श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बसंतु महला ३ घरु १ दुतुके    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ माहा रुती महि सद बसंतु ॥ जितु हरिआ सभु जीअ जंतु ॥ किआ हउ आखा किरम जंतु ॥ तेरा किनै न पाइआ आदि अंतु ॥१॥ तै साहिब की करहि सेव ॥ परम सुख पावहि आतम देव ॥१॥ रहाउ ॥ करमु होवै तां सेवा करै ॥ गुर परसादी जीवत मरै ॥ अनदिनु साचु नामु उचरै ॥ इन बिधि प्राणी दुतरु तरै ॥२॥ बिखु अम्रितु करतारि उपाए ॥ संसार बिरख कउ दुइ फल लाए ॥ आपे करता करे कराए ॥ जो तिसु भावै तिसै खवाए ॥३॥ नानक जिस नो नदरि करेइ ॥ अम्रित नामु आपे देइ ॥ बिखिआ की बासना मनहि करेइ ॥ अपणा भाणा आपि करेइ ॥४॥१॥ {पन्ना 1172}

पद्अर्थ: माहा महि = सब महीनों में। रुती महि = सारी ऋतुओं में ('रुति' बहुवचन 'रितु' से)। सद = सदा। सद बसंतु = सदा खिले रहने वाला परमात्मा। जितु = जिस (परमात्मा) से। सभु = हरेक। हउ = मैं। किआ आखा = मैं क्या कह सकता हूँ। किरम = कीड़ा। किरम जंतु = छोटा सा जीव। किनै = किसी ने भी। न पाइआ = नहीं पाया। आदि = शुरूवात। अंत = आखिर।1।

तै की = तेरी। साहिब की = मालिक की। करहि = करते हैं (बहुवचन)। परम = सबसे ऊँचा। पावहि = हासिल करते हैं। आतम देव = हे परमात्मा!।1। रहाउ।

करमु = बख्शिश। तां = तब। सेवा = भगती। परसादी = कृपा से। जीवत मरै = जीवित ही विकारों से अडोल हो जाता है। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। साचु = सदा कायम रहने वाला। इन बिधि = इस तरीके से। दुतरु = (दुस्तर) जिससे पार लांघना मुश्किल है।2।

बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली माया। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल। करतारि = करतार ने। बिरख = वृक्ष। कउ = को। आपे = स्वयं ही। करता = करतार। भावै = अच्छा लगता है। तिसै = उसी को।3।

जिस नो: संबंधक 'नो' के कारण 'जिसु' की 'ु' मात्रा हट गई है।

नदरि = मेहर की निगाह। करेइ = (करेय) (एक वचन) करता है। देइ = (देय) देता है। बिखिआ = माया। बासना = लालसा। मनहि करेइ = रोक देता है। भाणा = रजा, मर्जी।4।

अर्थ: हे मालिक! हे प्रभू देव! जो मनुष्य तेरी सेवा-भक्ति करते हैं, वे सबसे ऊँचा आत्मिक आनंद पाते हैं।1। रहाउ।

हे प्रभू! सारे महीनों में सारी ऋतुओं में सदा खिले रहने वाला तू स्वयं ही मौजूद है, जिस (तेरी) बरकति से हरेक जीव जीवित है (सजिंद है)। मैं तुच्छ सा जीव क्या कह सकता हूँ? किसी ने भी तेरा ना आदि पाया है ना अंत पाया है।1।

हे भाई! (जब किसी मनुष्य पर परमात्मा की) बख्शिश होती है तब वह (परमात्मा की) सेवा-भगती करता है, गुरू की कृपा से (वह मनुष्य) दुनिया की किरत-कार करता हुआ ही विकारों से बचा रहता है, वह मनुष्य हर वक्त परमात्मा का सदा रहने वाला नाम उचारता रहता है, और, इस तरीके से वह मनुष्य उस संसार-समुंद्र से पार लांघ जाता है जिससे पार लांघना बहुत मुश्किल है।2।

हे भाई! आत्मिक मौत लाने वाली माया और आत्मिक जीवन देने वाला नाम- यह करतार ने (ही) पैदा किए हैं। जगत-वृक्ष को उसने ये दोनों फल लगाए हुए हैं। (सर्व-व्यापक हो के) करतार स्वयं ही (सब कुछ) कर रहा है और (जीवों से) करवा रहा है। जिस जीव को जो फल खिलाने की उसकी मर्जी होती है उसी को वही खिला देता है।3।

हे नानक! जिस मनुष्य पर करतार मेहर की निगाह करता है, उसको वह स्वयं ही आत्मिक जीवन देने वाला अपना नाम देता है, (उसके अंदर से) माया की लालसा रोक देता है। हे भाई! अपनी रज़ा परमात्मा स्वयं (ही) करता है।4।1।

बसंतु महला ३ ॥ राते साचि हरि नामि निहाला ॥ दइआ करहु प्रभ दीन दइआला ॥ तिसु बिनु अवरु नही मै कोइ ॥ जिउ भावै तिउ राखै सोइ ॥१॥ गुर गोपाल मेरै मनि भाए ॥ रहि न सकउ दरसन देखे बिनु सहजि मिलउ गुरु मेलि मिलाए ॥१॥ रहाउ ॥ इहु मनु लोभी लोभि लुभाना ॥ राम बिसारि बहुरि पछुताना ॥ बिछुरत मिलाइ गुर सेव रांगे ॥ हरि नामु दीओ मसतकि वडभागे ॥२॥ पउण पाणी की इह देह सरीरा ॥ हउमै रोगु कठिन तनि पीरा ॥ गुरमुखि राम नाम दारू गुण गाइआ ॥ करि किरपा गुरि रोगु गवाइआ ॥३॥ चारि नदीआ अगनी तनि चारे ॥ त्रिसना जलत जले अहंकारे ॥ गुरि राखे वडभागी तारे ॥ जन नानक उरि हरि अम्रितु धारे ॥४॥२॥ {पन्ना 1172}

पद्अर्थ: राते = रंगे हुए। साचि नामि = सदा कायम रहने वाले हरी नाम में। निहाला = प्रसन्न चिक्त। प्रभ = हे प्रभू! जिउ भावै = जैसे उसको अच्छा लगता है।1।

मेरै मनि = मेरे मन में। भाऐ = प्यारा लगता है। सकउ = सकूँ। रहि न सकउ = मैं रह नहीं सकता। सहजि = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। मेलि = संगति में।1। रहाउ।

पउण = पवन, हवा। देह = शरीर। कठिन = करड़ी। तनि = शरीर में। पीरा = पीड़ा। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। दारू = दवाई। करि = कर के। गुरि = गुरू ने।3।

नदीआ अगनी = (हंस, हेत, लोभ, कोप, -यह) आग की नदियाँ। तनि = शरीर में। चारे = ये चार ही। गुरि = गुरू ने। राखै = रक्षा की। उरि = हृदय में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम।4।

अर्थ: हे भाई! गुरू परमेश्वर मेरे मन को प्यारा लगता है, मैं उसके दर्शन किए बिना नहीं रह सकता (दर्शनों के बिना मुझे धैर्य नहीं आता)। (जब) गुरू (मुझे अपनी) संगति में मिलाता है, (तब) मैं आत्मिक अडोलता में (टिक के उसको) मिलता हूँ।1। रहाउ।

हे प्रभू! जो मनुष्य तेरे सदा-स्थिर नाम में रंगे जाते हैं, वे प्रसन्न-चिक्त रहते हैं। हे दीनों पर दया करने वाले प्रभू! (मेरे ऊपर भी) मेहर कर (मुझे भी अपना नाम बख्श)। हे भाई! उस प्रभू के बिना मुझे और कोई बेली नहीं दिखाई देता। जैसे उसकी रज़ा होती है वैसे ही वह (जीवों की) रक्षा करता है।1।

हे भाई! जिस मनुष्य का यह लालची मन (सदा) लालच में फसा रहता है, वह मनुष्य परमात्मा का नाम भुला के फिर हाथ मलता है। जो मनुष्य गुरू की बताई हुई हरी-भगती में रंगे जाते हैं उनको (प्रभू-चरणों से) विछुड़ों को गुरू (दोबारा) मिला देता है। जिनके माथे पर भाग्य जाग उठे उनको गुरू ने परमात्मा का नाम बख्श दिया।2।

हे भाई! यह शरीर हवा पानी (आदि तत्वों) का बना हुआ है। जिस मनुष्य के इस शरीर में अहंकार का रोग है, (उसके शरीर में इस रोग की) कठिन पीड़ा बनी रहती है। गुरू के सन्मुख हो के जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाता है, परमात्मा का नाम (उसके लिए अहम्-रोग दूर करने के लिए) दवा बन जाता है। जो भी मनुष्य (गुरू की शरण आया) गुरू ने कृपा करके उसका यह रोग दूर कर दिया।3।

हे भाई! (जगत में हंस, हेत, लोभ, कोप) चार आग की नदियां बह रही हैं, (जिन मनुष्यों के) शरीर में ये चारों आग प्रबल हैं, वे मनुष्य तृष्णा में जलते हैं। हे नानक! (कह- हे भाई!) जिन भाग्यशाली सेवकों की गुरू ने रक्षा की, (गुरू ने उनको इन नदियों से) पार लंघा लिया, उन्होंने आत्मिक जीवन देने वाला हरी-नाम अपने हृदय में बसा लिया।4।2।

बसंतु महला ३ ॥ हरि सेवे सो हरि का लोगु ॥ साचु सहजु कदे न होवै सोगु ॥ मनमुख मुए नाही हरि मन माहि ॥ मरि मरि जमहि भी मरि जाहि ॥१॥ से जन जीवे जिन हरि मन माहि ॥ साचु सम्हालहि साचि समाहि ॥१॥ रहाउ ॥ हरि न सेवहि ते हरि ते दूरि ॥ दिसंतरु भवहि सिरि पावहि धूरि ॥ हरि आपे जन लीए लाइ ॥ तिन सदा सुखु है तिलु न तमाइ ॥२॥ नदरि करे चूकै अभिमानु ॥ साची दरगह पावै मानु ॥ हरि जीउ वेखै सद हजूरि ॥ गुर कै सबदि रहिआ भरपूरि ॥३॥ जीअ जंत की करे प्रतिपाल ॥ गुर परसादी सद सम्हाल ॥ दरि साचै पति सिउ घरि जाइ ॥ नानक नामि वडाई पाइ ॥४॥३॥ {पन्ना 1172-1173}

पद्अर्थ: सेवे = सिमरता है। सो = वह मनुष्य। साचु = सदा स्थिर। सहज = आत्मिक अडोलता। सोगु = शोक। मुऐ = आत्मिक मौत मरे हुए। माहि = में। भी = फिर, दोबारा।1।

से जन = वह मनुष्य (बहुवचन)। जीवे = आत्मिक जीवन वाले हैं। साचु = सदा स्थिर हरी नाम। समालहि = हृदय में सम्भालते हैं। साचि = सदा स्थिर हरी नाम में।1। रहाउ।

ते = वह मनुष्य (बहुवचन)। दिसंतरु = (देस+अंतरु) और और देश। सिरि = सिर पर। धूरि = राख। आपे = आप ही, स्वयं ही। तिलु = रक्ती भर भी। तमाइ = तमाय, लालच, लोभ।2।

नदरि = मेहर की निगाह। चूकै = समाप्त हो जाता है। मानु = इज्जत। सद = सदा। हजूरि = हाजर नाजर, अंग संग। कै सबदि = के शबद से। भरपूरि = व्यापक।3।

परसादी = कृपा से। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभू के दर पर। घरि साचै = सदा स्थिर प्रभू के घर में। पति सिउ = इज्जत से। नामि = नाम से। वडाई = इज्जत।4।

अर्थ: हे भाई! जिन मनुष्यों के मन में परमात्मा का नाम बसता है जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू को हृदय में बसाए रखते हैं, सदा-स्थिर प्रभू में लीन रहते हैं, वे मनुष्य आत्मिक जीवन वाले हैं।1। रहाउ।

हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का सिमरन करता है वह परमात्मा का भक्त है, उसको सदा कायम रहने वाली आत्मिक अडोलता मिली रहती है, उसको कभी कोई ग़म छू नहीं सकता। पर, हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़ी रखते हैं (क्योंकि) उनके मन में परमात्मा की याद नहीं है। वह मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़-सहेड़ के जन्मों के चक्करों में पड़े रहते हैं, और बार-बार आत्मिक मौत के चुंगल में फसे रहते हैं।1।

हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का नाम नहीं सिमरते, वे परमात्मा से विछुड़े रहते हैं। वे मनुष्य और-और देशों में भटकते फिरते हैं, अपने सिर में मिट्टी डालते हैं (दुखी होते रहते हैं)। हे भाई! अपने भक्तों को प्रभू स्वयं ही (अपने चरणों में) जोड़े रखता है उनको सदा आत्मिक आनंद प्राप्त रहता है, उनको कभी रक्ती भर भी (माया का) लालच नहीं व्यापता।2।

हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है उसके अंदर से अहंकार दूर हो जाता है, वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू की हजूरी में आदर प्राप्त करता है। गुरू के शबद के बरकति से वह मनुष्य परमात्मा को सदा अपने अंग-संग बसता देखता है, परमात्मा उसको हर जगह बसता दिखाई देता है।3।

हे भाई! जो मनुष्य गुरू की कृपा से उस परमात्मा को सदा याद रखता है जो सारे जीवों की पालना करता है वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू के घर में इज्जत से जाता है। हे नानक! नाम की बरकति से वह मनुष्य (लोक-परलोक में) आदर पाता है।4।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh