श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1175 बसंतु महला ३ ॥ बिनु करमा सभ भरमि भुलाई ॥ माइआ मोहि बहुतु दुखु पाई ॥ मनमुख अंधे ठउर न पाई ॥ बिसटा का कीड़ा बिसटा माहि समाई ॥१॥ हुकमु मंने सो जनु परवाणु ॥ गुर कै सबदि नामि नीसाणु ॥१॥ रहाउ ॥ साचि रते जिन्हा धुरि लिखि पाइआ ॥ हरि का नामु सदा मनि भाइआ ॥ सतिगुर की बाणी सदा सुखु होइ ॥ जोती जोति मिलाए सोइ ॥२॥ एकु नामु तारे संसारु ॥ गुर परसादी नाम पिआरु ॥ बिनु नामै मुकति किनै न पाई ॥ पूरे गुर ते नामु पलै पाई ॥३॥ सो बूझै जिसु आपि बुझाए ॥ सतिगुर सेवा नामु द्रिड़्हाए ॥ जिन इकु जाता से जन परवाणु ॥ नानक नामि रते दरि नीसाणु ॥४॥१०॥ {पन्ना 1175} पद्अर्थ: करमा = करम, बख्शिश, मेहर। सभ = सारी लोकाई। भरमि = भटकना ने। भुलाई = गलत राह पर डाल रखी है। मोहि = मोह में। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। अंधे = (आत्मिक जीवन से) अंधे। ठउर = शांति का ठिकाना।1। परवाणु = (प्रभू के दर पर) कबूल। कै सबदि = के शबद में। नामि = नाम में। नीसाणु = परवाना, राहदारी, आदर।1। रहाउ। साचि = सदा स्थिर हरी नाम। रते = रंगे हुए। धुरि = धुर दरगाह से। लिखि = लिख के। मनि = मन मे। भाइआ = भाया, प्यारा लगा। जोती = प्रभू की ज्योति में। जोति = जीवात्मा।2। तारे = पार लंघाता है। परसादी = कृपा से। नाम पिआरु = नाम का प्यार। मुकति = विकारों से मुक्ति। ते = से। पलै पाई = प्राप्त करता है।3। बूझै = समझता है। बुझाऐ = समझ बख्शता है। द्रिढ़ाऐ = हृदय में पक्का करता है। जाता = गहरी सांझ डाल ली। से जन = वह मनुष्य (बहुवचन)। दरि = प्रभू के दर पर।4। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य (परमात्मा की) रज़ा को (मीठा करके) मानता है, गुरू के शबद से परमात्मा के नाम में जुड़ा रहता है, वह मनुष्य (परमात्मा की हजूरी में) कबूल हो जाता है, आदर प्राप्त करता है।1। रहाउ। हे भाई! प्रभू की बख्शिश के बिना सारी (लोकाई) को भटकना में गलत राह पर डाल रखा है, माया के मोह में फस के (लोकाई) बहुत दुख पाती है। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (माया के मोह में) अंधे हुए रहते हैं। (मोह-ग्रसित मनुष्य) आत्मिक शांति का ठिकाना प्राप्त नहीं कर सकता (विकारों में ही फसा रहता है, जैसे) गंदगी का कीड़ा गंदगी में ही मस्त रहता है।1। हे भाई! जिन के माथे पर धुर-दरगाह से भक्ति का लेख लिखा होता है, वे सदा-स्थिर हरी-नाम में रंगे रहते हैं। परमात्मा का नाम सदा उनको अपने मन में प्यारा लगता है। गुरू की बाणी की बरकति से उनके अंदर सदा आत्मिक आनंद बना रहता है, बाणी उनकी जिंद को परमात्मा की ज्योति में मिला देती है।2। हे भाई! परमात्मा का नाम जगत को (विकारों भरे समुंद्र से) पार लंघाता है, पर नाम का प्यार गुरू की कृपा से बनता है। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना किसी मनुष्य ने विकारों से मुक्ति हासिल नहीं की। नाम पूरे गुरू से मिलता है।3। हे भाई! (आत्मिक जीवन का सही रास्ता) वह मनुष्य समझता है जिसको परमात्मा स्वयं समझाता है, परमात्मा उसको गुरू की शरण डाल के उसके हृदय में अपना नाम दृढ़ करवाता है। हे नानक! जिन्होंने एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल ली, वे परमात्मा के दर पर कबूल हो गए, वह मनुष्य परमात्मा के नाम में रंगे गए, परमात्मा के दर पर उनको आदर मिला।4।10। बसंतु महला ३ ॥ क्रिपा करे सतिगुरू मिलाए ॥ आपे आपि वसै मनि आए ॥ निहचल मति सदा मन धीर ॥ हरि गुण गावै गुणी गहीर ॥१॥ नामहु भूले मरहि बिखु खाइ ॥ ब्रिथा जनमु फिरि आवहि जाइ ॥१॥ रहाउ ॥ बहु भेख करहि मनि सांति न होइ ॥ बहु अभिमानि अपणी पति खोइ ॥ से वडभागी जिन सबदु पछाणिआ ॥ बाहरि जादा घर महि आणिआ ॥२॥ घर महि वसतु अगम अपारा ॥ गुरमति खोजहि सबदि बीचारा ॥ नामु नव निधि पाई घर ही माहि ॥ सदा रंगि राते सचि समाहि ॥३॥ आपि करे किछु करणु न जाइ ॥ आपे भावै लए मिलाइ ॥ तिस ते नेड़ै नाही को दूरि ॥ नानक नामि रहिआ भरपूरि ॥४॥११॥ {पन्ना 1175} पद्अर्थ: करे = (परमात्मा) करता है। आपे = स्वयं ही। मनि = मन में। आऐ = आ के। निहचल = ना डोलने वाली। मन धीर = मन की धीरज। गावै = गाता है। गुणी गहीर हरि गुण = गुणों के खजाने और बड़े जिग्ररे वाले हरी के गुण।1। नामहु = नाम से। मरहि = आत्मिक मौत मरते हैं। बिखु = (आत्मिक मौत लाने वाला माया के मोह का) जहर। खाइ = खाय, खा के। जाइ = जाय, जा के, मर के।1। रहाउ। सांति = अडोलता। अभिमानि = अहंकार के कारण। पति = इज्जत। खोइ = गवा लेता है। से = वे मनुष्य (बहुवचन)। जांदा = भटकता (मन)। आणिआ = ले आए।2। वसतु = हरी नाम पदार्थ। अगम अपारा वसतु = अपहुँच और बेअंत हरी का नाम पदार्थ। खोजहि = तलाशते हैं। सबदि = शबद से। बीचारा = प्रभू के गुणों की विचार। नव निधि = (धरती के सारे) नौ ही खजाने। रंगि = (प्रेम) रंग में। सचि = सदा स्थिर हरी नाम में।3। करणु न जाइ = किया नहीं जा सकता। भावै = अच्छा लगता है। ते = से। नामि = नाम में। को = कोई जीव।4। तिस ते: संबंधक 'ते' के कारण 'तिसु' की 'ु' मात्रा हट गई है। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम से टूटे हुए मनुष्य (आत्मिक मौत लाने वाला माया के मोह का) जहर खा के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं, उनकी जिंदगी व्यर्थ चली जाती है, बार-बार जूनियों में पड़े रहते हैं।1। रहाउ। हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है उसको गुरू मिलाता है (और गुरू के द्वारा) स्वयं ही उसके मन में आ बसता है। वह मनुष्य गुणों के खजाने बड़े जिगरे वाले हरी के गुण गाता रहता है (जिसकी बरकति से उसकी) मति (विकारों के हमलों के प्रति) अडोल रहती है, उसके मन में सदा धैर्य बना रहता है।1। हे भाई! (नाम में टूट के जो मनुष्य निरे) कई धार्मिकभेष करते हैं उनके मन में शांति नहीं आ सकती। (बल्कि भेष के) बहुत अहंकार के कारण (भेखधारी मनुष्य लोक-परलोक में) अपनी इज्जत गवा लेता है। हे भाई! वे मनुष्य बहुत भाग्यशाली हैं जिन्होंने गुरू के शबद से गहरी सांझ डाल ली है (और, शबद की बरकति से अपने) बाहर भटकते मन को अंदर की ओर मोड़ के ले आते हैं।2। हे भाई!अपहुँच और बेअंत परमात्मा का नाम पदार्थ (मनुष्य के) हृदय में ही बसता है। गुरू की मति पर चल के गुरू के शबद द्वारा (परमात्मा के गुणों की) विचार करके (जो मनुष्य नाम-पदार्थ की) तलाश करते हैं, उन्होंने (धरती के) नौ-खजानों के तूल्य हरी-नाम को अपने हृदय में ही पा लिया। वे मनुष्य सदा प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं, सदा-स्थिर हरी-नाम में लीन रहते हैं।3। पर, हे भाई! (नाम से टूटे रहना व नाम में लीन रहना- ये सब कुछ) परमात्मा स्वयं ही करता है (जीव द्वारा अपने आप) कुछ नहीं किया जा सकता। जिस पर प्रभू स्वयं ही मेहर करता है उसको अपने साथ जोड़ लेता है। (अपने उद्यम के आसरे) ना कोई मनुष्य उसके नज़दीक है, ना कोई मनुष्य उससे दूर है। हे नानक! (जो मनुष्य उसकी मेहर से उसके) नाम में टिक जाता है, उसको वह हर जगह व्यापक दिखता है।4।11। बसंतु महला ३ ॥ गुर सबदी हरि चेति सुभाइ ॥ राम नाम रसि रहै अघाइ ॥ कोट कोटंतर के पाप जलि जाहि ॥ जीवत मरहि हरि नामि समाहि ॥१॥ हरि की दाति हरि जीउ जाणै ॥ गुर कै सबदि इहु मनु मउलिआ हरि गुणदाता नामु वखाणै ॥१॥ रहाउ ॥ भगवै वेसि भ्रमि मुकति न होइ ॥ बहु संजमि सांति न पावै कोइ ॥ गुरमति नामु परापति होइ ॥ वडभागी हरि पावै सोइ ॥२॥ कलि महि राम नामि वडिआई ॥ गुर पूरे ते पाइआ जाई ॥ नामि रते सदा सुखु पाई ॥ बिनु नामै हउमै जलि जाई ॥३॥ वडभागी हरि नामु बीचारा ॥ छूटै राम नामि दुखु सारा ॥ हिरदै वसिआ सु बाहरि पासारा ॥ नानक जाणै सभु उपावणहारा ॥४॥१२॥ {पन्ना 1175-1176} पद्अर्थ: सबदी = शबद से। चेति = चेत के, सिमर के। सुभाइ = सुभाय, प्यार से। रसि = रस से। रहै अघाइ = (माया की तृष्णा से) तृप्त रहता है। कोट = किले (बहुवचन। 'कोटु' एकवचन) शरीर किले। कोट कोटंतर के = कोट कोट अंतर के, और और किलों के, अनेकों शरीर किलों के, अनेकों जन्मों के। जलि जाहि = जल जाते हैं। जीवत मरहि = दुनिया की किरत कार करते हुए विकारों से अडोल रहते हैं। नामि = नाम में।1। जाणै = जानता है (एकवचन)। मउलिआ = खिला हुआ, आत्मिक जीवन से भरपूर। वखाणै = (वह मनुष्य) उचारता है। हरि गुण दाता नामु = हरी के गुण (हृदय में) पैदा करने वाला हरी नाम।1। रहाउ। वेसि = वेश से, भेष से। भ्रमि = (धरती पर) भ्रमण कर कर के। मुकति = विकारों से मुक्ति। संजमि = संयम से, कठिन तपों से, सिर्फ विकारों से बचने के प्रयत्नों से। सोइ = वह मनुष्य।2। कलि महि = बखेड़े भरे जगत में । (नोट: यहाँ युगों के निर्णय का वर्णन नहीं है। युग कोई भी हो 'नामि रते सदा सुखु पाई'। शब्द 'सदा' बताता है कि यहाँ 'जुगों' के बारे में विचार नहीं है)। नामि = नाम से। ते = के द्वारा। हउमै = अहंकार में। जलि जाई = जलता है, आत्मिक जीवन राख कर लेता है।3। बीचारा = विचारता, सोच मण्डल में बसाता। छूटै = खत्म हो जाता है। हिरदै = हृदय में। सु = वह प्रभू। सभु = हर जगह (बसता)। उपावणहारा = सृजनहार।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं ही जानता है कि अपने नाम की दाति किसको देनी है। जो मनुष्य गुरू के शबद के द्वारा प्रभू के गुणों की बख्शिश करने वाला हरी-नाम उचारता है, उसका ये मन आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता है।1। रहाउ। हे भाई! गुरू के शबद से प्रेम से परमात्मा को याद कर-कर के, मनुष्य हरी-नाम के स्वाद की बरकति से (माया की तृष्णा से) तृप्त रहता है। जो मनुष्य हरी-नाम में लीन रहते हैं, वे दुनिया की किरत-कार करते हुए ही माया के मोह से बचे रहते हैं, उनके अनेकों जन्मों के पाप जल जाते हैं।1। हे भाई! भगवे रंगों के भेष से (धरती पर) भ्रमण करने से विकारों से खलासी नहीं होती। कठिन तपस्या से निरे विकारों के प्रयत्नों से भी कोई मनुष्य आत्मिक शांति प्राप्त नहीं कर सकता। जो मनुष्य गुरू की मति लेता है, उसको प्रभू का नाम प्राप्त होता है, वह भाग्यशाली मनुष्य परमात्मा को मिल जाता है।2। हे भाई! इस बखेड़ों भरे जगत में परमात्मा के नाम से ही (लोक-परलोक की) इज्जत मिलती है। यह नाम पूरे गुरू के पास से मिलता है। हरी-नाम (के प्यार-रंग) में रंगे जा के मनुष्य सदा (हरेक युग में) सुख भोगता है। नाम के बिना मनुष्य अहंकार की आग में अपना आत्मिक जीवन राख कर लेता है।3। हे भाई! जो भाग्यशाली मनुष्य परमात्मा के नाम को अपनी सोच-मण्डल में बसाता है, नाम की बरकति से उसका सारा दुख समाप्त हो जाता है। हे नानक! वह मनुष्य हर जगह सृजनहार को बसता समझता है (वह जानता है कि जो प्रभू) हृदय में बस रहा है, बाहर जगत में भी वही पसरा हुआ है।4।12। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |