श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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महला ५ ॥ जो पाथर कउ कहते देव ॥ ता की बिरथा होवै सेव ॥ जो पाथर की पांई पाइ ॥ तिस की घाल अजांई जाइ ॥१॥ ठाकुरु हमरा सद बोलंता ॥ सरब जीआ कउ प्रभु दानु देता ॥१॥ रहाउ ॥ अंतरि देउ न जानै अंधु ॥ भ्रम का मोहिआ पावै फंधु ॥ न पाथरु बोलै ना किछु देइ ॥ फोकट करम निहफल है सेव ॥२॥ जे मिरतक कउ चंदनु चड़ावै ॥ उस ते कहहु कवन फल पावै ॥ जे मिरतक कउ बिसटा माहि रुलाई ॥ तां मिरतक का किआ घटि जाई ॥३॥ कहत कबीर हउ कहउ पुकारि ॥ समझि देखु साकत गावार ॥ दूजै भाइ बहुतु घर गाले ॥ राम भगत है सदा सुखाले ॥४॥४॥१२॥ {पन्ना 1160}

नोट: शीर्षक 'महला ५' बताता है कि यह शबद गुरू अरजन देव जी का अपना उचारा हुआ है। ये अंदाजे लगाने के लिए हमारे पास गुरबाणी में से कोई ऐसा सबूत नहीं है कि सतिगुरू जी ने कबीर जी के किसी शबद की अदला-बदली करके ये शबद लिखा है। इतनी बड़ी गिनती में बाणी उचार सकने वाले सतिगुरू जी को कबीर जी के किसी एक शबद का आसरा लेने के जरूरत नहीं हो सकती थी। ये शबद पूरी तरह से सतिगुरू जी का अपना है, हमें इसके ऊपर लिखे 'महला ५' पर यकीन होना चाहिए। अगर 'मिला-जुला' शबद होता, तो शीर्षक में ये बात लिखी हुई होती, जैसे गउड़ी राग में कबीर जी के 14वें शबद का शीर्षक इस प्रकार है: 'गउड़ी कबीर जी की नालि रलाइ लिखिआ महला ५'। वह शबद मिला-जुला है, और उसकी आखिरी दो तुकें गुरू अरजन साहिब जी की हैं।

फिर, इस शबद की यहाँ क्या आवश्यक्ता पड़ी?

कबीर जी का शबद नंबर 11 ध्यान से पढ़ के देखें। सारे शबद में मुलां काज़ी आदि का ही जिक्र है, और बड़ा ही स्पष्ट और खुला जिक्र है। आखिरी बंद में हिन्दू का इशारे मात्र के लिए जिकर है। लिखा है 'हिंदू राम नामु उचरै'। विचार को अच्छी तरह से स्पष्ट नहीं किया गया है। चाहे कबीर जी ने आखिरी तुक में अपना आशय प्रकट कर दिया है 'कबीर का सुआमी रहिआ समाइ'। फिर भी अंजान पाठक को भुलेखा पड़ सकता है।

इसी भुलेखे की गुंजायश को दूर करने के लिए सतिगुरू अरजन देव जी ने स्पष्ट लिख दिया है कि उस तुक ('हिंदू राम नामु उचरै') से कबीर जी का भाव 'रामचंद्र जी की मूर्ति' से है। किसी एक मूर्ति में ईश्वर को बैठा मिथ लेना भूल है।

पद्अर्थ: पांई = पैरों पर। घाल = मेहनत।1।

सद = सदा।1। रहाउ।

अंतरि = अंदर बसता। देउ = प्रभू। अंधु = अंधा मनुष्य। फंधु = फंदा, जाल। फोकट = फोके।2।

पुकारि = पुकार के। साकत = हे साकत! दूजै भाइ = प्रभू को छोड़ के किसी और के प्यार में।4।

अर्थ: हमारा ठाकुर सदा बोलता है, वह प्रभू सारे जीवों को दातें देने वाला है।1। रहाउ।

जो मनुष्य पत्थर (की मूर्ति) को ईश्वर कहते हैं, उनकी की हुई सेवा व्यर्थ जाती है। जो मनुष्य पत्थर (की मूर्ति) के पैरों में नत्मस्तक होते हैं, उनकी मेहनत बेकार चली जाती है।1।

अंधा मूर्ख अपने अंदर बसते रॅब को नहीं पहचानता, भ्रम का मारा हुआ और-और जाल बिछाता है। यह पत्थर ना बोलता है, ना कुछ दे सकता है, (इसको स्नान करवाने और भोग आदि लगवाने के) सारे काम व्यर्थ हैं, (इसकी सेवा में से कोई फल नहीं मिलता)।2।

यदि कोई मनुष्य मुर्दे को चंदन (रगड़ के) लगा दे, उस मुर्दे को (इस सेवा का) कोई फल नहीं मिल सकता। और, यदि कोई मुर्दे को विष्टा में पलीत कर दे, तो भी उस मुर्दे का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है।3।

कबीर कहता है- मैं पुकार-पुकार के कहता हूँ 'हे ईश्वर से टूटे हुए मूर्ख! समझ के देख, रॅब को छोड़ के औरों से प्यार डाल के बहुत सारे जीव तबाह हो गए। सदा सुखी जीवन वाले सिर्फ वही हैं जो प्रभू के भक्त हैं।4।4।12।

नोट: गुरू अरजन देव जी ने भी शब्द 'राम' ही बरता है 'राम भगत है सदा सुखाले'; कबीर जी ने भी 'हिंदू राम नामु उचरै' में शब्द 'राम' ही बरता है। पर सतिगुरू जी ने 'कबीर का सुआमी रहिआ समाइ' में इशारे मात्र बताई बात को अपने इस शबद में विस्तार से समझा दिया है कि हिन्दू तो श्री राम चंद्र जी की मूर्ति की पूजा करते हुए 'राम-राम' कहते हैं, पर कबीर जी उस 'राम' को सिमरते हैं जो 'रहिआ समाइ' और जो 'सरब जीआ कउ दानु देता'।

यह शबद तो सतिगुरू जी का अपना उचारा हुआ है। पर इसके आखिर में 'नानक' की जगह शब्द 'कबीर' बरता गया है, क्योंकि ये शबद कबीर जी के शबद नं: 11 के प्रथाय ही उचारने की आवश्यक्ता पड़ी थी। इस बात को और गहराई से समझने के लिए मेरी पुस्तक 'गुरमति प्रकाश' में पढ़ें 'धंने भगत दी ठाकुर पूजा' और 'सूरदास'। (सिंघ ब्रदर्ज, अमृतसर से मिलेगी)।

जल महि मीन माइआ के बेधे ॥ दीपक पतंग माइआ के छेदे ॥ काम माइआ कुंचर कउ बिआपै ॥ भुइअंगम भ्रिंग माइआ महि खापे ॥१॥ माइआ ऐसी मोहनी भाई ॥ जेते जीअ तेते डहकाई ॥१॥ रहाउ ॥ पंखी म्रिग माइआ महि राते ॥ साकर माखी अधिक संतापे ॥ तुरे उसट माइआ महि भेला ॥ सिध चउरासीह माइआ महि खेला ॥२॥ छिअ जती माइआ के बंदा ॥ नवै नाथ सूरज अरु चंदा ॥ तपे रखीसर माइआ महि सूता ॥ माइआ महि कालु अरु पंच दूता ॥३॥ सुआन सिआल माइआ महि राता ॥ बंतर चीते अरु सिंघाता ॥ मांजार गाडर अरु लूबरा ॥ बिरख मूल माइआ महि परा ॥४॥ माइआ अंतरि भीने देव ॥ सागर इंद्रा अरु धरतेव ॥ कहि कबीर जिसु उदरु तिसु माइआ ॥ तब छूटे जब साधू पाइआ ॥५॥५॥१३॥ {पन्ना 1160}

पद्अर्थ: डहकाई = भरमाती है, भटकना में डालती है।1। रहाउ।

मीन = मछलियां। बेधे = भेदे हुए। दीपक = दीए। पतंग = पतंगे। कुंचर = हाथी। बिआपै = दबाव डाल लेती है। भुइअंगम = साँप। भ्रिंग = भौरे। खापे = खपे हुए।1।

म्रिग = जंगल के पशू। साकर = शक्कर, मीठा। संतापे = दुख देती है। तुरे = घोड़े। उसट = ऊँठ। भेला = घिरे हुए, ग्रसे हुए।2।

छिअ जती = छे जती (हनूमान, भीष्म पितामह, लक्ष्मण, भैरव, गोरख, दक्तात्रैय)। बंदा = गुलाम। रखीसर = बड़े बड़े ऋषि।3।

सिआल = सिआर, गीदड़। बंतर = बंदर। माजार = बिल्ले। गाडर = भेड़ें।4।

सागर = समुंद्र (में बसते जीव)। इंद्रा = इन्द्र (-पुरी, भाव, स्वर्ग में रहने वाले देवते आदि)। धरतेव = धरती (के जीव)। उदरु = पेट।5।

अर्थ: हे भाई! माया इतनी बलवान, मोहने वाली है कि जितने भी जीव (जगत में) हैं,? सब को डोला देती है।1। रहाउ।

पानी में रहने वाली मछलियाँ माया में भेदी हुई हैं, दीयों पर (जलने वाले) पतंगे माया में परोए हुए हैं। काम-वासना रूपी माया हाथी को अपने वश में किए रखती है; साँप और भौरे भी माया में दुखी हो रहे हैं।1।

पंछी, जंगल के पशू सब माया में रंगे पड़े हैं। शक्कर-रूपी माया मक्खी को बड़ा दुखी कर रही है। घोड़े-ऊँठ सब माया में फसे हुए हैं। चौरासी सिध भी माया में खेल रहे हैं।2।

जती भी माया के ही गुलाम हैं। नौ नाथ सूरज (देवता) और चंद्रमा (देवता) बड़े-बड़े तपी और ऋषि सब माया में सोए पड़े हैं। मौत (का सहम) और पाँचों विकार भी माया में ही (जीवों को व्यापते हैं)।3।

कुत्ते, गीदड़, बंदर, चीते, शेर सब माया में रंगे हुए हैं। बिल्ले, भेड़ें, लोमड़ी, वृक्ष, कंद-मूल सब माया के अधीन हैं।4।

देवतागण भी माया (के मोह) में भीगे हुए हैं। समुंद्र, स्वर्ग, धरती इन सबके जीव भी माया में ही हैं। कबीर कहता है- (सिरे की बात यह है कि) जिसके भी पेट लगा हुआ है उसको (भाव, हरेक जीव को) माया व्याप रही है। जब गुरू मिले तब ही जीव माया के प्रभाव से बचता है।5।5।13।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh