श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बसंतु महला ३ ॥ अंतरि पूजा मन ते होइ ॥ एको वेखै अउरु न कोइ ॥ दूजै लोकी बहुतु दुखु पाइआ ॥ सतिगुरि मैनो एकु दिखाइआ ॥१॥ मेरा प्रभु मउलिआ सद बसंतु ॥ इहु मनु मउलिआ गाइ गुण गोबिंद ॥१॥ रहाउ ॥ गुर पूछहु तुम्ह करहु बीचारु ॥ तां प्रभ साचे लगै पिआरु ॥ आपु छोडि होहि दासत भाइ ॥ तउ जगजीवनु वसै मनि आइ ॥२॥ भगति करे सद वेखै हजूरि ॥ मेरा प्रभु सद रहिआ भरपूरि ॥ इसु भगती का कोई जाणै भेउ ॥ सभु मेरा प्रभु आतम देउ ॥३॥ आपे सतिगुरु मेलि मिलाए ॥ जगजीवन सिउ आपि चितु लाए ॥ मनु तनु हरिआ सहजि सुभाए ॥ नानक नामि रहे लिव लाए ॥४॥४॥ {पन्ना 1173}

पद्अर्थ: अंतरि = (उस मनुष्य के) अंदर ही। पूजा = भक्ति। मन ते = मन से, जुड़े मन से। होइ = (होय) होती रहती है। ऐको = एक (परमात्मा) को ही। दूजै = माया के मोह में (फस के)। लोकी = दुनिया के। सतिगुरि = गुरू ने। मैनो = मुझे।1।

मउलिआ = (हर जगह) खिला हुआ है, (हर जगह) प्रकाशमान है। सद बसंतु = सदा खिले रहने वाला परमात्मा। गाइ = गा के।1। रहाउ।

गुर पूछहु = गुरू की शिक्षा लो। वीचारु = (परमात्मा के गुणों की) विचार। तां = तब। आपु = स्वै भाव। छोडि = छोड़ के। होहि = अगर तू हो जाए। भाइ = (शब्द 'भउ' का अधिकरण कारक एक वचन) भावना में। दासत = (दासत्व)। शब्द 'दास' से भाव वाचक संज्ञा। दासत भाइ = (दासत भाय) सेवक स्वभाव में, दासत्व भाव में। तउ = तब। जग जीवनु = जगत का जीवन प्रभू, जगत को पैदा करने वाला प्रभू। मनि = मन में।2।

भगति = बँदगी। सद = सदा। हजूरि = हाजर नाजर, अंग संग। रहिआ भरपूरि = सब जगह व्यापक है। कोई = जो कोई मनुष्य। भेउ = भेद। सभु = हर जगह। आतम देउ = परमात्मा।3।

आपे = (प्रभू) स्वयं ही। मेलि = मिला के। मिलाऐ = (अपने साथ) मिलाता है। सिउ = साथ। लाऐ = जोड़ता है। हरिआ = आत्मिक जीवन से भरपूर। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाऐ = सुभाय, प्यार में। नामि = नाम में। लिव = लगन। रहे लाऐ = लगाए रखते हैं।4।

अर्थ: हे भाई! सदा आनन्द-स्वरूप मेरा परमात्मा (हर जगह) अपना प्रकाश कर रहा है। उस परमात्मा के गुण गा-गा के (मेरा) यह मन सदा खिला रहता है।1। रहाउ।

हे भाई! (जो भी मनुष्य परमात्मा के गुण गाता है उसके) अंदर ही जुड़े मन से परमात्मा की भक्ति होती रहती है, (वह मनुष्य हर जगह) सिर्फ परमात्मा को (बसता) देखता है, (कहीं भी परमात्मा के बिना) किसी और को नहीं देखता। हे भाई! दुनियां ने माया के मोह में फस के सदा बहुत दुख पाया है, पर गुरू ने (मेहर कर के) मुझे सिर्फ परमात्मा ही (हर जगह बसता) दिखा दिया है (और, मैं दुख से बच गया हूँ)।1।

हे भाई! (तुमने भी अगर दुखों से बचना है, तो) गुरू की शिक्षा लो, और, परमात्मा के गुणों को अपने मन में बसाए रखो, (जब प्रभू को अपने मन में बसाओगे) तब सदा कायम रहने वाला परमात्मा के साथ (तुम्हारा) प्यार बन जाएगा। हे भाई! अगर तू स्वै भाव (अहंकार) छोड़ के सेवक-भाव में टिका रहे, तो जगत को पैदा करने वाला परमात्मा (तेरे) मन में आ बसेगा।2।

हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति करता है, वह परमात्मा को सदा अपने अंग-संग देखता है, प्यारा प्रभू उसको हर जगह व्यापक दिखाई देता है। हे भाई! जो भी मनुष्य परमात्मा की इस भक्ति (के करिश्मे) का भेद समझ लेता है, उसको परमात्मा हर जगह बसता दिखाई दे जाता है।3।

पर, हे भाई! (भक्ति की दाति उसकी अपनी मेहर से ही मिलती है) जगत का जीवन प्रभू स्वयं ही (मनुष्य को) गुरू मिला के (अपने चरणों में) जोड़ता है, वह स्वयं ही मनुष्य का चिक्त अपने साथ जोड़ता है। हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के नाम में सुरति जोड़े रखते हैं, वे आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं, उनका मन उनका तन आत्मिक जीवन से भरपूर रहता है।4।4।

बसंतु महला ३ ॥ भगति वछलु हरि वसै मनि आइ ॥ गुर किरपा ते सहज सुभाइ ॥ भगति करे विचहु आपु खोइ ॥ तद ही साचि मिलावा होइ ॥१॥ भगत सोहहि सदा हरि प्रभ दुआरि ॥ गुर कै हेति साचै प्रेम पिआरि ॥१॥ रहाउ ॥ भगति करे सो जनु निरमलु होइ ॥ गुर सबदी विचहु हउमै खोइ ॥ हरि जीउ आपि वसै मनि आइ ॥ सदा सांति सुखि सहजि समाइ ॥२॥ साचि रते तिन सद बसंत ॥ मनु तनु हरिआ रवि गुण गुविंद ॥ बिनु नावै सूका संसारु ॥ अगनि त्रिसना जलै वारो वार ॥३॥ सोई करे जि हरि जीउ भावै ॥ सदा सुखु सरीरि भाणै चितु लावै ॥ अपणा प्रभु सेवे सहजि सुभाइ ॥ नानक नामु वसै मनि आइ ॥४॥५॥ {पन्ना 1173}

पद्अर्थ: वछलु = (वात्सल्य) प्यारा। भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। मनि = मन में। आइ = आ के। ते = से। सहज = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। आपु = स्वै भाव। खोहि = दूर कर के। तद = तब। साचि = सदा स्थिर प्रभू में।1।

सोहहि = शोभते हैं। प्रभ दुआरि = प्रभू के दर पर। कै हेति = के प्यार में। साचै पिआरि = सदा स्थिर हरी के प्यार में।1। रहाउ।

निरमलु = पवित्र जीवन वाला। गुर सबदी = गुरू के शबद से। सुखि = सुख में। सहजि = आत्मिक अडोलता में।2।

रते = रंगे हुए। सद बसंत = सदा कायम रहने वाला खिड़ाव। हरिआ = आत्मिक जीवन से भरपूर। रवि = सिमर के। सूका = आत्मिक जीवन से वंचित। वारो वार = बार बार।3।

जि = जो बात, जो कुछ। भावै = पसंद आती है। सरीरि = शरीर में। भाणै = (प्रभू की) रज़ा में। सहजि = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। सुभाइ = प्रभू के प्रेम में।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा की बँदगी करने वाले मनुष्य सदा परमात्मा के दर पर शोभते हैं, वे सदा गुरू के प्रेम में सदा-स्थिर प्रभू के प्रेम में (जुड़े रहते हैं)।1। रहाउ।

हे भाई! जो मनुष्य गुरू की कृपा से आत्मिक अडोलता में प्रभू के प्यार में लीन रहता है, भक्ति से प्यार करने वाला प्रभू उसके मन में आ बसता है। हे भाई! जब मनुष्य अपने अंदर से स्वै-भाव (अहम्) दूर करके परमात्मा की भक्ति करता है, तब ही सदा-स्थिर परमात्मा में उसका मिलाप हो जाता है।1।

हे भाई! जो मनुष्य गुरू के शबद से अपने अंदर से अहंकार दूर करके परमात्मा की भक्ति करता है, वह मनुष्य पवित्र जीवन वाला हो जाता है। प्रभू स्वयं उसके मन में आ बसता है, उसके अंदर शांति बनी रहती है, वह सदा आनंद में आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।2।

हे भाई!जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू (के प्यार) में रंगे जाते हैं, उनके अंदर सदा उल्लास बना रहता है (मन सदा प्रफुल्लित रहता है)। गोबिंद के गुण याद कर-कर के उनका मन उनका तन आत्मिक जीवन वाला हो जाता है। हे भाई!परमात्मा के नाम के बिना जगत बहुत छोटे आकार का बना रहता है, बार-बार (माया की) तृष्णा की आग में जलता रहता है।3।

हे भाई! जो मनुष्य वही कुछ करता है जो कुछ परमात्मा को अच्छा लगता है (जो मनुष्य प्रभू की रज़ा में चलता है), जो मनुष्य परमात्मा की मर्जी में अपना चिक्त जोड़ता है, उसके हृदय में आत्मिक आनंद बना रहता है। हे नानक! जो मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के प्रभू-प्यार में जुड़ के परमात्मा की भक्ति करता है, परमात्मा का नाम उसके मन में आ बसता है।4।5।

बसंतु महला ३ ॥ माइआ मोहु सबदि जलाए ॥ मनु तनु हरिआ सतिगुर भाए ॥ सफलिओु बिरखु हरि कै दुआरि ॥ साची बाणी नाम पिआरि ॥१॥ ए मन हरिआ सहज सुभाइ ॥ सच फलु लागै सतिगुर भाइ ॥१॥ रहाउ ॥ आपे नेड़ै आपे दूरि ॥ गुर कै सबदि वेखै सद हजूरि ॥ छाव घणी फूली बनराइ ॥ गुरमुखि बिगसै सहजि सुभाइ ॥२॥ अनदिनु कीरतनु करहि दिन राति ॥ सतिगुरि गवाई विचहु जूठि भरांति ॥ परपंच वेखि रहिआ विसमादु ॥ गुरमुखि पाईऐ नाम प्रसादु ॥३॥ आपे करता सभि रस भोग ॥ जो किछु करे सोई परु होग ॥ वडा दाता तिलु न तमाइ ॥ नानक मिलीऐ सबदु कमाइ ॥४॥६॥ {पन्ना 1173-1174}

पद्अर्थ: सबदि = गुरू के शबद से। हरिआ = आत्मिक जीवन से भरपूर। सतिगुर भाऐ = सतिगुर भाय, गुरू के प्यार में (टिक के)। सफलिओ = फल देने वाला। बिरखु = वृक्ष। कै दुआरि = के दर पर। साची बाणी = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह में। नाम पिआरि = हरी नाम के प्यार में।1।

ऐ मन = हे मन! (संबोधन)। सहज सुभाइ = आत्मिक अडोलता देने वाले प्रभू प्यार में। सच फलु = सदा स्थिर प्रभू का नाम फल।1। रहाउ।

आपे = प्रभू स्वयं ही। कै सबदि = के शबद से। सद = सदा। हजूरि = हाजर नाजर, अंग संग। घणी = संघनी। फूली = खिली हुई। बनराइ = बनस्पति। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। बिगसै = खिलता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = सुभाय, प्रभू के प्यार में।2।

अनदिनु = हर रोज हर वक्त। करहि = करते हैं (बहुवचन)। सतिगुरि = गुरू ने। जूठि भरांति = भटकना की जूठ, भटकना की मैल, जूठी भ्रांति। परपंच = जगत पसारा। विसमादु = हैरान। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के। प्रसादु = खैर, दान।3।

आपे = स्वयं ही। सभि = सारे। परु होग = जरूर होगा। तिलु = रक्ती भर भी। तमाइ = लालच। सबदु कमाइ = शबद कमा के, गुरू के शबद अनुसार चल के।4।

अर्थ: हे (मेरे) मन! आत्मिक अडोलता देने वाले (गुर-) प्यार में (टिका रह। इस तरह तू) आत्मिक जीवन की तरावट से भरपूर हो जाएगा। हे मन! गुरू के प्यार की बरकति से (शरीर-वृक्ष को) सदा कायम रहने वाले परमात्मा का नाम-फल लगता है।1। रहाउ।

हे भाई! जो मनुष्य गुरू के शबद से (अपने अंदर से) माया का मोह जला देता है, गुरू के प्यार की बरकति से उसका तन आत्मिक जीवन से भरपूर हो जाता है। हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू की सिफतसालाह में, हरी-नाम के प्यार में (टिक के सदा) परमात्मा के दर पर (प्रभू-चरणों में) टिका रहता है उसका (शरीर-) वृक्ष सफल हो जाता है।1।

हे भाई! गुरू के शबद की बरकति से (जो मनुष्य परमात्मा को) सदा अपने अंग-संग बसता देखता है (उसको समझ आ जाती है कि प्रभू) स्वयं ही (किसी को) नजदीक (दिखाई दे रहा है) स्वयं ही (किसी को) दूर बसता लगने लगता है। हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के प्रभू-प्यार में जुड़ के (सदा) आनंद-भरपूर रहता है (उसको प्रत्यक्ष दिखाई देता है कि परमात्मा की ज्योति-अग्नि से ही) सारी बनस्पति सघन छाया वाली है और खिली हुई है।2।

हे भाई! जो मनुष्य दिन-रात हर वक्त परमात्मा की सिफत-सालाह करते हैं, गुरू ने उनके अंदर से (माया की खातिर) भटकना की मैल दूर कर दी है। हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने से परमात्मा के नाम की दाति मिलती है (जिसको यह दाति मिलती है वह मनुष्य परमात्मा की रची हुई इस) जगत-खेल को देख के 'वाह-वाह' कर उठता है।3।

हे भाई! (परमात्मा सब जगह व्यापक हो के) स्वयं ही सारे रस भोग रहा है। जो कुछ वह प्रभू करना चाहता है जरूर वही होता है। वह परमात्मा सबसे बड़ा दाता है, उसको स्वयं रक्ती भर भी कोई लालच नहीं है। हे नानक! गुरू के शबद को अपने जीवन में ढाल के (ही उसको) मिला जा सकता है।4।6।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh