श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जिसु नामु रिदै तिसु निहचल आसनु ॥ जिसु नामु रिदै तिसु तखति निवासनु ॥ जिसु नामु रिदै सो साचा साहु ॥ नामहीण नाही पति वेसाहु ॥५॥ जिसु नामु रिदै सो सभ महि जाता ॥ जिसु नामु रिदै सो पुरखु बिधाता ॥ जिसु नामु रिदै सो सभ ते ऊचा ॥ नाम बिना भ्रमि जोनी मूचा ॥६॥ जिसु नामु रिदै तिसु प्रगटि पहारा ॥ जिसु नामु रिदै तिसु मिटिआ अंधारा ॥ जिसु नामु रिदै सो पुरखु परवाणु ॥ नाम बिना फिरि आवण जाणु ॥७॥ तिनि नामु पाइआ जिसु भइओ क्रिपाल ॥ साधसंगति महि लखे गुोपाल ॥ आवण जाण रहे सुखु पाइआ ॥ कहु नानक ततै ततु मिलाइआ ॥८॥१॥४॥ {पन्ना 1156}

पद्अर्थ: जिसु रिदै = जिस (मनुष्य) के हृदय में। निहचल = ना डोलने वाला, (माया के हमलों से) अडोल। आसनु = हृदय तख्त। तखति = तख्त पर। तिसु निवासनु = उस (मनुष्य) का आत्मिक ठिकाना। साचा = सदा कायम रहने वाला। सारु = नाम धन का साहूकार। पति = इज्जत। वेसाहु = ऐतबार।5।

जाता = जाना जाता है, प्रकट हो जाता है, शोभा प्राप्त करता है। पुरखु = सर्व व्यापक प्रभू (का रूप)। बिधाता = सृजनहार (का रूप)। ते = से। ऊचा = ऊँचे आत्मिक जीवन वाला। भ्रमि = भटकता है, भ्रमै। मूचा = बहुत। जोनी मूचा = बहुत सारी जूनियों में।6।

पहारा = दुकान, लोहार की दुकान जिसमें लोहे आदि से कुछ घड़ते हैं, आत्मिक जीवन की घाड़त की मेहनत। प्रगटि = प्रगटै, प्रकट हो जाती है। अंधारा = माया के मोह का अंधेरा। परवाणु = कबूल। फिरि = बार बार। आवण जाणु = जनम मरण का चक्कर।7।

तिनि = उस (मनुष्य) ने। जिसु = जिस (मनुष्य) पर। लखे = समझ लेता है, देख लेता है। रहे = खत्म हो जातेहैं। नानक = हे नानक! ततै = जगतके मूल परमात्मा में। ततु = जीवात्मा।8।

गुोपाल: अक्षर 'ग' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। असल शब्द है 'गोपाल', यहां 'गुपाल' पढ़ना है।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है, उसका हृदय-तख्त माया के हमलों से अडोल हो जाता है, (आत्मिक अडोलता के ऊँचे) तख्त पर उसका (सदा के लिए) निवास हो जाता है, वह मनुष्य सदा कायम रहने वाले नाम-धन का शाह बन जाता है। हे भाई! नाम से वंचित मनुष्य की ना कहीं इज्जत होती है ना ही कहीं ऐतबार बनता है।5।

हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है, वह सब लोगों में शोभा कमाता है, वह मनुष्य सर्व-व्यापक सृजनहार का रूप हो जाता है, वह सबसे ऊँचे आत्मिक जीवन वाला बन जाता है। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना मनुष्य अनेकों जूनियों में भटकता है।6।

हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है, उसकी आत्मिक जीवन की घाड़त की मेहनत (सब जगह) प्रकट हो जाती है, उसके अंदर से माया के मोह का अंधकार मिट जाता है, वह मनुष्य (परमात्मा की दरगाह में) कबूल हो जाता है। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना बार-बार जनम-मरण का चक्कर बना रहता है।7।

हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा दयावान हो गया, उसने हरी-नाम हासिल कर लिया, साध-संगति में (टिक के) उसने सृष्टि के पालनहार के दर्शनकर लिए, उसके जनम-मरण के चक्कर समाप्त हो गए, उसने आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया। हे नानक! कह- उस मनुष्य की जिंद परमात्मा के साथ ऐक-मेक हो गई।8।1।4।

भैरउ महला ५ ॥ कोटि बिसन कीने अवतार ॥ कोटि ब्रहमंड जा के ध्रमसाल ॥ कोटि महेस उपाइ समाए ॥ कोटि ब्रहमे जगु साजण लाए ॥१॥ ऐसो धणी गुविंदु हमारा ॥ बरनि न साकउ गुण बिसथारा ॥१॥ रहाउ ॥ कोटि माइआ जा कै सेवकाइ ॥ कोटि जीअ जा की सिहजाइ ॥ कोटि उपारजना तेरै अंगि ॥ कोटि भगत बसत हरि संगि ॥२॥ कोटि छत्रपति करत नमसकार ॥ कोटि इंद्र ठाढे है दुआर ॥ कोटि बैकुंठ जा की द्रिसटी माहि ॥ कोटि नाम जा की कीमति नाहि ॥३॥ कोटि पूरीअत है जा कै नाद ॥ कोटि अखारे चलित बिसमाद ॥ कोटि सकति सिव आगिआकार ॥ कोटि जीअ देवै आधार ॥४॥ {पन्ना 1156}

पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। ध्रमसाल = धर्म कमाने वाली जगह। महेस = शिव। उपाइ = पैदा कर के। समाऐ = लीन कर लिए। ब्रहमे = ('ब्रहमा' का बहुवचन)। साजण = पैदा करने के काम पर, साजना करने के काम पर।1।

धणी = मालिक। बरनि न साकउ = मैं बयान नहीं कर सकता।1। रहाउ।

जा कै = जिस के दर पर। सेवकाइ = सेविकाएं, दासियां। जीअ = जीव (बहुवचन)। सिहजाइ = सेज। उपारजना = उत्पक्तियां। तेरै अंगि = तेरे अंग में, तेरे आपे में। संगि = साथ।2।

छत्रपति = राजे। ठाढे = खड़े हुए। जाकी = जिस परमात्मा की। द्रिसटी माहि = निगाह में।3।

जा कै = जिस के दर पर। अखारे = जगत अखाड़े। चलित = तमाशे। बिसमाद = हैरान करने वाले। सकति = माया, लक्ष्मी। शिव = शिव, जीव। जीअ = जीव (बहुवचन)। आधार = आसरा।4।

अर्थ: हे भाई! हमारा मालिक प्रभू ऐसा (बेअंत) है कि मैं उसके गुणों का विस्तार (फैलाव) बयान नहीं कर सकता।1। रहाउ।

हे भाई! (वह गोबिंद ऐसा है जिसने) करोड़ों ही विष्णू-अवतार बनाए, करोड़ों ब्रहमण्ड जिसके धर्म-स्थान हैं, जो करोड़ों शिव पैदा करके (अपने में ही) लीन कर देता है, जिसने करोड़ों ही ब्रहमे जगत पैदा करने के काम पर लगाए हुए हैं।1।

हे भाई! (वह गोबिंद ऐसा मालिक है कि) करोड़ों ही लक्षि्मयां उसके घर में दासियां हैं, करोड़ों ही जीव उसकी सेज हैं। हे प्रभू! करोड़ों ही उत्पक्तियाँ तेरे स्वै में समा जाती हैं। हे भाई! करोड़ों ही भगत प्रभूके चरणों में बसते हैं।2।

हे भाई! (वह गोबिंद ऐसा मालिक है कि) करोड़ों राजे उसके आगे सिर झुकाते हैं, करोड़ों इन्द्र उसके दर पर खड़े हैं, करोड़ों ही बैकुंठ उसकी (मेहर की) निगाह में हैं, उसके करोड़ों ही नाम हैं, (वह ऐसा है) कि उसका मूल्य नहीं आँका जा सकता।3।

हे भाई! (वह गोबिंद ऐसा है कि) उसके दर पर करोड़ों (संख आदि) नाद पूरे (बजाए) जाते हैं, उसके करोड़ों ही जगत-अखाड़े हैं, उसके रचे हुए करिश्मे-तमाशे हैरान करने वाले हैं। करोड़ों शिव और करोड़ों शक्तियाँ उसके हुकम में चलने वाली हैं। हे भाई! वह मालिक करोड़ों जीवों को आसरा दे रहा है।4।

कोटि तीरथ जा के चरन मझार ॥ कोटि पवित्र जपत नाम चार ॥ कोटि पूजारी करते पूजा ॥ कोटि बिसथारनु अवरु न दूजा ॥५॥ कोटि महिमा जा की निरमल हंस ॥ कोटि उसतति जा की करत ब्रहमंस ॥ कोटि परलउ ओपति निमख माहि ॥ कोटि गुणा तेरे गणे न जाहि ॥६॥ कोटि गिआनी कथहि गिआनु ॥ कोटि धिआनी धरत धिआनु ॥ कोटि तपीसर तप ही करते ॥ कोटि मुनीसर मुोनि महि रहते ॥७॥ अविगत नाथु अगोचर सुआमी ॥ पूरि रहिआ घट अंतरजामी ॥ जत कत देखउ तेरा वासा ॥ नानक कउ गुरि कीओ प्रगासा ॥८॥२॥५॥ {पन्ना 1156}

पद्अर्थ: मझार = में। पवित्र = स्वच्छ जीवन वाला जीव। बिसथारनु = विस्तार, खिलारा। अवरु = अन्य। चार = सुंदर।5।

निरमल हंस = पवित्र जीवन वाले जीव। ब्रहमंस = (सनक, सनंदन, सनातन, सनतकुमार) ब्रहमा के पुत्र। परलउ = नाश। ओपति = उत्पक्ति। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय।6।

गिआनी = समझदार मनुष्य, आत्मिक जीवन की सूझ वाले। गिआनु = परमात्मा के गुणों की विचार। धिआनी = समाधि लगाने वाले। तपीसर = तपी ईसर, बड़े बड़े ऋषि मुनि। मुोनि = चॅुप (अक्षर 'म' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। असल शब्द है 'मोनि', यहां 'मुनि' पढ़ना है)।7।

अविगत = (अव्यक्त) अदृष्ट। नाथु = पति प्रभू। अगोचर = (अ+गो+चर) ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच से परे। घट = शरीर = (बहुवचन)। अंतरजामी = सबके दिल की जानने वाला। जत कत = जहाँ कहाँ। देखउ = देखूँ, मैं देखता हूँ। कउ = को। गुरि = गुरू ने। प्रगासा = आत्मिक रोशनी।8।

अर्थ: हे भाई! (हमारा वह गोबिंद ऐसा धनी है) कि करोड़ों ही तीर्थ उसके चरणों में हैं (उसके चरणों में जुड़े रहना ही करोड़ों तीर्थों के स्नान के बराबर है), करोड़ों जीव उसका सुंदर नाम जपते हुए सुचॅजे जीवन वाले हो जाते हैं, करोड़ों पुजारी उसकी पूजा कर रहे हैं, उस मालिक ने करोड़ों ही जीवों का पासारा पसारा हुआ है, (उसके बिना) कोई और दूसरा नहीं है।5।

हे भाई! (वह हमारा गोबिंद ऐसा है) कि करोड़ों ही पवित्र जीवन वाले जीव उस की महिमा कर रहे हैं, सनक आदि ब्रहमा के करोड़ों ही पुत्र उसकी उस्तति कर रहे हैं, वह गोबिंद आँख के एक फोर में करोड़ों (जीवों की) उत्पक्ति और नाश (करता रहता) है। हे प्रभू! तेरे करोड़ों ही गुण हैं (हम जीवों द्वारा) गिने नहीं जा सकते।6।

हे भाई! (हमारा वह गोबिंद ऐसा है कि) आत्मिक जीवन की सूझ वाले करोड़ों ही मनुष्य उसके गुणों का विचार बयान करते रहते हैं, समाधियाँ लगाने वाले करोड़ों ही साधू (उसमें) सुरति जोड़ी रखते हैं, (उसका दर्शन करने के लिए) करोड़ों ही बड़े-बड़े तपी तप करते रहते हैं, करोड़ों ही बड़े-बड़े मुनि मौन धारे रखते हैं।7।

हे भाई! हमारा वह पति-प्रभू अदृष्य है, हमारा वह स्वामी ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे है, सब जीवों के दिल की जानने वाला वह प्रभू सब शरीरों में मौजूद है। हे प्रभू! (मुझे) नानक को गुरू ने (ऐसा आत्मिक) प्रकाश बख्शा है कि मैं जिधर-किधर देखता हूँ मुझे तेरा ही निवास दिखाई देता है।8।2।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh