श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1171 बसंतु महला १ हिंडोल ॥ साहुरड़ी वथु सभु किछु साझी पेवकड़ै धन वखे ॥ आपि कुचजी दोसु न देऊ जाणा नाही रखे ॥१॥ मेरे साहिबा हउ आपे भरमि भुलाणी ॥ अखर लिखे सेई गावा अवर न जाणा बाणी ॥१॥ रहाउ ॥ कढि कसीदा पहिरहि चोली तां तुम्ह जाणहु नारी ॥ जे घरु राखहि बुरा न चाखहि होवहि कंत पिआरी ॥२॥ जे तूं पड़िआ पंडितु बीना दुइ अखर दुइ नावा ॥ प्रणवति नानकु एकु लंघाए जे करि सचि समावां ॥३॥२॥१०॥ {पन्ना 1171} पद्अर्थ: साहुरड़ी वथु = वह वस्तु जो पति प्रभू की तरफ से मिली है, आत्मिक जीवन की दाति। साझी = सबके साथ बाँटे जाने वाली। पेवकड़ै = पेके घर में, सांसारिक जीवन में। धन = स्त्री, जीव स्त्री। वखे = अलग अलग रहने वाली, भेदभाव करने वाली। कुचजी = जिसको अच्छी जीवन जुगति नहीं आती हो। देऊ = मैं देती हूँ। जाणा नाही = मैं नहीं जानती। नाही रखे जाणा = रखि न जाणा, संभाल के रखने की मुझे जाच नहीं।1। हउ = मैं। आपे = आप ही। भरमि = भटकना में। भुलाई = मैं भूली हुई हूँ, मैं गलत रास्ते पर पड़ी हुई हूँ। अखर = पिछले किए कर्मों के संस्कार रूप लेख। सेई गावा = वही अक्षर गाऊँ, वही अक्षर मैं गाती हूँ, उन ही संस्कारों वाले काम मैं बार बार करती हॅूँ। बाणी = बणतर, बनावट, घाड़त। न जाणा = मैं नहीं जानती।1। रहाउ। कढि कसीदा = कसीदा काढ़ के, सुंदर चित्र बना के, शुभ गुणों के सुंदर चित्र बना के। पहिरहि = (यदि सि्त्रयां) पहनें। चोली = पटोला, प्रेम पटोला।2। बीना = समझदार, सियाना। दुइ अखर = राम नाम, हरी नाम। नावा = नाव, बेड़ी। प्रणवति = विनती करता है। ऐकु = एक हरी नाम। सचि = सच में।3। अर्थ: हे मेरे मालिक-प्रभू! मैं स्वयं ही (माया के मोह की) भटकना में पड़ के जीवन के सही रास्ते से भटकी हुई हूँ। (माया के मोह में फस के जितने भी कर्म मैं जन्मों-जन्मांतरों से करती आ रही हूँ, उनके जो) संस्कार मेरे मन में उकरे हुए हैं, मैं उनको गाती चली जा रही हूँ (उनकी ही प्रेरणा से बार-बार वैसे ही कर्म करती जा रही हूँ) मैं (मन की) कोई घाड़त (घड़नी) नहीं जानती हूँ (मैं कोई ऐसा कर्म करना नहीं जानती जिनसे मेरे अंदर से माया के मोह के संस्कार समाप्त हो)।1। रहाउ। आत्मिक जीवन की दाति जो पति-प्रभू की तरफ से मिली थी वह तो सबके साथ बाँटी जा सकने वाली (सांझी) थी, पर जगत-पेके घर में रहते हुए (माया के मोह के प्रभाव तले) मैं जीव-स्त्री भेद-भाव ही सीखती रही। मैं स्वयं ही कुचॅजी रही, (भाव, मैंने सुंदर जीवन-जुगति ना सीखी। इस कुचॅज में दुख सहेड़े हैं, पर) मैं किसी और पर (इन दुखों के लिए) कोई दोष नहीं लगा सकती। (पति-प्रभू द्वारा मिली आत्मिक जीवन की दाति को) संभाल के रखने की मुझे जाच नहीं आई।1। जो जीव-सि्त्रयाँ शुभ-गुणों के सुंदर चित्र (अपने मन में बना के) प्रेम-पटोला पहनती हैं उनको ही सुचॅजियाँ (सदाचारी) सि्त्रयाँ समझो। जो सि्त्रयाँ अपने (आत्मिक जीवन का) घर संभाल के रखती हैं कोई विकार कोई बुराई नहीं चखतीं (भाव, जो बुरे रसों में प्रवृत नहीं होतीं) वे पति-प्रभू को प्यारी लगती हैं।2। हे भाई! अगर तू सचमुच पढ़ा-लिखा विद्वान है समझदार है (तो यह बात पक्की तरह समझ ले कि संसार-समुंद्र के विकारों के पानियों में से पार लांघने के लिए) हरी-नाम ही बेड़ी है। नानक विनती करता है कि हरी-नाम ही (संसार-समुंद्र से) पार लंघाता है और मैं सदा कायम रहने वाले प्रभू के नाम में टिका रहूँ।3।2।10। बसंतु हिंडोल महला १ ॥ राजा बालकु नगरी काची दुसटा नालि पिआरो ॥ दुइ माई दुइ बापा पड़ीअहि पंडित करहु बीचारो ॥१॥ सुआमी पंडिता तुम्ह देहु मती ॥ किन बिधि पावउ प्रानपती ॥१॥ रहाउ ॥ भीतरि अगनि बनासपति मउली सागरु पंडै पाइआ ॥ चंदु सूरजु दुइ घर ही भीतरि ऐसा गिआनु न पाइआ ॥२॥ राम रवंता जाणीऐ इक माई भोगु करेइ ॥ ता के लखण जाणीअहि खिमा धनु संग्रहेइ ॥३॥ कहिआ सुणहि न खाइआ मानहि तिन्हा ही सेती वासा ॥ प्रणवति नानकु दासनि दासा खिनु तोला खिनु मासा ॥४॥३॥११॥ {पन्ना 1171} पद्अर्थ: राजा = हुकम चलाने वाला, मन। बालकु = अंजान। काची = कच्ची, मिट्टी आदि की बनी हुई जो बाहरी बैरियों का मुकाबला ना कर सके। दुसट = दुर्जन, बुरे। माई = माँ। दुइ माई = दो माताएं (बुद्धि और अविद्या)। नोट: मन में दो किस्म के संस्कार मौजूद हैं, भले भी और बुरे भी। भले संस्कार उन कर्मों का नतीजा होते हैं जो मनुष्य श्रेष्ठ बुद्धि की अगुवाई में करता है। बुरे कर्म अविद्या अधीन रहने से होते हैं। इसलिए बुद्धि और अविद्या मन की दो माताएं हैं। दुइ बापा = दो पिता (परमात्मा और माया ग्रसित ईश्वर)। पढ़ीअहि = पढ़े जाते हैं, बताए जाते हैं। पंडित = हे पंडित!।1। किन बिधि = किस तरीके से? पावउ = मैं पा सकूँ।1। रहाउ। भीतरि = (बनस्पति के) अंदर। मउली = हरी भरी रहती है। सागरु = समुंद्र। पंडै = पंड में। चंदु = शीतलता। सूरजु = ईश्वरीय तेज। घर ही भीतरि = हृदय घर के अंदर ही। गिआनु = समझ।2। रवंता = सिमरता। जाणीअै = समझना चाहिए। इक माई = (दो माताओं में से) एक माँ अविद्या को। भोगु करेइ = खा जाए, खत्म कर दे। ता के लखण = उसके लक्षण, उसकी निशानियाँ। खिमा = दूसरों की ज्यादतियों को शांत-चिक्त सहने का गुण। संग्रहेइ = इकट्ठा करता है।3। कहिआ = बताई हुई नसीहत। न खाइआ मानहि = यह नहीं मानते कि हमने कुछ खाया है (भाव, सदा तृष्णालु रहते हैं, विषौ-विकारों से कभी अघाते ही नहीं)। सेती = साथ। खिनु = छिन में। मासा = तोले का बारहवाँ हिस्सा।4। अर्थ: हे पंडित जी महाराज! तुम तो और ही तरह की शिक्षा दे रहे हो, (ऐसी दी हुई मति के साथ) मैं अपने प्राणों के मालिक परमात्मा को कैसे मिल सकता हूँ?।1। रहाउ। हे पण्डित! (अगर कोई विचार की बात करनी है तो) यह सोचो कि (शरीर-नगरी पर) राज करने वाला मन अंजान है, यह शरीर-नगर भी कच्चा है (बाहर से विकारों के हमलों का मुकाबला करने के योग्य नहीं है क्योंकि ज्ञानेन्द्रियाँ कमजोर हैं)। (फिर इस अंजान मन का) प्यार भी कामादिक बुरे साथियों के साथ ही है। इसकीी माताएँ भी दो सुनी जाती हैं (बुद्धि और अविद्या), इसके पिता भी दो ही बताए जाते हैं (परमात्मा और माया ग्रसित जीवात्मा। आम तौर पर यह अंजान मन अविद्या और माया-ग्रसित जीवात्मा की बातों में आया रहता है)।1। (हे पण्डित! तू तो और ही किस्म की शिक्षा दे रहा है, तेरी दी हुई शिक्षा से अंजान मन को) यह समझ नहीं आती कि शीतलता (-शांति) और ईश्वरीय-तेज दोनों मनुष्य के शरीर के अंदर मौजूद हैं। (समझ ना आ सकने का कारण यह है कि) शरीर के अंदर विकारों की आग (मची हुई है) जवानी भी लहरें ले रही है (जैसे हरी-भरी वनस्पति के अंदर आग छुपी रहती है), मायावी वासना का समुंद्र इस शरीर के अंदर ठाठा मार रहा है (मानो, समुंदर एक गाँव में छुपा हुआ है। सो, शिक्षा तो वह चाहिए जो इस अंदरूनी बाढ़ को रोक सके)।2। वही मनुष्य परमात्मा का सिमरन करता समझा जा सकता है जो (बुद्धि और अविद्या- दो माताओं में से) एक माँ (अविद्या को) समाप्त कर दे। (जो मनुष्य अविद्या माता का समाप्त कर देता है) उसके (रोजाना जीवन के) लक्षण ये दिखते हैं कि वह दूसरों की ज्यादतियाँ ठंडे-जिगर से सहने का आत्मिक धन (सदा) इकट्ठा करता है।3। (हे प्रभू! तेरे) दासों का दास विनती करता है (कि इन्सानी मन बेबस है) इसका संग सदा उन (ज्ञानेन्द्रियों) के साथ रहता है जो कोई शिक्षा सुनते ही नहीं हैं और जो विषौ-विकारों से कभी तृप्त भी नहीं होते। (यही कारण है कि यह मन) कभी तोला हो जाता है, कभी मासा रह जाता है (कभी मुकाबला करने की हिम्मत करता है और कभी घबरा जाता है)।4।3।11। बसंतु हिंडोल महला १ ॥ साचा साहु गुरू सुखदाता हरि मेले भुख गवाए ॥ करि किरपा हरि भगति द्रिड़ाए अनदिनु हरि गुण गाए ॥१॥ मत भूलहि रे मन चेति हरी ॥ बिनु गुर मुकति नाही त्रै लोई गुरमुखि पाईऐ नामु हरी ॥१॥ रहाउ ॥ बिनु भगती नही सतिगुरु पाईऐ बिनु भागा नही भगति हरी ॥ बिनु भागा सतसंगु न पाईऐ करमि मिलै हरि नामु हरी ॥२॥ घटि घटि गुपतु उपाए वेखै परगटु गुरमुखि संत जना ॥ हरि हरि करहि सु हरि रंगि भीने हरि जलु अम्रित नामु मना ॥३॥ जिन कउ तखति मिलै वडिआई गुरमुखि से परधान कीए ॥ पारसु भेटि भए से पारस नानक हरि गुर संगि थीए ॥४॥४॥१२॥ {पन्ना 1171} पद्अर्थ: साहु = शाहु, वह धनी जो और व्यापारियों को वणज-व्यापार करने के लिए राशि-पूँजी देता है। साचा = सदा कायम रहने वाला, सदा ही धनाढ टिके रहने वाला। भुख = माया का लालच। गवाऐ = दूर करता है। करि = कर के। द्रिढ़ाऐ = (मन में) पक्का कर देता है। अनदिनु = हर रोज।1। मत भूलहि = कहीं भुला ना देना। चेति = याद कर, सिमर। मुकति = माया की लालच से खलासी। त्रै लोई = तीनों ही लोकों में, सारी ही सृष्टि में कहीं भी। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। नामु हरी = हरी का नाम।1। रहाउ। भगती = लगन, दिली आकर्षण, श्रद्धा। भगति हरी = प्रभू को मिलने की तमन्ना। सत्संगु = भले लोगों की संगति। करमि = (प्रभू की) मेहर से।2। घटि = घट में, शरीर में। घटि घटि = हरेक शरीर में। उपाऐ = पैदा करता है। वेखै = संभाल करता है। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से। करहि = करते हैं। सु = वह बंदे। रंगि = रंग में, प्यार में। भीने = भीगे हुए, मस्त। मना = मनि, (उनके) मन में।3। कउ = को। तखति = तख़्त पर। तखति वडिआई = तख्त पर बैठने की वडिआई, हृदय तख़्त पर बैठे रहने की इज्जत, माया के पीछे भटकने से बचे रहने का आदर। गुरमुखि = गुरू से। परधान = प्रधान, जाने माने। पारसु = गुरू पारस। भेटि = मिल के, छू के। पारस = लोहा आदि धातुओं को सोना बना देने की स्मर्था रखने वाले। गुर संगि = गुरू के संगी। थीऐ = बन गए।4। अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा को (सदा) याद रख। (देखना, माया की भूख में फस के) कहीं (उसको) भुला ना देना। (पर) गुरू की शरण पड़ने से ही परमात्मा का नाम मिलता है, गुरू की शरण पड़े बिना माया की भूख से खलासी नहीं हो सकती (भले ही) तीनों लोकों में ही (दौड़-भाग कर के देख ले), (इस वास्ते, हे मन! गुरू का पल्ला पकड़)।1। रहाउ। गुरू ऐसा शाहु है जिसके पास प्रभू के नाम का धन सदा ही टिका रहता है, (इस वास्ते) गुरू सुख देने के समर्थ है, गुरू प्रभू के साथ मिला देता है, और माया इकट्ठी करने की भूख मनुष्य के मन में से निकाल देता है। गुरू मेहर करके (शरण आए सिख के मन में) प्रभू को मिलने की तमन्ना पक्की कर देता है (क्योंकि गुरू स्वयं) हर वक्त परमात्मा की सिफत-सालाह करता रहता है (अपनी सुरति सदा प्रभू की सिफत-सालाह में टिकाए रखता है)।1। दिली-आकर्षण के बिना सतिगुरू भी नहीं मिलता (भाव, गुरू की कद्र नहीं पाई जा सकती), और भाग्यों के बिना (पिछले संस्कारों की राशि-पूँजी के बिना) प्रभू को मिलने की तमन्ना (मन में) नहीं उपजती। (पिछले संस्कारों की राशि-पूँजी वाले) भाग्यों के बिना गुरमुखों की संगति नहीं मिलती (भाव, सत्संग की कद्र नहीं पड़ सकती), प्रभू की अपनी मेहर के साथ ही उसका नाम प्राप्त होता है।2। जो प्रभू स्वयं सारी सृष्टि पैदा करता है और उसकी संभाल करता है, वह हरेक शरीर में छुपा बैठा है, गुरू की शरण पड़ने वाले संत-जनों को वह हर जगह प्रत्यक्ष दिखाई देने लग जाता है। वह संत जन सदा प्रभू का नाम जपते हैं, और उसके प्यार-रंग में मस्त रहते हैं, उनके मन में प्रभू का आत्मिक जिंदगी देने वाला नाम-जल सदा बसता रहता है।3। गुरू की शरण पड़ कर जिन लोगों को हृदय-तख़्त पर बैठे रहने की (भाव, माया के पीछे भटकने से बचे रहने की) इज्जत मिलती है, उनको परमात्मा जगत में प्रसिद्ध कर देता है। हे नानक! गुरू-पारस को मिल के वे स्वयं भी पारस हो जाते हैं (उनके अंदर भी यह समर्थता आ जाती है कि माया-ग्रसित मनों को प्रभू-चरणों में जोड़ सकें), वह लोग सदा के लिए परमात्मा और गुरू के साथी बन जाते हैं (उनकी सुरति सदा) गुरू-प्रभू के चरणों में टिकी रहती है।4।4।12। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |