श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1169 बसंतु महला ३ तीजा ॥ बसत्र उतारि दिग्मबरु होगु ॥ जटाधारि किआ कमावै जोगु ॥ मनु निरमलु नही दसवै दुआर ॥ भ्रमि भ्रमि आवै मूड़्हा वारो वार ॥१॥ एकु धिआवहु मूड़्ह मना ॥ पारि उतरि जाहि इक खिनां ॥१॥ रहाउ ॥ सिम्रिति सासत्र करहि वखिआण ॥ नादी बेदी पड़्हहि पुराण ॥ पाखंड द्रिसटि मनि कपटु कमाहि ॥ तिन कै रमईआ नेड़ि नाहि ॥२॥ जे को ऐसा संजमी होइ ॥ क्रिआ विसेख पूजा करेइ ॥ अंतरि लोभु मनु बिखिआ माहि ॥ ओइ निरंजनु कैसे पाहि ॥३॥ कीता होआ करे किआ होइ ॥ जिस नो आपि चलाए सोइ ॥ नदरि करे तां भरमु चुकाए ॥ हुकमै बूझै तां साचा पाए ॥४॥ जिसु जीउ अंतरु मैला होइ ॥ तीरथ भवै दिसंतर लोइ ॥ नानक मिलीऐ सतिगुर संग ॥ तउ भवजल के तूटसि बंध ॥५॥४॥ {पन्ना 1169} नोट: यह शबद 'महला ३' का है। अंक ३ को 'तीजा' पढ़ना है जैसे कि शबद के आरम्भ में भी लिखा गया है ये निर्देश है। इसी तरह 'महला' १, २, ४, ५, ९' के अंकों को पहला, दूजा, चौथा, पंजवाँ और नौवाँ पढ़ना है। नोट: बाणी दर्ज करने के बारे में सारे गुरू ग्रंथ साहिब में बरती गई मर्यादा के अनुसार इस राग में भी गुरू नानक साहिब के शबद-संग्रह के उपरांत गुरू अमरदास जी के शबद दर्ज हैं। फिर, ये अलग से शबद गुरू अमरदास जी का यहाँ क्यों दिया गया है? उक्तर जानने के लिए, इस सारे शबद को ध्यान से पढ़िए। इससे पहला शबद नंबर 3 भी फिर पढ़ें। दोनों में भेष और कर्म-काण्ड की निंदा की गई है। सिमरन को ही जनम-उद्देश्य बताया गया है। गुरू अमरदास जी ने गुरू नानक साहिब के विचारों की प्रोढ़ता की है। गुरू नानक देव जी का यह शबद गुरू अमरदास जी के पास मौजूद था। पद्अर्थ: उतारि = उतार के। दिगंबरु = नागा साधू (दिग्+अंबर। दिग = दिशा। अंबरु = कपड़ा। दिगंबर = जिसने दिशा को अपना कपड़ा बनाया है, नंगा)। होगु = (अगर) हो जाएगा। धारि = धार के। किआ = कौन सा? दसवै दुआर = प्राण दसवें द्वार पर चढ़ा के, प्राणायम करने से। भ्रमि भ्रमि = भटक भटक के। मूड़ा = मूढ़, मूर्ख। वारो वार = बार बार।1। ऐकु = एक प्रभू को। इक खिनां = एक पल में।1। रहाउ। करहि = (जो मनुष्य) करते हैं। नादी = नाद बजाने वाले जोगी। बेदी = बेद पढ़ने वाले पण्डित। दिसटि = निगाह, नजर। मनि = मन में। कमाहि = जो कमाते हैं।2। संजमी = संजम रखने वाला, इन्द्रियों को काबू करने का यतन करने वाला। विसेख = विशेष, खास। करेइ = (जो मनुष्य) करता है। अंतरि = अंदर, मन के अंदर। बिखिआ = माया। ओइ = ऐसे बंदे। पाहि = प्राप्त करें।3। कीता होआ = सब कुछ परमात्मा का किया हुआ हो रहा है। करे किआ होइ = जीव के करने से क्या हो सकता है? जिस नो = जिस जीव को। सोइ = वह परमात्मा। नदरि = मेहर की निगाह। भरमु = भटकना। चुकाऐ = दूर करता है। हुकमै = परमात्मा के हुकम को।4। अंतरु = अंदरूनी (बंद नं: 3 में शब्द 'अंतरि' संबंधक है। दोनों शब्दों को योड़ कर देखें। शब्द 'अंतरु' विशेषण है शब्द 'जीउ' का)। दिसंतर = देश अंतर, और और देशों में। लोइ = लोक में, जगत में। तउ = तब। बंध = बंधन।5। अर्थ: हे मूर्ख मन! एक परमात्मा को सिमर। (सिमरन की बरकति से) एक पल में ही (संसार-समुंद्र से) पार लांघ जाएगा।1। रहाउ। यदि कोई मनुष्य कपड़े उतार के नांगा साधू बन जाए (तो भी व्यर्थ ही उद्यम है)। जटा धार के भी कोई जोग नहीं कमाया जा सकता। (परमात्मा के साथ जोग-योग- नहीं हो सकेगा)। दसवें द्वार में प्राण चढ़ाने से भी मन पवित्र नहीं होता। (ऐसे साधनों में लगा हुआ) मूर्ख भटक-भटक के बार-बार जनम लेता है।1। (पण्डित लोग) स्मृतियों और शास्त्र (औरों को पढ़-पढ़ के) सुनाते हैं, जोगी नाद बजाते हैं, पंडित वेद पढ़ते हैं, कोई पुराण पढ़ते हैं, पर उनकी निगाह पाखण्ड वाली है, मन में वे खोट कमाते हैं। परमात्मा ऐसे व्यक्तियों के नजदीक नहीं (फटकता)।2। अगर कोई ऐसा व्यक्ति भी हो जो अपनी इन्द्रियों को वश में करने का यतन करता हो, कोई विशेष प्रकार की क्रिया करता हो, देव-पूजा भी करे, पर अगर उसके अंदर लोभ है, अगर उसका मन माया के मोह में फसा हुआ है, तो ऐसे व्यक्ति भी माया से निर्लिप परमात्मा की प्राप्ति नहीं कर सकते।3। (पर, जीवों के भी क्या वश?) सब कुछ परमात्मा का ही किया हुआ हो रहा है। जीव के करने से कुछ नहीं हो सकता। जब प्रभू स्वयं (किसी जीव पर) मेहर की निगाह करता है तो उसकी भटकना दूर करता है (प्रभू की मेहर से ही जब जीव) प्रभू का हुकम समझता है तो उसका मिलाप हासिल कर लेता है।4। जिस मनुष्य की अंदरूनी आत्मा (विकारों से) मैली हो जाती है, वह अगर तीर्थों पर जाता है अगर वह जगत में और-और देशों में भी (विरक्त रहने के लिए) चलता फिरता है (तो भी उसके माया वाले बँधन टूटते नहीं)। हे नानक! अगर गुरू का मेल प्राप्त हो तो ही परमात्मा मिलता है, तब ही संसार-समुंद्र वाले बँधन टूटते हैं।5।4। बसंतु महला १ ॥ सगल भवन तेरी माइआ मोह ॥ मै अवरु न दीसै सरब तोह ॥ तू सुरि नाथा देवा देव ॥ हरि नामु मिलै गुर चरन सेव ॥१॥ मेरे सुंदर गहिर ग्मभीर लाल ॥ गुरमुखि राम नाम गुन गाए तू अपर्मपरु सरब पाल ॥१॥ रहाउ ॥ बिनु साध न पाईऐ हरि का संगु ॥ बिनु गुर मैल मलीन अंगु ॥ बिनु हरि नाम न सुधु होइ ॥ गुर सबदि सलाहे साचु सोइ ॥२॥ जा कउ तू राखहि रखनहार ॥ सतिगुरू मिलावहि करहि सार ॥ बिखु हउमै ममता परहराइ ॥ सभि दूख बिनासे राम राइ ॥३॥ ऊतम गति मिति हरि गुन सरीर ॥ गुरमति प्रगटे राम नाम हीर ॥ लिव लागी नामि तजि दूजा भाउ ॥ जन नानक हरि गुरु गुर मिलाउ ॥४॥५॥ {पन्ना 1169} पद्अर्थ: तोह = तेरा (प्रकाश)। सुरि = देवते।1। लाल = हे लाल! गुरमुखि = गुरू के बताए हुए रास्ते पर चल के। सरब पाल = हे सब को पालने वाले! अपरंपरु = परे से परे, बेअंत।1। रहाउ। साध = गुरू। सुधु = शुद्ध, पवित्र।2। सार = संभाल। बिखु = जहर। परहराइ = दूर करा लेता है। सभि = सारे। रामराइ = हे प्रकाश रूप प्रभू! गति = आत्मिक अवस्था। हीर = हीरा। तजि = त्याग के। दूजा भाउ = प्रभू के बिना और का प्यार। गुर मिलाउ = गुरू का मिलाप।4। अर्थ: हे मेरे सुंदर लाल! हे गहरे और बड़े जिगरे वाले प्रभू! हे सब जीवों के पालने वाले प्रभू! तू बड़ा ही बेअंत है। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह तेरी सिफत-सालाह करता है।1। रहाउ। हे प्रभू! सारे भवनों में (सारे जगत में) तेरी माया के मोह का पसारा है। मुझे तेरे बिना कोई और नहीं दिखता, सब जीवों में तेरा ही प्रकाश है। तू देवताओं का नाथों का भी देवता है। हे हरी! गुरू के चरणों की सेवा करने से ही तेरा नाम मिलता है।1। गुरू की शरण के बिना परमात्मा का साथ प्राप्त नहीं होता, (क्योंकि) गुरू के बिना मनुष्य का शरीर (विकारों की) मैल से गंदा रहता है। प्रभू का नाम-सिमरन के बिना (यह शरीर) पवित्र नहीं हो सकता। जो मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ के प्रभू की सिफत-सालाह करता है वह सदा-स्थिर प्रभू का रूप हो जाता है।2। हे राखनहार प्रभू! जिसको तू स्वयं (विकारों से) बचाता है, जिसको तू गुरू मिलाता है और जिसकी तू संभाल करता है, वह मनुष्य अपने अंदर से अहंकार और मल्कियतें बनाने के जहर को दूर कर लेता है। हे रामराय! तेरी मेहर से उसके सारे दुख नाश हो जाते हैं।3। जिस मनुष्य के अंदर प्रभू के गुण बस जाते हैं उसकी आत्मिक अवस्था ऊँची हो जाती है वह फराख दिल हो जाता है, गुरू की मति पर चल के उसके अंदर प्रभू के नाम का हीरा चमक उठता है, माया का प्यार त्याग के उसकी सुरति प्रभू के नाम में जुड़ती है। हे प्रभू! (मेरी तेरे दर पर अरदास है कि) मुझे दास नानक को गुरू मिला, गुरू का मिलाप करा दे।4।5। बसंतु महला १ ॥ मेरी सखी सहेली सुनहु भाइ ॥ मेरा पिरु रीसालू संगि साइ ॥ ओहु अलखु न लखीऐ कहहु काइ ॥ गुरि संगि दिखाइओ राम राइ ॥१॥ मिलु सखी सहेली हरि गुन बने ॥ हरि प्रभ संगि खेलहि वर कामनि गुरमुखि खोजत मन मने ॥१॥ रहाउ ॥ मनमुखी दुहागणि नाहि भेउ ॥ ओहु घटि घटि रावै सरब प्रेउ ॥ गुरमुखि थिरु चीनै संगि देउ ॥ गुरि नामु द्रिड़ाइआ जपु जपेउ ॥२॥ बिनु गुर भगति न भाउ होइ ॥ बिनु गुर संत न संगु देइ ॥ बिनु गुर अंधुले धंधु रोइ ॥ मनु गुरमुखि निरमलु मलु सबदि खोइ ॥३॥ गुरि मनु मारिओ करि संजोगु ॥ अहिनिसि रावे भगति जोगु ॥ गुर संत सभा दुखु मिटै रोगु ॥ जन नानक हरि वरु सहज जोगु ॥४॥६॥ {पन्ना 1169-1170} पद्अर्थ: सखी सहेली = हे सखी सहेलियो! भाइ = (पढ़ना है 'भाय') प्रेम से। (नोट: इसी तरह 'साय', 'काय', 'राय' उच्चारण करना है)। रीसालु = सुंदर। संगि = (जिसके) साथ है। साइ = (साय), वह सखी (सोहागनि है)। ओहु = वह पिर प्रभू। कहहु = बताओ। काइ = (काय), कैसे (दिखे, मिले) ? गुरि = गुरू ने। संगि = साथ ही।1। बने = फबते हैं। वर कामनि = पति प्रभू की जीव सि्त्रयाँ। मने = माने, पतीज जाते हैं।1। रहाउ। मनमुखी = अपने मन के पीछे चलने वाली। दुहागणि = भाग्यहीन। भेउ = भेद। सरब प्रेउ = सबका प्रिय। देउ = प्रकाश रूप प्रभू। गुरि = गुरू ने।2। भाउ = प्रेम। संगु = साथ। न देइ = (न देय) नहीं देता। अंधुले = (माया के मोह में) अंधे हुए जीव को। धंधु = जंजाल (व्यापता है)। रोइ = (रोय), (वह) दुखी होता है, रोता है। सबदि = गुरू के शबद से। खोइ = (खोय) नाश करता है।3। गुरि = गुरू ने। करि = कर के। संजोगु = (प्रभू से) मिलाप। अहि = दिन। निसि = रात। रावे = माणता है, भोगता है। भगति जोगु = भक्ति से हुआ मिलाप। हरि वरु = प्रभू पति। सहज जोगु = अडोल अवस्था का मिलाप।4। अर्थ: हे मेरी सखी सहेलियो! मिल के बैठो (और प्रभू-पति के गुण गाओ) प्रभू के गुण गाने ही (मनुष्य जनम में) फबते हैं। पति-प्रभू की जो जीव-सि्त्रयाँ प्रभू-परमात्मा के साथ खेलती हैं, गुरू के माध्यम से प्रभू की तलाश करते हुए उनके मन (प्रभू की याद में) पतीज जाते हैं।1। रहाउ। हे मेरी (सत्संगी) सहेलियो! प्रेम से (मेरी बात) सुनो (कि) मेरा सुंदर पति-प्रभू जिस सहेली के अंग-संग है वही सहेली (सोहागनि) है। वह (सुंदर प्रभू) बयान से परे है, उसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। बताओ (हे सहेलियो!) वह (फिर) कैसे (मिले)। गुरू के वह प्रकाश-रूप प्रभू जिस सहेली को अंग-संग (बसा हुआ) दिखा दिया है (उसी को ही वह मिला है)।1। अपने मन के पीछे चलने वाली भाग्यहीन जीव-सि्त्रयों को यह भेद-भरी बात समझ नहीं आती कि वह सबका प्यारा प्रभू हरेक शरीर के अंदर बस रहा है। गुरू के बताए हुए रास्ते पर चलने वाली जीव-स्त्री उस सदा कायम रहने वाले प्रकाश-प्रभू को अपने अंग-संग देखती है। गुरू ने उसके हृदय में प्रभू का नाम पक्का कर दिया है, वह उसी नाम का जाप जपती है।2। (हे मेरी सहेलियो!) गुरू की शरण पड़े बिना ना परमात्मा का प्यार बन सकता है ना उसकी भक्ति हो सकती है। संत गुरू की शरण के बिना वह (प्यारा प्रभू) अपना साथ नहीं बख्शता। गुरू के दर पर आए बिना माया-मोह में अंधे हुए जीव को दुनिया का जंजाल ही व्यापता है, वह सदा दुखी रहता है।3। गुरू ने (परमात्मा के साथ) संयोग बना के जिसका मन (माया के मोह से) मार दिया है, वह दिन-रात परमात्मा के भक्ति के मिलाप का रस लेता है। हे दास नानक! संत गुरू की संगति में (बैठने से जीव का) दुख मिट जाता है रोग दूर हो जाता है (क्योंकि) उसको प्रभू-पति मिल जाता है उसको अडोल अवस्था का मिलाप प्राप्त हो जाता है।4।6। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |