श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मै बउरी मेरा रामु भतारु ॥ रचि रचि ता कउ करउ सिंगारु ॥१॥ भले निंदउ भले निंदउ भले निंदउ लोगु ॥ तनु मनु राम पिआरे जोगु ॥१॥ रहाउ ॥ बादु बिबादु काहू सिउ न कीजै ॥ रसना राम रसाइनु पीजै ॥२॥ अब जीअ जानि ऐसी बनि आई ॥ मिलउ गुपाल नीसानु बजाई ॥३॥ उसतति निंदा करै नरु कोई ॥ नामे स्रीरंगु भेटल सोई ॥४॥४॥ {पन्ना 1164}

पद्अर्थ: बउरी = कमली, झल्ली। भतारु = पति। रचि रचि = सजधज के। ता कउ = उस भतार की खातिर, उस पति को मिलने के लिए।1।

निंदउ लोगु = जगत बेशक निंदा करे (शब्द 'निंदउ' हुकमी भविष्यत, अॅनपुरख और एकवचन है)। जोगु = लायक, वास्ते।1। रहाउ।

बादु बिबादु = झगड़ा, बहस। रसाइनु = रसों का घर, श्रेष्ठ रस।2।

जीअ जानि = मन में समझ के। अैसी बनि आई = ऐसी हालत बन गई है। मिलउ = मैं मिल रही हूँ। नीसानु बजाई = ढोल बजा के, लोगों की निंदा से बेपरवाह हो के।3।

उसतति = शोभा, वडिआई। स्रीरंगु = (सं: श्री रंग, an epithet of Vishnu। श्री = लक्ष्मी। रंग = प्यार)। लक्ष्मी से प्यार करने वाला। भेटल = मिल गया है।4।

अर्थ: मेरा तन, मेरा मन मेरे प्यारे प्रभू के हो चुके हैं, अब जगत बेशक मुझे बुरा कहे जाए (ना मेरे कान ये निंदा सुनने की परवाह करते हैं; ना मेरा मन निंदा सुन के दुखी होता है)।1। रहाउ।

(मैं अपने प्रभू-पति की नारि बन चुकी हूँ) प्रभू में पति है और मैं (उसकी खातिर) कमली हो रही हूँ, उसको मिलने के लिए मैं (भगती और भले गुणों के) सुंदर-सुंदर श्रृंगार कर रही हूँ।1।

(कोई निंदा करता रहे) किसी के साथ झगड़ा करने की आवश्यक्ता नहीं, जीभ से प्रभू के नाम का श्रेष्ठ अमृत पीना चाहिए।2।

अब हृदय में प्रभू के साथ जान-पहचान करके (मेरे अंदर) ऐसी हालत बन गई है कि मैं लोगों की निंदा से बेपरवाह हो के अपने प्रभू को मिल रही हूँ।3।

कोई मुझे अच्छा कहे, चाहे कोई बुरा कहे (इस बात की मुझै परवाह नहीं रही), मुझे नामे को (लक्ष्मी का पति) परमात्मा मिल गया है।4।4।

शबद का भाव: प्रीत का स्वरूप- तन और मन, प्यार में इतने मस्त हो जाएं कि कोई अच्छा कहे अथवा बुरा कहे, इस बात की परवाह ही ना रहे। ना कान निंदा सुनने की परवाह करें, ना मन निंदा सुन के दुखी हो।

कबहू खीरि खाड घीउ न भावै ॥ कबहू घर घर टूक मगावै ॥ कबहू कूरनु चने बिनावै ॥१॥ जिउ रामु राखै तिउ रहीऐ रे भाई ॥ हरि की महिमा किछु कथनु न जाई ॥१॥ रहाउ ॥ कबहू तुरे तुरंग नचावै ॥ कबहू पाइ पनहीओ न पावै ॥२॥ कबहू खाट सुपेदी सुवावै ॥ कबहू भूमि पैआरु न पावै ॥३॥ भनति नामदेउ इकु नामु निसतारै ॥ जिह गुरु मिलै तिह पारि उतारै ॥४॥५॥ {पन्ना 1164}

पद्अर्थ: खीरि = खीर, दूध चावल इकट्ठे पके हुए (शब्द 'खीरु' का अर्थ है दूध, इसका योग अलग है)। न भावै = अच्छा नहीं लगता। कूरनु = कूड़ा। चने = छोले। बिनावै = चुनवाता है।1।

महिमा = बुर्जुगी।1। रहाउ।

तुरे = घोड़े। तुरंग = घोड़े। पाइ = पैरों पर। पनहीओ = जूता भी।2।

खाटु = चारपाई। सुपेदी = सफेद बिछौने। पैआरु = पराली। न पावै = हासिल नहीं कर सकता।3।

जिह = जिस को।4।

अर्थ: हे भाई! जिस हालत में परमात्मा (हम जीवों को) रखता है उसी हालत में (अमीरी की अकड़ और गरीबी की घबराहट से निर्लिप) रहना चाहिए। ये बात बताई नहीं जा सकती कि परमात्मा कितना बड़ा है (हमारे दुखों-सुखों का भेद वही जानता है)।1। रहाउ।

कभी (कोई जीव ऐसी मौज में है कि उसको) खीर, खंड, घी (जैसे स्वादिष्ट पदार्थ) भी अच्छे नहीं लगते; पर कभी (उससे) घर-घर के टुकड़े मंगवाता है (कभी उसको मँगता बना देता है, और वह घर-घर टुकड़े माँगता फिरता है), कभी (उससे) कचरे फलुरवाता है, और (उनमें से) दाने चुनवाता है।1।

कभी (कोई मनुष्य इतना अमीर है कि वह) सुंदर घोड़े नचाता है (भाव, कभी उसके पास इतनी सुंदर चाल वाले घोड़े हैं कि चलने के वक्त, मानो, वह नाच रहे हैं), पर कभी उसके पैरों को जूती (पहनने के लिए) भी नहीं मिलती।2।

कभी किसी मनुष्य को सफेद बिछौने वाले पलंघों पर सुलाता है, पर कभी उसको जमीन पर (बिछाने के लिए) पराली भी नहीं मिलती।3।

नामदेव कहता है- प्रभू का एक नाम ही है जो (इन दोनों हालातों से अछोह रख के) पार लंघाता है, जिस मनुष्य को गुरू मिलता है उसको प्रभू (अमीरी की आकड़ और गरीबी की घबराहट) से पार उतारता है।4।5।

शबद का भाव: धन-पदार्थ का गुमान कूडा है- ना अमीरी में आफरे, और ना गरीबी आने पर घबराना चाहिए।

हसत खेलत तेरे देहुरे आइआ ॥ भगति करत नामा पकरि उठाइआ ॥१॥ हीनड़ी जाति मेरी जादिम राइआ ॥ छीपे के जनमि काहे कउ आइआ ॥१॥ रहाउ ॥ लै कमली चलिओ पलटाइ ॥ देहुरै पाछै बैठा जाइ ॥२॥ जिउ जिउ नामा हरि गुण उचरै ॥ भगत जनां कउ देहुरा फिरै ॥३॥६॥ {पन्ना 1164}

पद्अर्थ: हसत खेलत = हस्ता खेलता, बड़े चाव से। देहुरे = मंदिर में (सं: देवालय)। करत = करता।1।

हीनड़ी = बहुत हीनी, बहुत नीची। जादम राइआ = हे जादम राय! (सं: यादव an epithet of ज्ञrtishna) हे यादव कुल के श्रोमणी! हे कृष्ण! हे प्रभू! काहे कउ = किस लिए? क्यों? आइआ = मैं पैदा हुआ।1। रहाउ।

पलटाइ = पलट के, मुड़ के। जाइ = जा के।2।

कउ = की खातिर, वास्ते।3।

अर्थ: हे प्रभू! मैं छींबे (धोबी) के घर क्यों पैदा हो गया? (लोग) मेरी जाति को बड़ी नीच (कहते हैं)।1। रहाउ।

मैं बड़े चाव से तेरे अंदर आया था, पर (चुँकि ये लोग 'मेरी जाति हीनड़ी' समझते हैं, इन लोगों ने) मुझे नामे को भगती करते को (बाँह से) पकड़ कर (मन्दिर में से) उठा दिया।1।

मैं अपनी कंबली ले के (वहाँ से) वापस चल पड़ा, और (हे प्रभू!) मैं तेरे मन्दिर के पिछली तरफ जा के बैठ गया।2।

(पर प्रभू की आश्चर्यजनक लीला हुई) ज्यों-ज्यों नामा अपने प्रभू के गुण गाता है, (उसका) मन्दिर (उसके) भगतों की खातिर, (उसके) सेवकों की खातिर फिरता जा रहा है।3।6।

नोट: भगत नाम देव जी ने अपनी उम्र का ज्यादा हिस्सा पंडरपुर में गुजारा; वहाँ के वाशिंदे जानते ही थे कि नामदेव धोबी है, और शूद्र है। शूद्र को मन्दिर में जाने की मनाही थी। किसी दिन बँदगी की मौज में नामदेव मन्दिर चले गए, आगे ऊँची जाति वालों ने बाँह से पकड़ कर बाहर निकाल दिया। अगर नामदेव किसी बीठुल, किसी ठाकुर की मूर्ति के पुजारी होते और पूजा करते होते तो रोज आने वाले नामदेव को उन लोगों ने किसी एक दिन 'हीनड़ी जाति' का जान के क्यों बाहर निकालना था? ये एक दिन की घटना ही बताती है कि नामदेव जी ना मन्दिर जाया करते थे, ना शूद्र होने की वजह से उच्च जाति वालों की तरफ से उन्हें वहाँ जाने की आज्ञा थी। यह तो एक दिन किसी मौज में आए हुए चले गए और आगे से धक्के नसीब हुए।

भाव: सिमरन की बरकति- निर्भयता। उच्च जाति वालों की तरफ से शूद्र कहलवाने और इस कारण ऊपर से हो रही ज्यादतियों के विरुद्ध प्रभू के आगे रोस।

ज्यों-ज्यों यह रोस शूद्र-कहलवाते मनुष्य के अंदर स्वैमान पैदा करता है, उच्च-जातिए की अकड़ कम होती जाती है।

भैरउ नामदेउ जीउ घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जैसी भूखे प्रीति अनाज ॥ त्रिखावंत जल सेती काज ॥ जैसी मूड़ कुट्मब पराइण ॥ ऐसी नामे प्रीति नराइण ॥१॥ नामे प्रीति नाराइण लागी ॥ सहज सुभाइ भइओ बैरागी ॥१॥ रहाउ ॥ जैसी पर पुरखा रत नारी ॥ लोभी नरु धन का हितकारी ॥ कामी पुरख कामनी पिआरी ॥ ऐसी नामे प्रीति मुरारी ॥२॥ साई प्रीति जि आपे लाए ॥ गुर परसादी दुबिधा जाए ॥ कबहु न तूटसि रहिआ समाइ ॥ नामे चितु लाइआ सचि नाइ ॥३॥ जैसी प्रीति बारिक अरु माता ॥ ऐसा हरि सेती मनु राता ॥ प्रणवै नामदेउ लागी प्रीति ॥ गोबिदु बसै हमारै चीति ॥४॥१॥७॥ {पन्ना 1164}

पद्अर्थ: त्रिखावंत = प्यासा। सेती = साथ। काज = गरज, आवश्यक्ता। मूढ़ = मूर्ख बंदे। कुटंब = परिवार। पराइण = आसरे।1।

सहज सुभाइ = सहज में ही, बिना किसी खास प्रयत्न के। बैरागी = विरक्त।1। रहाउ।

रत = रति हुई, प्यार पाने वाली। हितकारी = हित करने वाला, प्रेम करने वाला। कामी = विषयी। कामनी = स्त्री।2।

साई = वही (असल)। जि = जो। दुबिधा = मेर तेर। न तूटसि = वह प्रीति कभी टूटती नहीं। सचि = सच में। नाइ = नाम में।3।

राता = रंगा हुआ। चीति = चिॅत में।4।

अर्थ: (मेरी) नामदेव की प्रीति परमात्मा के साथ लग गई है, (उस प्रीति की बरकति से, नामदेव) किसी बाहरी भेष आदि को अपनाए बिना ही बैरागी बन गया है।1। रहाउ।

जैसे भूखे मनुष्य को अन्न प्यारा लगता है, जैसे प्यासे को पानी की आवश्यक्ता होती है, जैसे कोई मूर्ख अपने परिवार पर आश्रित हो जाता है, वैसे ही (मुझ) नामे का प्रभू के साथ प्यार है।1।

जैसे कोई नारि पराए मनुष्य के साथ प्यार डाल लेती है, जैसे किसी लोभी मनुष्य को धन प्यारा लगता है, जैसे किसी विषयी बँदे को स्त्री अच्छी लगती है, वैसे ही नामे को परमात्मा मीठा लगता है।2।

पर असल सच्चा प्यारा वह है जो प्रभू सवयं (किसी मनुष्य के हृदय में) पैदा करे, उस मनुष्य की मेर-तेर गुरू की कृपा से मिट जाती है, उसका प्रभू से प्रेम कभी टूटता नहीं, हर वक्त वह प्रभू-चरणों में जुड़ा रहता है। (मुझ नामे पर भी प्रभू की मेहर हुई है और) नामे का चिक्त सदा कायम रहने वाले हरी-नाम में टिक गया है।3।

जैसे माता-पुत्र का प्यार होता है, वैसे मेरा मन प्रभू! (-चरणों) के साथ रंगा गया है। नामदेव विनती करता है- मेरी प्रभू के साथ प्रीति लग गई है, प्रभू (अब सदा) अब मेरे चिक्त में बसता है।4।1।7।

शबद का भाव: प्रीति का स्वरूप- उसकी याद कभी ना भूले, सहज ही किसी और तरफ चिक्त ना जाए। इस प्रीति की बरकति से अंदर से मेर-तेर मिट जाती है। पर यह मिलती है उसकी अपनी मेहर से।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh