्मा का नाम (अपने) हृदय में बसाए रखते हैं।8।2।3।

भैरउ महला ५ असटपदीआ घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जिसु नामु रिदै सोई वड राजा ॥ जिसु नामु रिदै तिसु पूरे काजा ॥ जिसु नामु रिदै तिनि कोटि धन पाए ॥ नाम बिना जनमु बिरथा जाए ॥१॥ तिसु सालाही जिसु हरि धनु रासि ॥ सो वडभागी जिसु गुर मसतकि हाथु ॥१॥ रहाउ ॥ जिसु नामु रिदै तिसु कोट कई सैना ॥ जिसु नामु रिदै तिसु सहज सुखैना ॥ जिसु नामु रिदै सो सीतलु हूआ ॥ नाम बिना ध्रिगु जीवणु मूआ ॥२॥ जिसु नामु रिदै सो जीवन मुकता ॥ जिसु नामु रिदै तिसु सभ ही जुगता ॥ जिसु नामु रिदै तिनि नउ निधि पाई ॥ नाम बिना भ्रमि आवै जाई ॥३॥ जिसु नामु रिदै सो वेपरवाहा ॥ जिसु नामु रिदै तिसु सद ही लाहा ॥ जिसु नामु रिदै तिसु वड परवारा ॥ नाम बिना मनमुख गावारा ॥४॥ {पन्ना 1155-1156}

पद्अर्थ: जिसुरिदै = जिस मनुष्य के हृदय में। काजा = काम। तिनि = उस (मनुष्य) ने। कोटि = करोड़ों। कोटि धन = करोंड़ों किस्मों के धन। बिरथा = व्यर्थ।1।

तिसु = उस (मनुष्य) को। सालाही = मैं सालाहता हूँ। रासि = राशि, पूँजी। जिसु मसतकि = जिस मनुष्य के माथे पर। गुर हाथु = गुरू का हाथ।1। रहाउ।

कोट कई-कई किले। सैना = फौजें। सहज सुखैना = आत्मिक अडोलता के सुख। मूआ = आत्मिक मौत मरा हुआ।2।

जीवन मुकता = जीते ही मुक्त, दुनियावी किरत कार करते हुए ही माया के मोह से बचा हुआ। जुगता = सही जीवन की जाच। तिनि = उसने। नउनिधि = (धरती के सारे) नौ खजाने। भ्रमि = भटकना में (पड़ के)।3।

सद = सदा। लाहा = लाभ, आत्मिक जीवन की कमाई। मनमुख = अपनेमन के पीछे चलने वाला। गावारा = मूर्ख।4।

अर्थ: हे भाई! मैं उस मनुष्य की सराहना करता हूँ जिसके पास परमात्मा का नाम-धन सरमाया है। जिस मनुष्य के माथे पर गुरू का हाथ टिका हुआ हो, वह बहुत भाग्यशाली है।1। रहाउ।

हे भाई! जिस मनुष्यके हृदय में परमात्मा का नाम बसता है वही (सब राजाओं से) बड़ा राजा है, उस मनुष्य के सारे काम सफल हो जाते हैं, उसने (मानो) करोड़ों किस्मों के धन प्राप्त कर लिए। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना मनुष्यका जीवन व्यर्थ चला जाता है।1।

हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम बसता है, वह (मानो) कई किलों और फौजों (का मालिक हो जाता है), उसको आत्मिक अडोलता के सारे सुख मिल जाते हैं, उसका हृदय (पूर्ण तौर पर) शांत रहता है। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़ लेता है उसका जीवन धिक्कारयोग्य हो जाता है।2।

हे भाई! जिस मनुष्यके हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है, वह दुनियावी किरत-कार करता हुआ भी माया के प्रभाव से परे रहता है, उसको सुचॅजे जीवन की सारी जाच आ जाती है, उस मनुष्य ने (मानो, धरती के सारे ही) नौ खजाने प्राप्त कर लिए होते हैं। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना मनुष्य माया की भटकना में पड़ कर जनम-मरण के चक्करों में पड़ जाता है।3।

हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है, वह बेमुथाज टिका रहता है। (किसी की खुशामद नहीं करता), उसको ऊँचे आत्मिक जीवन की कमाई सदा ही प्राप्त रहती है, उस मनुष्य का बड़ा परिवार बन जाता है (भाव, सारा ही जगत उसको अपना दिखाई देता है)। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना मनुष्य अपने मन का मुरीद बन जाता है, (जीवन की सही जुगति से) मूर्ख ही रह जाता है।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh