श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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नांगे आवनु नांगे जाना ॥ कोइ न रहिहै राजा राना ॥१॥ रामु राजा नउ निधि मेरै ॥ स्मपै हेतु कलतु धनु तेरै ॥१॥ रहाउ ॥ आवत संग न जात संगाती ॥ कहा भइओ दरि बांधे हाथी ॥२॥ लंका गढु सोने का भइआ ॥ मूरखु रावनु किआ ले गइआ ॥३॥ कहि कबीर किछु गुनु बीचारि ॥ चले जुआरी दुइ हथ झारि ॥४॥२॥ {पन्ना 1158}

पद्अर्थ: न रहि है = नहीं रहेगा।1।

रामु राजा = सारे जगत का मालिक प्रभू!

(नोट: शब्द 'राजा' संबोधन में नहीं है, वह है 'राजन'; जैसे 'राजन! कउन तुमारै आवै')।

नउ निधि = नौ खजाने, जगत का सारा धन माल। मेरे = मेरे लिए, मेरे हृदय में। संपै हेतु = ऐश्वर्य का मोह। कलतु = कलत्र, स्त्री। तेरै = तेरे लिए, तेरे मन में।1। रहाउ।

संगाती = साथ। दरि = दर पर।2।

गढु = गढ़, किला।3।

कहि = कहै, कहता है। गुनु = गुण। दुइ हथ झारि = दोनों हाथ झाड़ के, खाली हाथ।4।

नोट: लोगों में आम प्रचलित ख्यालों को उनके सामने रख के भगत जी जीवन का सही रास्ता बताते हैं। लंका का किला समूचा सोने का बना हुआ था अथवा नहीं, इस बात से भगत जी का वास्ता नहीं है। लोगों में यही बात मशहूर है कि रावण की लंका सोने की थी, और लोग रावण के अंत का हाल भी जानते हैं कि महलों में कोई दीया जलाने वाला भी नहीं रह गया। सो, इसी प्रसिद्ध कहानी को सामने रख के समझाते हैं कि धन-पदार्थ का आसरा लेना कच्ची बात है।

अर्थ: हे भाई! मेरे लिए तो जगत के मालिक प्रभू का नाम ही जगत का सारा धन-माल है (भाव, प्रभू मेरे हृदय में बसता है, यही मेरे लिए सब कुछ है)। पर तेरे लिए ऐश्वर्य का मोह, स्त्री धन- (यही जिंदगी का सहारा हैं)।1। रहाउ।

(जगत में) नंगे आना है, और नंगे ही (यहाँ से) चले जाना है। कोई राजा हो, अमीर हो, किसी ने यहाँ सदा नहीं रहना।1।

अगर दरवाजे पर हाथी बँधे हुए हैं, तो भी क्या हुआ? (इनका हमारे साथ जाना तो कहीं रहा, यह अपना शरीर भी) जो जन्म के समय साथ आता है (चलने के वक्त) साथ नहीं जाता।2।

(लोग कहते हैं कि) लंका का किला सोने का बना हुआ था (पर इसके गुमान में रहने वाला) मूर्ख रावण (मरने के वक्त) अपने साथ कुछ भी नहीं ले के गया।3।

कबीर कहता है- हे भाई! कोई भलाई की बात भी विचार, (धन पर गुमान करने वाला बँदा) जुआरिए की तरह (जगत से) खाली हाथ चल पड़ता है।4।2।

मैला ब्रहमा मैला इंदु ॥ रवि मैला मैला है चंदु ॥१॥ मैला मलता इहु संसारु ॥ इकु हरि निरमलु जा का अंतु न पारु ॥१॥ रहाउ ॥ मैले ब्रहमंडाइ कै ईस ॥ मैले निसि बासुर दिन तीस ॥२॥ मैला मोती मैला हीरु ॥ मैला पउनु पावकु अरु नीरु ॥३॥ मैले सिव संकरा महेस ॥ मैले सिध साधिक अरु भेख ॥४॥ मैले जोगी जंगम जटा सहेति ॥ मैली काइआ हंस समेति ॥५॥ कहि कबीर ते जन परवान ॥ निरमल ते जो रामहि जान ॥६॥३॥ {पन्ना 1158}

पद्अर्थ: इंदु = देवताओं का राजा इन्द्र। रवि = सूर्य।1।

मलता = मलीन।1। रहाउ।

ईस = ईश, राजे। ब्रहमंडाइ कै = ब्रहमण्डों के। निसि = रात। बासरु = दिन। तीस = गिनती के तीस।2।

हीरु = हीरा। पावकु = आग।3।

संकरा = शिव। महेस = शिव। सिध = जोग साधनों में सिद्धहस्त योग। साधिक = जोग के साधन करने वाले। भेख = कई भेषों के साधू।4।

जंगम = शैव मत का एक पंथ जो जोगियों की एक शाखा है। जंगम अपने सिर पर साँप के शक्ल की रस्सी और धातुका चँद्रमा पहनते हैं। कानों में मुंद्रों की जगह पीतल के फूल जिसे मोर-पंखों से सजाया होता है, पहनते हैं। जंगमों के दो धड़े हैं- विरक्त और गृहस्ती। सहेति = समेत। काइआ = शरीर। हंस = जीवात्मा।5।

परवान = कबूल। रामहि = परमात्मा को।6।

अर्थ: ये (सारा) संसार मैला है, मलीन है, केवल परमात्मा ही पवित्र है, (इतना पवित्र है कि उसकी पवित्रता का) अंत नहीं पाया जा सकता, उस पार का छोर नहीं मिल सकता।1। रहाउ।

ब्रहमा (भले ही जगत को पैदा करने वाला मिथा जाता है पर) ब्रहमा भी मैला, इन्द्र भी मैला (चाहे वह देवताओं का राजा माना गया है)। (दुनिया को रौशनी देने वाले) सूर्य और चंद्रमा भी मैले हैं।1।

ब्रहमण्डों के राजा (भी हो जाएं तो भी) मैले हैं; रात-दिन, महीने के तीसों दिन सब मैले हैं (बेअंत जीव-जंतु विकारों से इनको मैला किए जा रहे हैं)।2।

(इतने कीमती होते हुए भी) मोती के हीरे भी मैले हैं, हवा, आग और पानी भी मैले हैं।3।

शिव-शंकर-महेश भी मैले हैं (भले ही ये महान देवता मिथे गए हैं)। सिध, साधक और भेखधारी साधू सब मैले हैं।4।

जोगी, जंगम, जटाधारी सब अपवित्र हैं; यह शरीर भी मैला और जीवात्मा भी मैला हुआ पड़ा है।5।

कबीर कहता है- सिर्फ वह मनुष्य (प्रभू के दर पर) कबूल हैं, सिर्फ वह मनुष्य पवित्र हैं जिन्होंने परमात्मा के साथ सांझ डाली है।6।3।

मनु करि मका किबला करि देही ॥ बोलनहारु परम गुरु एही ॥१॥ कहु रे मुलां बांग निवाज ॥ एक मसीति दसै दरवाज ॥१॥ रहाउ ॥ मिसिमिलि तामसु भरमु कदूरी ॥ भाखि ले पंचै होइ सबूरी ॥२॥ हिंदू तुरक का साहिबु एक ॥ कह करै मुलां कह करै सेख ॥३॥ कहि कबीर हउ भइआ दिवाना ॥ मुसि मुसि मनूआ सहजि समाना ॥४॥४॥ {पन्ना 1158}

पद्अर्थ: मका = मक्का, अरब देश का एक शहर जहाँ मुसलमान हज करने जाते हैं। किबला = काबे की चार दिवारी जिसकी ज़िआरत करते हैं। किबला = (क्रिया विशेषण) सामने, सन्मुख। 2. जिसकी तरफ मुँह करें, ऐसा धर्म मन्दिर, काबा। मक्के में मुसलमानों का प्रसिद्ध मन्दिर। परम गुरु = बड़ा पीर।1।

रे मुलां = हे मुल्ला! दसै दरवाज = दस दरवाजों वाली।1। रहाउ।

मिसिमिलि = (बिसमिलु, बिसमिल्ला, अल्लाह के नाम पर। बकरा आदि पशू मारने के वक्त मुसलमान मुँह से 'बिसमिल्ला' कहता है, भाव यह, कि रॅब के आगे भेट करता है। यहाँ इसका अर्थ 'जीव को कष्ट दे के मारना' बन गया है) मार दे। तामसु = तामसी स्वभाव, क्रोध आदि वाला स्वभाव। कदूरी = कुदरति, मन की मैल। भाखि ले = खा ले, खत्म कर दे। पंचै = कामादिक पाँचों को। सबूरी = सब्र, धैर्य, शांति।2।

कह = क्या?।3।

दिवाना = पागल। मुसि मुसि = सहजे सहजे। मनूआ = अंजान मन। सहजि = सहज अवस्था में।4।

अर्थ: हे मुल्ला! यह दस दरवाजों (इन्द्रियों) वाला शरीर ही असल मस्जिद है, इसमें टिक के बाँग दे और नमाज़ पढ़।1। रहाउ।

हे मुल्ला! मन को मक्का और परमात्मा को किबला बना। (अंतहकर्ण मक्का है और सब शरीरों का स्वामी करतार उसमें पूज्य है)। बोलने वाला जीवात्मा बाँग देने वाला और नायक हो के नमाज़ पढ़ने वाला परम गुरू (इमाम) है।1।

(हे मुल्ला! पशू की कुर्बानी देने की जगह अपने अंदर से) क्रोध भरा स्वभाव, भटकना और कदूरत दूर कर, कामादिक पाँचों को समाप्त कर दे, तेरे अंदर शांति पैदा होगी।2।

मुल्ला व शेख (बनने से प्रभू की हजूरी में) कोई खास बड़ा मरतबा नहीं मिल जाता। हिन्दू व मुसलमान दोनों का मालिक प्रभू स्वयं ही है।3।

कबीर कहता है- (मेरी ये बातें तंग-दिल लोगों को पागलों वाली लगती हैं; लोगों के लिए तो) मैं पागल हो गया हूँ, पर मेरा मन आहिस्ता-आहिस्ता (अंदर से हॅज कर के ही) अडोल अवस्था में टिक गया है।4।4।

गंगा कै संगि सलिता बिगरी ॥ सो सलिता गंगा होइ निबरी ॥१॥ बिगरिओ कबीरा राम दुहाई ॥ साचु भइओ अन कतहि न जाई ॥१॥ रहाउ ॥ चंदन कै संगि तरवरु बिगरिओ ॥ सो तरवरु चंदनु होइ निबरिओ ॥२॥ पारस कै संगि तांबा बिगरिओ ॥ सो तांबा कंचनु होइ निबरिओ ॥३॥ संतन संगि कबीरा बिगरिओ ॥ सो कबीरु रामै होइ निबरिओ ॥४॥५॥ {पन्ना 1158}

पद्अर्थ: सलिता = नदी। बिगरी = बिगड़ गई। निबरी = निबड़ गई, समाप्त हो गई, स्वै को मिटा लिया।1।

राम दुहाई = राम की दोहाई दे के, प्रभू का नाम सिमर सिमर के। अन कतहि = और किसी भी जगह।1। रहाउ।

तरवरु = वृक्ष।2।

कंचनु = सोना।3।

अर्थ: कबीर अपने प्रभू का सिमरन हर वक्त कर रहा है (पर लोगों की बाबत) कबीर बिगड़ गया है (लोग नहीं जानते कि राम की दोहाई दे दे के) कबीर राम का रूप हो गया है, अब (राम को छोड़ के) किसी और तरफ़ नहीं भटकता।1। रहाउ।

(अगर जिंद के मालिक प्रभू के चरणों से लगना बिगड़ना ही है तो) नदी भी गंगा के साथ मिल के बिगड़ जाती है, पर वह नदी तो गंगा का रूप हो के अपना आप समाप्त कर देती है।1।

(साधारण) वृक्ष भी चँदन के साथ (लग के) बिगड़ जाता है, पर वह वृक्ष चँदन का रूप हो के अपना आप मिटा लेता है।2।

ताँबा भी पारस से छू के रूप बदल लेता है, पर वह ताँबा सोना ही बन जाता है और अपना आप खत्म कर देता है।3।

(इसी तरह) कबीर भी संतों की संगति में रह के बिगड़ गया है। पर, यह कबीर अब प्रभूके साथ ऐक-मेक हो गया है, और स्वै भाव समाप्त कर चुका है।4।5।

माथे तिलकु हथि माला बानां ॥ लोगन रामु खिलउना जानां ॥१॥ जउ हउ बउरा तउ राम तोरा ॥ लोगु मरमु कह जानै मोरा ॥१॥ रहाउ ॥ तोरउ न पाती पूजउ न देवा ॥ राम भगति बिनु निहफल सेवा ॥२॥ सतिगुरु पूजउ सदा सदा मनावउ ॥ ऐसी सेव दरगह सुखु पावउ ॥३॥ लोगु कहै कबीरु बउराना ॥ कबीर का मरमु राम पहिचानां ॥४॥६॥ {पन्ना 1158}

पद्अर्थ: हथि = हाथ में। बानां = धार्मिक पहरावा। लोगन = लोगों ने।1।

जउ = अगर। हउ = मैं। राम = हे राम! मरमु = भेद।1। रहाउ।

तोरउ न = मैं नहीं तोड़ता। देवा = देवता।2।

पूजउ = मैं पूजता हूँ। दरगह = प्रभू की हजूरी में ।

(नोट: इस तुक में शब्द 'पूजउ', 'मनावउ' और 'पावउ' वर्तमान काल एकवचन में हैं। इनका अर्थ है पूजता हॅूँ, मनाता हॅूँ, पाता हॅूँ, जैसे 'गुरू को पूजना और मनाना' कोई आगे आने वाले जन्म का कर्म नहीं, अब के समय में मानस जन्म के समय का कर्तव्य है, जैसे 'दरगह सुखु पावउ' भी हाल के समय से ही सम्बंध रखता है, किसी आगे आने वाले जन्म के साथ सम्बँध रखने वाली घटना नहीं है। सो, 'दरगह' का भाव है 'प्रभू के चरणों में जुड़ने वाली अवस्था')।3।

अर्थ: (मैं) कोई धार्मिक भेष नहीं बनाता, मैं मन्दिर आदि में जा के किसी देवते की पूजा नहीं करता, लोग मुझे पागल कहते हैं; पर हे मेरे राम! अगर मैं (लोगों के हिसाब से) पागल हूँ, तो भी (मुझे इस बात से संतुष्टि है कि) मैं तेरा (सेवक) हूँ। दुनिया भला मेरे दिल का भेद क्या जान सकती है?।1। रहाउ।

(लोग) माथे पर तिलक लगा लेते हैं, हाथ में माला पकड़ लेते हैं, धार्मिक पहरावा बना लेते हैं, (और समझते हैं कि परमात्मा के भगत बन गए हैं) लोगों ने परमात्मा को खिलौना (भाव, अंजान बालक) समझ लिया है (कि इन बातों से उसे परचाया जा सकता है)।1।

(देवताओं के आगे भेटा धरने के लिए) ना ही मैं (फूल) पत्र तोड़ता हूँ, ना ही मैं किसी देवी-देवता की पूजा करता हूँ, (मैं जानता हूँ कि) प्रभू की बँदगी के बिना किसी और की पूजा (करनी) व्यर्थ है।2।

मैं अपने सतिगुरू के आगे सिर झुकाता हॅूं, उसी को सदा प्रसन्न करता हूँ, और इस सेवा की बरकति से प्रभू की हजूरी में जुड़ के सुख भोगता हूँ।3।

(हिन्दू-) जगत कहता है, कबीर पागल हो गया है (क्योंकि ना ये तिलक आदि चिन्ह का इस्तेमाल करता है और ना ही फूल-पत्ते आदि ले के किसी मन्दिर में भेट करने जाता है), पर कबीर के दिल का भेद कबीर का परमात्मा जानता है।4।6।

उलटि जाति कुल दोऊ बिसारी ॥ सुंन सहज महि बुनत हमारी ॥१॥ हमरा झगरा रहा न कोऊ ॥ पंडित मुलां छाडे दोऊ ॥१॥ रहाउ ॥ बुनि बुनि आप आपु पहिरावउ ॥ जह नही आपु तहा होइ गावउ ॥२॥ पंडित मुलां जो लिखि दीआ ॥ छाडि चले हम कछू न लीआ ॥३॥ रिदै इखलासु निरखि ले मीरा ॥ आपु खोजि खोजि मिले कबीरा ॥४॥७॥ {पन्ना 1158-1159}

पद्अर्थ: उलटि = (माया से) पलट के। दोऊ = जाति और कुल दोनों को। सुंनि = अफुर अवस्था। सहज = अडोल अवस्था। बुनत = ताणी, मन की लगन, लिव, ध्यान।1।

झगरा = वास्ता, सम्बंध।1। रहाउ।

बुनि बुनि = बुन बुन के, प्रभूके चरणों में ध्यान लगाने वाली ताणी उन उन के। आपु = अपने आप को। जह नही आपु = जहाँ स्वै भाव नहीं। तहा होइ = उस अवस्था में टिक के।2।

जे लिख दीआ = (कर्म काण्ड और शरह की बातें) जो उन्होंने लिख दी हैं।3।

इखलासु = प्रेम, पवित्रता। निरखि ले = देख ले, दीदार कर ले, दीदार हो सकता है। मीरा = मीर, परमात्मा।4।

नोट: कबीर जी जाति के जुलाहे थे। अपने पेशे का दृष्टांत देते हुए कहते हैं कि ज्यों-ज्यों मैं प्रभू-चरणों में सुरति जोड़ने की ताणी उन रहा हूँ, त्यों-त्यों मुझे हिन्दुओं के कर्मकाण्ड और मुसलमानों की शरह का आवश्यक्ता नहीं रही। ईश्वर को मिलने के लिए, बस, एक ही गुर है कि मनुष्य अपने आप की खोज करे और हृदय में प्रभूका पे्रम बसाए।

अर्थ: (ज्यों-ज्यों मैं नाम-सिमरन की ताणी उन रहा हूँ) मैंने पंडित और मुल्ला दोनों ही छोड़ दिए हैं। दोनों (के द्वारा बताए गए कर्म-काण्ड और शरहके रास्ते) के साथ अब मेरा कोई वास्ता नहीं रहा (भाव, कर्म-काण्ड और शरह ये दोनों ही नाम-सिमरन के मुकाबले में तुच्छ हैं)।1। रहाउ।

(नाम की बरकति से मन को माया से) उल्टा के मैंने जाति और कुल दोनों ही बिसार दिए हैं (मुझे ये बात समझ आ गई है कि प्रभू-मिलाप का किसी विशेष जाति व कुल से सम्बँध नहीं है)। मेरी लिव अब उस अवस्था में टिकी हुई है, जहाँ माया के फुरने नहीं हैं, जहाँ अडोलता ही अडोलता है।1।

(प्रभू चरणों में टिकी सुरति की ताणी) उन-उन के मैं अपने आप को पहना रहा हूँ, मैं वहाँ पहुँच के प्रभू की सिफत-सालाहकर रहा हूँ जहाँ स्वै भाव नहीं है।2।

(कर्म-काण्ड और शरह के बारे में) पण्डितों और मौलवियों ने जो कुछ लिखा है, मुझे किसी की भी आवश्यक्ता नहीं रही, मैंने ये सब कुछ छोड़ दिया है।3।

अगर हृदय में प्रेम हो, तो ही प्रभू के दीदार हो सकते हैं (कर्म-काण्ड और शरह सहायता नहीं करते)। हे कबीर! जो भी प्रभू को मिले हैं स्वै को खोज-खोज के ही मिले हैं (कर्म-काण्ड और शरह की सहायता से नहीं मिले)।4।7।

नोट: जो महापुरुष मुसलमानों के राज काल में और हिन्दू सभ्यता के गढ़ काशी में रहते हुए इतनी दलेरी से सच की आवाज़ बुलन्द कर सकता है, दोनों धर्मों के धर्म के रखवालों का उसके विरुद्ध हो जाना आश्चर्य की बात नहीं है।

नोट: इस शबद की 'रहाउ' की तुक पढ़ने के वक्त पाठकों को पहले ये ख्याल पैदा होता है कि 'पंडित मुलां' छोड़ने का भाव अच्छी तरह स्पष्ट नहीं हुआ। पर तीसरी तुक में जा के प्रश्न कुछ-कुछ हल हो जाता है कि पंडितों के बताए हुए कर्म-काण्ड और मौलवियों की बताई शरह का ही कबीर जी वर्णन कर रहे हैं। वैसे कोई ऐसी रम्ज़ की बात यहाँ नहीं, जिसको समझने में कोई भुलेखा रह जाए और कोई उलट-पलट बात समझ ली जाय। सो, सतिगुरू जी ने इसी राग के शबद नंबर 11 के साथ अपनी तरफ से शबद दर्ज किया है, पर यहाँ ऐसी आवश्यक्ता नहीं पड़ी। पर, इस शबद की खुली व्याख्या गुरू अरजन साहिब ने कर दी है, और इसी ही राग के अपने शबदों में उस शबद को दर्ज कर दिया है। चुँकि वह शबद निरोल कबीर जी के इस शबद की व्याख्या के लिए है, इसलिए उस में आखिर में कबीर जी का ही नाम उन्होंने दिया है जैसे शबद नंबर 12 में किया है शीर्षक 'भैरउ महला ५' ये पक्का यकीन दिलवाता है कि शबद सतिगुरू अरजन देव जी का ही उचारा हुआ है वह शबद इस प्रकार है;

भैरउ महला ५॥ वरत न रहउ न मह रमदाना॥ तिसु सेवी जो रखै निदाना॥१॥ ऐकु गुसाई अलहु मेरा॥ हिंदू तुरक दुहां नेबेरा॥१॥ रहाउ॥ हज काबै जाउ न तीरथ पूजा॥ ऐको सेवी अवरु न दूजा॥२॥ पूजा करउ न निवाज गुजारउ॥ ऐक निरंकार ले रिदै नमसकारउ॥३॥ ना हम हिंदू न मुसलमान॥ अलह राम के पिंडु परान॥४॥ कहु कबीर इहु कीआ वखाना॥ गुर पीर मिलि खुदि खसमु पछाना॥५॥३॥ (पन्ना ११३६)

ये बात प्रत्यक्ष है कि गुरू अरजन साहिब का ये शबद कबीर जी के ऊपर लिखे शबद के सम्बन्ध में है। ये तब ही सम्भव था जब गुरू ग्रंथ साहिब की बीड़ तैयार करने से काफी समय पहले कबीर जी का यह शबद सतिगुरू जी के पास मौजूद हो। सो, यह ख्याल गलत है कि जब 'बीड़' लिखी जा रही थी, तब भगतों की रूहों ने आ के साथ-साथ में अपने शबद लिखवाए थे। इस भैरव राग की ही मिसाल लें। 'बीड़' में गुरू अरजन साहिब जी ने पहले गुरू नानक देव, गुरू अमरदास, गुरू रामदास जी और अपने शबद दर्ज किए; अष्टपदियाँ और छंद आदि भी दर्ज कर लिए। यह शबद नंबर 3 भी दर्ज हो गया। अगर इससे बाद में आए कबीर जी, तो उनका शबद नंबर 7 के साथ संबन्ध रखने वाला गुरू अरजन साहिब का शबद नंबर 3 कबीर जी के आने से पहले ही कैसे उचारा गया और दर्ज हो गया? दरअसल बात ये है कि कबीर जी की सारी बाणी गुरू नानक देव जी के पास मौजूद थी।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh