श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बसंतु महला ३ इक तुके ॥ तेरा कीआ किरम जंतु ॥ देहि त जापी आदि मंतु ॥१॥ गुण आखि वीचारी मेरी माइ ॥ हरि जपि हरि कै लगउ पाइ ॥१॥ रहाउ ॥ गुर प्रसादि लागे नाम सुआदि ॥ काहे जनमु गवावहु वैरि वादि ॥२॥ गुरि किरपा कीन्ही चूका अभिमानु ॥ सहज भाइ पाइआ हरि नामु ॥३॥ ऊतमु ऊचा सबद कामु ॥ नानकु वखाणै साचु नामु ॥४॥१॥१३॥ {पन्ना 1176}

इक तुके = एक तुक वाले शबद।

पद्अर्थ: कीआ = पैदा किया हुआ। किरम = कीड़ा। किरम जंतु = निमाणा जीव। देहि = अगर तू दे। जापी = मैं जपूँ। आदि मंतु = आदि नाम मंत्र, सतिनाम।1।

आखि = कह के, बयान कर के। वीचारी = मैं मन में बसाऊँ। माइ = माय, हे माँ! जपि = जप के। लगउ = मैं लगूँ। हरि कै पाइ = प्रभू के चरणों में।1। रहाउ।

प्रसादि = कृपा से। नामि सुआदि = नाम के स्वाद में। वैरि = वैर में। वादि = झगड़े में।2।

गुरि = गुरू ने। चूका = समाप्त हो गया। सहज = आत्मिक अडोलता। भाइ = भाय, प्रेम में।3।

सबद कामु = सिफत सालाह की बाणी पढ़ने वाला काम। नानकु वखाणै = नानक उचारता है। साचु = सदा कायम रहने वाला।4।

अर्थ: हे माँ! (मेरी तमन्ना ये है कि) मैं परमात्मा के गुण उचार के उनको अपने मन में बसाए रखूँ, हरी-नाम जप-जप के हरी के चरणों में जुड़ा रहूँ।1। रहाउ।

हे प्रभू! मैं तेरा ही पैदा किया हुआ तुच्छ जीव हूँ, अगर तू स्वयं ही दे, तब ही मैं तेरा सतिनाम-मंत्र जप सकता हूँ।1।

मानव गुरू की कृपा के साथ (ही) नाम के रस में लग सकता है। वैर में वव िरोध में क्यों अपनी ज़िंदगी गुमा रहे हो? (गुरू की सरन पड़ो) ।2।

हे भाई! जिस मनुष्य पर गुरू ने मेहर की, उसके अंदर से अहंकार समाप्त हो गया। उसने आत्मिक अडोलता देने वाले प्रेम में टिक के परमात्मा का नाम प्राप्त कर लिया।3।

हे भाई! प्रभू की सिफत-सालाह की बाणी पढ़ने वाला काम (और सारे कामों से) उक्तम और ऊँचा है, (तभी तो) नानक सदा-स्थिर प्रभू का नाम उचारता रहता है।4।13।

बसंतु महला ३ ॥ बनसपति मउली चड़िआ बसंतु ॥ इहु मनु मउलिआ सतिगुरू संगि ॥१॥ तुम्ह साचु धिआवहु मुगध मना ॥ तां सुखु पावहु मेरे मना ॥१॥ रहाउ ॥ इतु मनि मउलिऐ भइआ अनंदु ॥ अम्रित फलु पाइआ नामु गोबिंद ॥२॥ एको एकु सभु आखि वखाणै ॥ हुकमु बूझै तां एको जाणै ॥३॥ कहत नानकु हउमै कहै न कोइ ॥ आखणु वेखणु सभु साहिब ते होइ ॥४॥२॥१४॥ {पन्ना 1176}

पद्अर्थ: बनसपति = पेड़ पौधे घास बूटी आदि, धरती में से उगी, उत्भुज। मउली = हरी भरी हो जाती है, खिल उठती है। मउलिआ = खिल उठता है, हरा भरा हो जाता है, आत्मिक जीवन वाला हो जाता है। संगि = साथ।1।

साचु = सदा स्थिर हरी नाम। मुगध मना = हे मूर्ख मन! सुखु = आत्मिक आनंद।1। रहाउ।

इतु = इस से। इतु मनि = इस मन से। इतु मनि मउलिअै = अगर ये मन आत्मिक जीवन वाला हो जाए। अंम्रित फलु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम फल। नामु गोबिंद = गोबिंद का नाम।2।

सभु = हरेक जीव। आखि = कह के। वखाणै = बताता है। ऐको ऐकु = परमात्मा एक स्वयं ही स्वयं है। ऐको जाणै = एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है।3।

कहत नानकु = नानक कहता है। साहिब ते = मालिक प्रभू से, मालिक की प्रेरणा से।4।

अर्थ: हे (मेरे) मूर्ख मन! तू सदा कायम रहने वाले परमात्मा को सिमरा कर। तब ही, हे मेरे मन! तू आनंद पा सकेगा।1। रहाउ।

हे भाई! (जैसे जब) बसंत चढ़ता है तो सारी धरती हरी-भरी हो जाती है, (वैसे ही) गुरू की संगति में रह के यह मन (आत्मिक जीवन से) हरा-भरा हो जाता है।1।

हे भाई! (जिस मनुष्य ने गुरू की संगति में) गोबिंद का नाम हासिल कर लिया, आत्मिक जीवन देने वाला नाम-फल प्राप्त कर लिया, उसका ये मन खिल उठने से उसके अंदर आत्मिक आनंद पैदा हो गया है।2।

हे भाई! वैसे तो हरेक मनुष्य कहता फिरता है कि (सब जगह) परमात्मा स्वयं ही स्वयं है, पर जब मनुष्य परमात्मा की रज़ा को समझता है, तब ही उसके साथ गहरी सांझ डालता है।3।

हे भाई! नानक कहता है- (जब मनुष्य परमात्मा की रज़ा को समझ लेता है तब) मनुष्य 'मैं मैं' नहीं करता (तब उसे यह समझ आ जाती है कि) जीव वही कुछ कहता-देखता है जो मालिक की तरफ़ से प्रेरणा होती है।4।2।14।

बसंतु महला ३ ॥ सभि जुग तेरे कीते होए ॥ सतिगुरु भेटै मति बुधि होए ॥१॥ हरि जीउ आपे लैहु मिलाइ ॥ गुर कै सबदि सच नामि समाइ ॥१॥ रहाउ ॥ मनि बसंतु हरे सभि लोइ ॥ फलहि फुलीअहि राम नामि सुखु होइ ॥२॥ सदा बसंतु गुर सबदु वीचारे ॥ राम नामु राखै उर धारे ॥३॥ मनि बसंतु तनु मनु हरिआ होइ ॥ नानक इहु तनु बिरखु राम नामु फलु पाए सोइ ॥४॥३॥१५॥ {पन्ना 1176}

पद्अर्थ: सभि = सारे। भेटै = मिलता है।1।

हरि जीउ = हे प्रभू जी! (संबोधन)। आपे = तू स्वयं ही। कै सबदि = के शबद से। सच नामि = (तेरे) सदा कायम रहने वाले नाम में। समाइ = लीन हो जाता है।1। रहाउ।

मनि = मन में। बसंतु = सदा खिले रहने वाला प्रभू। सभि = सारे। लोइ = जगत में। फलहि = वह फलते हैं। फुलीअहि = उनको फूल लगते हैं, वे प्रफुल्लित होते हैं। नामि = नाम से।2।

सदा बसंतु = सदा ही आत्मिक खिलाव। बिरखु = वृक्ष। सोइ = वह मनुष्य।4।

अर्थ: हे प्रभू जी! (जिस मनुष्य को) तू स्वयं ही (अपने चरणों में) जोड़ लेता है, गुरू के शबद द्वारा (वह मनुष्य) (तेरे) सदा कायम रहने वाले नाम में लीन रहता है।1। रहाउ।

हे प्रभू! सारे जुग (सारे समय) तेरे ही बनाए हुए हैं (तेरे नाम की प्राप्ति युगों के भेदभाव अर्थात किसी विशेष युग में पैदा होने व भक्ति करने से नहीं होती। जिस मनुष्य को तेरी मेहर से) गुरू मिल जाता है (उसके अंदर नाम जपने वाली) मति बुद्धि पैदा हो जाती है।1।

हे भाई! (जिन मनुष्यों के) मन में सदा खिले रहने वाला प्रभू आ बसता है, वह सारे ही इस जगत में आत्मिक जीवन वाले हो जाते हैं, वह मनुष्य दुनियां में भी कामयाब होते हैं, परमात्मा के नाम की बरकति से उनके अंदर आत्मिक आनंद (भी) बना रहता है।2।

हे भाई! जो मनुष्य गुरू के शबद को मन में बसाता है परमात्मा के नाम को दिल में टिकाए रखता है, उसके अंदर सदा आत्मिक उमंग बनी रहती है।3।

हे नानक! जिस मनुष्य के मन में सदा खिले रहने वाला हरी आ बसता है, उसका तन आत्मिक जीवन वाला हो जाता है उसका मन आत्मिक जीवन वाला हो जाता है। हे नानक! ये शरीर (मानो) वृक्ष है, (जिसके मन में बसंत आ जाती है) उस मनुष्य का ये शरीर-वृक्ष हरी-नाम-फल प्राप्त कर लेता है।4।15।

बसंतु महला ३ ॥ तिन्ह बसंतु जो हरि गुण गाइ ॥ पूरै भागि हरि भगति कराइ ॥१॥ इसु मन कउ बसंत की लगै न सोइ ॥ इहु मनु जलिआ दूजै दोइ ॥१॥ रहाउ ॥ इहु मनु धंधै बांधा करम कमाइ ॥ माइआ मूठा सदा बिललाइ ॥२॥ इहु मनु छूटै जां सतिगुरु भेटै ॥ जमकाल की फिरि आवै न फेटै ॥३॥ इहु मनु छूटा गुरि लीआ छडाइ ॥ नानक माइआ मोहु सबदि जलाइ ॥४॥४॥१६॥ {पन्ना 1176}

पद्अर्थ: बसंतु = आत्मिक उमंग। जो = जो जो मनुष्य (एक वचन)। गाइ = गाता है (एकवचन)। पूरै भागि = बड़ी किस्मत से। कराइ = कराता है।1।

धंधै = धंधे में। बांधा = बँधा हुआ। मूठा = ठगा हुआ, लुटा हुआ। बिललाइ = बिलकता है, दुखी होता है।2।

छूटै = (माया के पँजे से) बचता है। जा = जब। भेटै = मिलता है। जम काल = मौत, आत्मिक मौत। फेटै = मार तले।3।

गुरि = गुरू ने। सबदि = शबद से। जलाइ = जला देता है।4।

अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य का) यह मन माया के मोह में (फस के) मेर-तेर में (फस के) आत्मिक मौत सहेड़ लेता है (उस मनुष्य के) इस मन को आत्मिक उमंग की छोह प्राप्त नहीं होती।1। रहाउ।

हे भाई! जो जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाता रहता है, उनके अंदर आत्मिक उमंग बनी रहती है। (पर जीव के वश की बात नहीं है) बड़ी किस्मत से परमात्मा (स्वयं ही जीव से) भक्ति करवाता है।1।

हे भाई! जिस मनुष्य का यह मन माया के धंधे में बँधा रहता है (और इस हालत में टिका रह के) कर्म कमाता है, माया (का मोह) उसके आत्मिक जीवन को लूट लेता है, वह सदा दुखी रहता है।2।

हे भाई! जब मनुष्य को गुरू मिल जाता है तब मनुष्य का यह मन (माया के मोह के पँजे में से) बच निकलता है। फिर वह आत्मिक मौत की मार के काबू में नहीं आता।3।

पर, हे भाई! (माया के मोह में से निकलना जीव के अपने वश की बात नहीं, जिस मनुष्य को) गुरू ने (माया के पँजे में से) छुड़ा लिया, उसका ये मन (माया के मोह से) बच गया। हे नानक! वह मनुष्य माया के मोह को गुरू के शबद की सहायता से जला देता है।4।16।

बसंतु महला ३ ॥ बसंतु चड़िआ फूली बनराइ ॥ एहि जीअ जंत फूलहि हरि चितु लाइ ॥१॥ इन बिधि इहु मनु हरिआ होइ ॥ हरि हरि नामु जपै दिनु राती गुरमुखि हउमै कढै धोइ ॥१॥ रहाउ ॥ सतिगुर बाणी सबदु सुणाए ॥ इहु जगु हरिआ सतिगुर भाए ॥२॥ फल फूल लागे जां आपे लाए ॥ मूलि लगै तां सतिगुरु पाए ॥३॥ आपि बसंतु जगतु सभु वाड़ी ॥ नानक पूरै भागि भगति निराली ॥४॥५॥१७॥ {पन्ना 1176-1177}

पद्अर्थ: चढ़िआ = शुरू होता है। फूली = खिल उठती है। बनराइ = बनस्पति। ऐहि = (शब्द 'ऐह' का बहुवचन)। फूलहि = प्रफुल्लित होते हैं, खिल उठते हैं, आत्मिक जीवन वाले हो जाते हैं। लाइ = लगा के, जोड़ के।1।

इन् बिधि = इस तरीके से (अक्षर 'न' के साथ आधा 'ह' है = इन्ह)। हरिआ = आत्मिक जीवन वाला। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। धोइ = धो के।1। रहाउ।

सतिगुर बाणी = गुरू की बाणी। सुणाऐ = (अपने आप को) सुनाता है। सतिगुर भाऐ = गुरू के प्यार में (टिक के)।2।

जा = जब। आपे = प्रभू स्वयं ही। मूलि = जगत के आदि में। तां = तब ही।3।

सभु = सारा। वाड़ी = बगीचा। पूरै भागि = बड़ी किस्मत से। निराली = (माया के मोह से) निर्लिप करने वाली।4।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर (अपने अंदर से) अहंकार धो के निकाल देता है और दिन-रात हर वक्त परमात्मा का नाम जपता है, इस तरीके से (उसका) यह मन आत्मिक जीवन से भरपूर हो जाता है।1। रहाउ।

हे भाई! (जैसे जब) बसंत का मौसम शुरू होता है तब सारी बनस्पति खिल उठती है (वैसे) ये सारे जीव परमात्मा में चिक्त जोड़ के आत्मिक जीवन से खिल उठते हैं।1।

हे भाई! जब यह जगत गुरू की बाणी सुनता है गुरू का शबद सुनता है और गुरू के प्यार में मगन होता है तब यह आत्मिक जीवन से हरा-भरा हो जाता है।2।

हे भाई! (जीव के अपने वश की बात नहीं है। मनुष्य जीवन के वृक्ष को आत्मिक गुणों के) फूल-फल (तब ही) लगते हैं जब परमात्मा स्वयं ही लगाता है। (जब प्रभू की मेहर से मनुष्य को) गुरू मिलता है, तब मनुष्य सारे जगत के सृजनहार में जुड़ता है।3।

हे भाई! यह सारा जगत (परमात्मा की) बगीची है, (इसको हरा-भरा करने वाला) बसंत भी वह स्वयं ही है। हे नानक! (माया के मोह से) निर्लिप करने वाली हरी की भक्ति बड़ी किस्मत से ही (किसी मनुष्य को मिलती है)।4।17।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh