श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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निरधन आदरु कोई न देइ ॥ लाख जतन करै ओहु चिति न धरेइ ॥१॥ रहाउ ॥ जउ निरधनु सरधन कै जाइ ॥ आगे बैठा पीठि फिराइ ॥१॥ जउ सरधनु निरधन कै जाइ ॥ दीआ आदरु लीआ बुलाइ ॥२॥ निरधनु सरधनु दोनउ भाई ॥ प्रभ की कला न मेटी जाई ॥३॥ कहि कबीर निरधनु है सोई ॥ जा के हिरदै नामु न होई ॥४॥८॥ {पन्ना 1159}

पद्अर्थ: निरधन = धन हीन को, कंगाल को। कोई = कोई धन वाला मनुष्य। ओहु = वह धनी मनुष्य। चिति न धरेइ = कंगाल के यत्नों पर ध्यान ही नहीं देता।1। रहाउ।

सरधन = धनी। सरधन कै = धनी मनुष्य के घर।1।

कला = खेल, रज़ा।3।

जा कै हिरदै = जिसके हृदय में।4।

अर्थ: कोई (धनी) मनुष्य किसी कंगाल मनुष्य का आदर नहीं करता। कंगाल मनुष्य चाहे लाखों यतन (धनवान को प्रसन्न करने के) करे, वह धनी मनुष्य (उसके यत्नों की) परवाह नहीं करता।1। रहाउ।

यदि कभी कोई गरीब बंदा किसी धनवान के घर चला जाए, आगे वह धनवान बैठा (उस गरीब से) पीठ मोड़ लेता है।1।

पर अगर धनी मनुष्य गरीब के घर जाए, वह आदर देता है, स्वागत करता है।2।

प्रभू की यह रजा (जिसके कारण कोई गरीब रह गया और कोई धनी बन गया) मिटाई नहीं जा सकती, वैसे कंगाल और धनवान दोनों भाई भाई ही हैं (धनी को इतना गुमान नहीं करना चाहिए)।3।

कबीर कहता है- (असल में) वह मनुष्य ही कंगाल है जिसके हृदय में प्रभूका नाम नहीं है (क्योंकि धन यहीं रह जाता है, और नाम-धन ने साथ निभना है; दूसरा, कितना ही धन मनुष्य इकट्ठा करता जाए, कभी संतुष्ट नहीं होता, मन भूखा कंगाल ही रहता है)।4।8।

गुर सेवा ते भगति कमाई ॥ तब इह मानस देही पाई ॥ इस देही कउ सिमरहि देव ॥ सो देही भजु हरि की सेव ॥१॥ भजहु गुोबिंद भूलि मत जाहु ॥ मानस जनम का एही लाहु ॥१॥ रहाउ ॥ जब लगु जरा रोगु नही आइआ ॥ जब लगु कालि ग्रसी नही काइआ ॥ जब लगु बिकल भई नही बानी ॥ भजि लेहि रे मन सारिगपानी ॥२॥ अब न भजसि भजसि कब भाई ॥ आवै अंतु न भजिआ जाई ॥ जो किछु करहि सोई अब सारु ॥ फिरि पछुताहु न पावहु पारु ॥३॥ सो सेवकु जो लाइआ सेव ॥ तिन ही पाए निरंजन देव ॥ गुर मिलि ता के खुल्हे कपाट ॥ बहुरि न आवै जोनी बाट ॥४॥ इही तेरा अउसरु इह तेरी बार ॥ घट भीतरि तू देखु बिचारि ॥ कहत कबीरु जीति कै हारि ॥ बहु बिधि कहिओ पुकारि पुकारि ॥५॥१॥९॥ {पन्ना 1159}

पद्अर्थ: ते = से। देही = शरीर। पाई = पा ली। देही कउ = शरीर की खातिर।1।

गुोबिंद = (असल शब्द है 'गोबिंद', यहां 'गुबिंद' पढ़ना है)। लाहु = लाभ।1। रहाउ।

जरा = बुढ़ापा। कालि = काल ने। ग्रसी = दबोच ली, पकड़ ली। काइआ = शरीर। बिकल = विकल।2।

अब = अब। भाई = हे भाई! अंतु = आखिरी समय। सारु = संभाल कर।3।

कपाट = किवाड़। बाट = रास्ता।4।

अउसरु = अवसर, मौका। बार = बारी। कै = चाहे, अथवा।5।

अर्थ: हे भाई! गोबिंद को सिमरो, ये बात भुला ना देनी। यह सिमरन ही मनुष्य-जन्म की कमाई है।1। रहाउ।

हे भाई! अगर तू गुरू की सेवा से बँदगी की कमाई करे, तो ही यह मनुष्य-शरीर मिला हुआ समझ। इस शरीर के लिए तो देवते भी तरसते हैं। तुझे ये शरीर (मिला है, इससे) नाम सिमर, हरी का भजन कर।1।

जब तक बुढ़ापा-रूपी रोग नहीं आ गया, जब तक तेरे शरीर को मौत ने नहीं जकड़ा, जब तक तेरी ज़बान थिरकने नहीं लग जाती, (उससे पहले पहले ही) हे मेरे मन! परमात्मा का भजन कर ले।2।

हे भाई! यदि तू इस वक्त भजन नहीं करता, तो फिर कब करेगा? जब मौत (सिर पर) आ पहुँची उस वक्त तो भजन हो नहीं सकेगा। जो कुछ (भजन-सिमरन) तू करना चाहता है, अभी ही कर ले, (यदि समय गुजर गया) तो फिर अफसोस ही करेगा, और इस पछतावे में से खलासी नहीं होगी।3।

(पर जीव के भी क्या वश?) जिस मनुष्य को प्रभू स्वयं बँदगी में जोड़ता है, वही उसका सेवक बनता है, उसी को प्रभू मिलता है, सतिगुरू को मिल के उसके मन के किवाड़ खुलते हैं, और वह दोबारा जनम (मरण) के चक्कर में नहीं आता।4।

कबीर कहता है- हे भाई! मैं तुझे कई तरीकों से चिल्ला-चिल्ला के बता रहा हूँ, (तेरी मर्जी है इस मनुष्य जनम की बाज़ी) जीत के जा चाहे हार के जा। तू अपने हृदय में विचार करके देख ले (प्रभू को मिलने का) यह मानस-जनम ही मौका है, यही बारी है (यहाँ से टूट के समय नहीं मिलना)।5।1।9।

सिव की पुरी बसै बुधि सारु ॥ तह तुम्ह मिलि कै करहु बिचारु ॥ ईत ऊत की सोझी परै ॥ कउनु करम मेरा करि करि मरै ॥१॥ निज पद ऊपरि लागो धिआनु ॥ राजा राम नामु मोरा ब्रहम गिआनु ॥१॥ रहाउ ॥ मूल दुआरै बंधिआ बंधु ॥ रवि ऊपरि गहि राखिआ चंदु ॥ पछम दुआरै सूरजु तपै ॥ मेर डंड सिर ऊपरि बसै ॥२॥ पसचम दुआरे की सिल ओड़ ॥ तिह सिल ऊपरि खिड़की अउर ॥ खिड़की ऊपरि दसवा दुआरु ॥ कहि कबीर ता का अंतु न पारु ॥३॥२॥१०॥ {पन्ना 1159}

नोट: शबद का मुख्य भाव 'रहाउ' की तुक में होता है, बाकी के 'बंद' रहाउ की तुक का विकास होते हैं। 'रहाउ' की पंक्ति में कबीर जी कहते हैं कि मेरी सुरति उस घर में जुड़ गई है जो घर पूरी तरह से मेरा अपना है। प्रकाश-स्वरूप परमात्मा का नाम हृदय में बसाना ही मेरे लिए 'ब्रहम-ज्ञान' है। इस अवस्था का क्या स्वरूप है? इस अवस्था में पहुँच के व्यवहारिक जीवन कैसा बन जाता है? - इसकी व्याख्या शबद के तीन 'बंदों' में है- 1. मति श्रेष्ठ हो के प्रभू में टिकती है और 'मेर-तेर' को मिटा देती है; 2. मन विकारों से रुक जाता है, अंदर ठंड पड़ जाती है, अज्ञानता दूर हो जाती है, प्रभू चरणों की ओर लगन बन जाती है; 3. अज्ञानता के अंधेरे में से निकल के रौशनी मिल जाती है, सुरति ऐसी ऊँची हो जाती है कि सदा एक-रस बनी रहती है।

शबद में सारे शब्द जोगियों वाली बोली वाले बरते हैं, क्योंकि किसी जोगी से बातचीत की गई है। जोगी को समझाते हैं कि प्रभू का नाम हृदय में बसना ही सबसे ऊँचा ज्ञान है, और यही नाम जीवन में सुंदर तब्दीली लाता है।

पद्अर्थ: सिव की पुरी = कल्याण-स्वरूप प्रभू के शहर में। सारु बुधि = श्रेष्ठ मति। तह = उस शिव पुरी में। तुम् = (हे जोगी!) तुम भी। मिलि = मिल के, पहुँच के। ईत ऊत की सोझी = इस लोक और परलोक की समझ, ये समझ कि अब का जीवन कैसा बने और परलोक के जीवन पर इसका क्या असर पड़ेगा। करम मेरा = मेरा काम, ममता के काम, अपनत्व के काम। मरै = ख्वार होता है।1।

निज पद ऊपरि = उस घर में जो निरोल मेरा अपना है। मोरा ब्रहम गिआनु = मेरे लिए ब्रहम ज्ञान है।1। रहाउ।

मूल = जगत का मूल प्रभू। मूल दुआरै = जगत के मूल प्रभू के दर पर (टिक के)। बंधिआ = मैंने बाँध लिया है। बंधु = बांध, (माया की बाढ़ को रोकने के लिए) बाँध। रवि = सूरज, सूर्य की तपश, तपश, तमो गुणी स्वभाव। गहि = पकड़ के, हासिल करके। चंदु = ठंड, शीतलता, शांति। राखिआ = मैंने रख दी है, मैंने कायम कर दी है। पछम दुआरै = पश्चिम की ओर के दरवाजे पर, उधर जिधर अंधेरा है ।

(नोट: सूर्य उगने के वक्त उगने के कारण पश्चिम की ओर उस वक्त अंधेरा होता है)। मेर- (संस्कृत: मेरु name of a fabulous mountain round which all the planets are said to revolve) एक पहाड़ जिसके चारों तरफ आकाश के सारे ग्रह चक्कर खाते मिथे गए हैं। डंड-संस्कृत: दण्ड-The sceptre of a king, the rod as a symbol of authority and punishment, शाही आशा, शाही चोब (नोट: राज दरबारों के दरवाजे पर चौबदार खड़ा होता है)। मेर डंड-वह जिसका 'डंड' मेरु जैसा है, वह प्रभू जिसका शाही चोब 'मेरु' जैसा है (सं: मेरु इव दण्डो यस्य), वह प्रभू जिसकी शाही चोब के चारों तरफ सारा जगत चक्कर लगाता है जैसे सारे ग्रह मेरु के इर्द-गिर्द।

सिर ऊपरि = दसम द्वार में, दिमाग में, मन में।2।

पसचम दुआरे की-उस स्थान के दरवाजे की जहाँ अंधेरा है। सिल ओड़-सिल का आखिरी सिरा। पसचम...ओड़-उस सिल का आखिरी सिरा (मिल गया है) जो अंधेरे स्थान के दरवाजे के आगे (जड़ी हुई थी)।

खिड़की = ताकी ।3।

(नोट: घरों में हवा और रोशनी के लिए खिड़कियां रखी जाती हैं) रोशनी का प्रबंध।

अर्थ: ( हे जोगी!) मेरी सुरति उस (प्रभू के चरण-रूप) घर में जुड़ी हुई है जो मेरा अपना असली घर है, प्रकाश-रूप प्रभू का नाम (हृदय में बसना) ही मेरे लिए ब्रहम-ज्ञान है।1। रहाउ।

(इस नाम की बरकति से) मेरी मति श्रेष्ठ (बन के) कल्याण-स्वरूप प्रभू के देश में बसने लग गई है। (हे जोगी!) तुम भी उस देश में पहुँच के प्रभू के नाम की ही विचार करो, (जो मनुष्य उस देश में पहुँचता है, भाव, जो मनुष्य प्रभू-चरणों में जुड़ा रहता है उसको) ये समझ आ जाती है कि अब वाला जीवन कैसा होना चाहिए, और इसका असर अगले जीवन पर क्या पड़ता है; उस देश में पहुँचा हुआ कोई भी मनुष्य ममता में फंसने वाले काम नहीं करता।1।

(हे जोगी! इस नाम की बरकति से) मैंने जगत के मूल प्रभू के दर पर टिक के (माया की बाढ़ के आगे) बाँध लगा लिया है। मैंने शांति-स्वभाव को ग्रहण करके इसको (अपने) तमो गुणी स्वभाव पर टिका दिया है। जहाँ (पहले अज्ञानता का) अंधेरा ही अंधेरा था, उसके दरवाजे पर अब ज्ञान का सूरज चमक रहा है। वह प्रभू, जिसके हुकम में सारा जगत है, अब मेरे मन में बस रहा है।2।

(नाम की बरकति से, हे जोगी!) मुझे उस शिला का आखिरी सिरा (मिल गया है) जो अज्ञानता की अंधेरी जगह के दरवाजे (के आगे जड़ा हुआ था), क्योंकि इस शिला पर मुझे (रोशनी देने वाली) एक और खिड़की मिल गई है, इस खिड़की के ऊपर ही है दसवाँ द्वार (जहाँ मेरा प्रभू बसता है)। कबीर कहता है-अब ऐसी दशा बनी हुई है जो खत्म नहीं हो सकती।3।2।10।

सो मुलां जो मन सिउ लरै ॥ गुर उपदेसि काल सिउ जुरै ॥ काल पुरख का मरदै मानु ॥ तिसु मुला कउ सदा सलामु ॥१॥ है हजूरि कत दूरि बतावहु ॥ दुंदर बाधहु सुंदर पावहु ॥१॥ रहाउ ॥ काजी सो जु काइआ बीचारै ॥ काइआ की अगनि ब्रहमु परजारै ॥ सुपनै बिंदु न देई झरना ॥ तिसु काजी कउ जरा न मरना ॥२॥ सो सुरतानु जु दुइ सर तानै ॥ बाहरि जाता भीतरि आनै ॥ गगन मंडल महि लसकरु करै ॥ सो सुरतानु छत्रु सिरि धरै ॥३॥ जोगी गोरखु गोरखु करै ॥ हिंदू राम नामु उचरै ॥ मुसलमान का एकु खुदाइ ॥ कबीर का सुआमी रहिआ समाइ ॥४॥३॥११॥ {पन्ना 1159-1160}

पद्अर्थ:

नोट: शब्द 'मुलां' के दोनों अक्षर 'म' और 'ल' लेकर अर्थ किए गए हैं; 'मन' और 'लरै'।

काल सिउ = मौत (के सहम) से। जुरै = जुट गए, लड़ै, मुकाबला करे। काल = मौत, जम। काल पुरख = जम राज। मानु = अहंकार। मरदै = मल दे।1।

दूरि = कहीं सातवें आसमान पर। दुंदर = शोर मचाने वाले कामादिक।1। रहाउ।

काइआ की अगनी ब्रहम = काया की ब्राहमाग्नि, काया में प्रभू की ज्योति। ब्रहम अगनि = प्रभू की ज्योति। परजारै = अच्छी तरह रौशन करे। बिंदु = वीर्य। जरा = बुढ़ापा।2।

सुरतानु = सुल्तान। दुइ सर = दो तीर (ज्ञान और वैराग)। आनै = लाए। गगन मंडल = दसम द्वार में, दिमाग़ में, मन में। लसकरु = शुभ गुणों की फौज।3।

राम नामु = मूर्ति में मिथे हुए श्री राम चंद्र जी का नाम। ऐकु = अपना।4।

अर्थ: (हे मुल्ला!) रॅब हर जगह हाजर-नाज़र है, तुम उसको दूर (किसी सातवें आसमान पर) क्यों (बैठा) बताते हो? अगर उस सुंदर रॅब को मिलना है, तो कामादिक शोर डालने वाले विकारों को काबू में रखो।1। रहाउ।

असल मुल्ला वह है जो अपने मन से मुकाबला करता है (भाव, मन को वश में करने का प्रयत्न करता है), गुरू के बताए हुए उपदेश पर चल के मौत (और सहम) का मुकाबला करता है, जो जम-राज का (यह) मान (कि सारा जगत उससे थर-थर काँपता है) नाश कर देता है। मैं ऐसे मुल्ला के आगे सदा सिर झुकाता हूँ।1।

असली काज़ी वह है जो अपने शरीर को खोजे, शरीर में प्रभू की ज्योति को रौशन करे, सपने में भी काम की वासना मन में ना आने दे। ऐसे काज़ी को बुढ़ापे और मौत का डर नहीं रह जाता।2।

असल सुल्तान (बादशाह) वह है जो (ज्ञान और वैराग के) दो तीर तानता है, बाहरी दुनियाँ के पदार्थों की ओर भटकते मन को अंदर की ओर मोड़ लेता है, प्रभू-चरणों में जुड़ के अपने अंदर भले गुण पैदा करता है। वह सुल्तान अपने सिर पर (असल) छत्र झुलवाता है।3।

जोगी (प्रभू को विसार के) गोरख-गोरख जपता है, हिन्दू (श्री रामचंद्र जी की मूर्ति में ही मिथे हुए) राम का नाम उचारता है, मुसलमान ने (सातवें आसमान में बैठा हुआ) निरा अपना (मुसलमानों का ही) रॅब मान रखा है। पर मेरा कबीर का प्रभू वह है, जो सबमें व्यापक है (और सबका सांझा है)।4।3।11।

नोट: इस शबद के बंद नंबर 2 की तुकों को सामने रख के रामकली की वार महला ३ की पउड़ी नं:12 के साथ दर्ज किया हुआ गुरू नानक देव जी का शलोक नंबर 5 पढ़ के देखो। एक तो तुकें ही सांझी हैं; दूसरे पखंडी आदि शब्दों का अर्थ करने में वही तरीका बरता है जो कबीर जी ने शब्द 'मुलां' आदि के लिए।

महला १॥ सो पाखंडी, जि काइआ पखाले॥ काइआ की अगनि ब्रहमु परजाले॥ सुपनै बिंदु न देई झरणा॥ तिसु पाखंडी जरा न मरणा॥४॥१२॥ (पन्ना ९५३)

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh