श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1177 बसंतु हिंडोल महला ३ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गुर की बाणी विटहु वारिआ भाई गुर सबद विटहु बलि जाई ॥ गुरु सालाही सद अपणा भाई गुर चरणी चितु लाई ॥१॥ मेरे मन राम नामि चितु लाइ ॥ मनु तनु तेरा हरिआ होवै इकु हरि नामा फलु पाइ ॥१॥ रहाउ ॥ गुरि राखे से उबरे भाई हरि रसु अम्रितु पीआइ ॥ विचहु हउमै दुखु उठि गइआ भाई सुखु वुठा मनि आइ ॥२॥ धुरि आपे जिन्हा नो बखसिओनु भाई सबदे लइअनु मिलाइ ॥ धूड़ि तिन्हा की अघुलीऐ भाई सतसंगति मेलि मिलाइ ॥३॥ आपि कराए करे आपि भाई जिनि हरिआ कीआ सभु कोइ ॥ नानक मनि तनि सुखु सद वसै भाई सबदि मिलावा होइ ॥४॥१॥१८॥१२॥१८॥३०॥ {पन्ना 1177} पद्अर्थ: विटहु = से। वारिआ = सदके। भाई = हे भाई! बलि जाई = बलि जाई, मैं कुर्बान जाता हूँ। सालाही = मैं सलाहता हूँ। सद = सदा। लाई = लाई, मैं लगाता हूँ।1। मन = हे मन! नामि = नाम में लाइ = जोड़। हरिआ = आत्मिक जीवन वाला। पाइ = प्राप्त कर के।1। रहाउ। गुरि = गुरू ने। से = वे (बहुवचन)। रसु अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला रस। पीआइ = पिला के। उठि गइआ = नाश हो गया। वुठा = वश में पड़ा। आइ = आ के। मनि = मन में।2। धुरि = धुर दरगाह से। नो = को। बखसिओनु = बख्शा उस (परमात्मा) ने। सबदे = शबद से। लइअनु = लिए हैं उस (परमात्मा) ने। अघुलीअै = निर्लिप हो जाया जाता है, मुक्त हो जाते हैं। मेलि = मेल के।3। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। सभु कोइ = हरेक जीव। मनि = मन में। तनि = तन में। सद = सदा। सबदि = शबद से। मिलावा = मिलाप।4। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के नाम में चिक्त जोड़। हे भाई! परमात्मा का नाम-फल प्राप्त करके तेरा मन खिल उठेगा तेरा तन खिल उठेगा।1। रहाउ। हे भाई! मैं गुरू की बाणी से गुरू के शबद से बलिहार जाता हूँ। हे भाई! मैं सदा अपने गुरू को सलाहता हूँ, मैं अपने गुरू के चरणों में चिक्त जोड़ता हूँ।1। हे भाई! गुरू ने जिन गुरमुखों की रक्षा की वे (माया के मोह के पँजे से) बच गए गुरू ने उनको आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पिला के (बचा लिया)। हे भाई! उनके अंदर से अहंकार का दुख दूर हो गया, उनके मन में आनंद आ बसा।2। हे भाई! धुर-दरगाह से परमात्मा ने स्वयं ही जिन पर बख्शिश की, उनको उसने (गुरू के) शबद में जोड़ दिया। हे भाई! उनके चरण-धूड़ की बरकति से (माया से) निर्लिप हुआ जाता है (जिन पर बख्शिश करता है उन्हें) साध-संगति में मिला के (अपने चरणों में) जोड़ लेता है।3। हे भाई! जिस परमात्मा ने हरेक जीव को जिंद दी है वह स्वयं ही (जीवों से सब कुछ) करवाता है स्वयं ही (सबमें व्यापक हो के सब कुछ) करता है। हे नानक! (कह-) हे भाई! गुरू के शबद से जिस मनुष्य का मिलाप परमात्मा के साथ हो जाता है, उसके मन में उसके तन में सदा आनंद बना रहता है।4।1।18।12।18।30। वेरवा: रागु बसंतु महला ४ घरु १ इक तुके ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जिउ पसरी सूरज किरणि जोति ॥ तिउ घटि घटि रमईआ ओति पोति ॥१॥ एको हरि रविआ स्रब थाइ ॥ गुर सबदी मिलीऐ मेरी माइ ॥१॥ रहाउ ॥ घटि घटि अंतरि एको हरि सोइ ॥ गुरि मिलिऐ इकु प्रगटु होइ ॥२॥ एको एकु रहिआ भरपूरि ॥ साकत नर लोभी जाणहि दूरि ॥३॥ एको एकु वरतै हरि लोइ ॥ नानक हरि एकुो करे सु होइ ॥४॥१॥ {पन्ना 1177} पद्अर्थ: पसरी = बिखरी हुई। जोति = ज्योति, प्रकाश। घटि घटि = हरेक शरीर में। रमईआ = सुंदर राम। ओति पोति = (ओत = उना हुआ। प्रोत = परोया हुआ) ताने पेटे की तरह।1। रविआ = मौजूद है। स्रब = सरब, सर्व। स्रब थाइ = सरब थाय, सारी जगहों में। सबदी = शबद से। मिलीअै = मिला जा सकता है। माइ = हे माँ!।1। रहाउ। घटि = शरीर। घटि घटि अंतरि = हरेक शरीर के अंदर। ऐको = एक स्वयं ही। गुरि मिलिअै = अगर गुरू मिल जाए। प्रगटु होइ = प्रत्यक्ष दिख जाता है।2। सकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। लोभी = लालची। जाणहि = जानते हें, समझते हैं (बहुवचन)।3। लोइ = लोय, जगत में (अधिकरण कारक, एकवचन)। ऐकुो = ('क' के साथ दो मात्राएं हैं। असल शब्द 'ऐकु' है यहाँ 'ऐको' पढ़ना है)। सु = वह कुछ।4। अर्थ: हे मेरी माँ! (चाहे सिर्फ) एक परमात्मा ही हर जगह मौजूद है, (फिर भी) गुरू के शबद के द्वारा ही (उसको) मिला जा सकता है।1। रहाउ। हे मेरी माँ! जैसे सूरज के किरण की रौशनी (सारे जगत में) बिखरी हुई है, वैसे ही सुंदर राम ताने-पेटे की तरह हरेक शरीर में मौजूद (ओत-प्रोत) है।1। हे माँ! वह एक परमात्मा ही हरेक शरीर के अंदर व्यापक है। अगर (जीव को) गुरू मिल जाए, तब वह परमात्मा प्रत्यक्ष दिखाई दे जाता है।2। हे माँ! एक परमात्मा ही हर जगह ज़ॅरे-ज़ॅरे में बस रहा है। पर परमात्मा से टूटे हुए माया के लालची मनुष्य समझते हैं कि वह कहीं दूर बसता है।3। हे नानक! एक परमात्मा ही सारे जगत में बरत रहा है। वह सर्व-व्यापक प्रभू ही जो कुछ करता है वह होता है।4।1। बसंतु महला ४ ॥ रैणि दिनसु दुइ सदे पए ॥ मन हरि सिमरहु अंति सदा रखि लए ॥१॥ हरि हरि चेति सदा मन मेरे ॥ सभु आलसु दूख भंजि प्रभु पाइआ गुरमति गावहु गुण प्रभ केरे ॥१॥ रहाउ ॥ मनमुख फिरि फिरि हउमै मुए ॥ कालि दैति संघारे जम पुरि गए ॥२॥ गुरमुखि हरि हरि हरि लिव लागे ॥ जनम मरण दोऊ दुख भागे ॥३॥ भगत जना कउ हरि किरपा धारी ॥ गुरु नानकु तुठा मिलिआ बनवारी ॥४॥२॥ {पन्ना 1177} पद्अर्थ: रैणि = रात। दुइ = दोनों। सदे = आमंत्रण, संदेशा (शब्द 'सॅदा' का बहुवचन = मौत का संदेशा)। सदे पऐ = मौत के संदेशे मिल रहे हैं, मौत के बुलावे आ रहे हैं। मन = हे मन! अंति = आखिर को। रखि लीऐ = रक्षा करता है।1। चेति = चेते कर। सभु = सारा। दूख = सारे दुख। भंजि = नाश करके। गुरमति = गुरू की मति ले के। करे = के।1। रहाउ। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। मुऐ = आत्मिक मौत सहेड़ते हैं। कालि = काल ने। दैति = दैत्य ने। संघारे = मार दिए। जमपुरि = जम की पुरी में।2। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। लिव = लगन। भागे = दूर हो जाते हैं।3। कउ = को। तुठा = दयावान हुआ। बनवारी = परमात्मा।4। अर्थ: हे मेरे मन! सदा परमात्मा को याद किया कर, गुरू की मति ले के परमात्मा के गुण गाया कर। (जिस मनुष्य ने ये उद्यम किया, उसने) सारा आलस दूर करके अपने सारे दुख नाश कर के परमात्मा का मिलाप हासिल कर लिया।1। रहाउ। हे मेरे मन! रात और दिन दोनों मौत का संदेशा दे रहे हैं (कि उम्र बीत रही है, और, मौत नज़दीक आ रही है)। हे मन! परमात्मा का नाम सिमरा कर, हरी-नाम ही अंत में सदा रक्षा करता है।1। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य बार-बार अहंकार के कारण आत्मिक मौत सहेड़ते रहते हैं। जब काल दैत्य ने उन्हें मार डाला, तब जमों के वश में पड़ गए।2। हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों के अंदर परमात्मा के नाम की लगन लगती है (जिसकी बरकति से) पैदा होने व मरने के उनके दोनों दुख दूर हो जाते हैं।3। हे भाई! अपने भक्तों पर परमात्मा स्वयं मेहर करता है (उनको गुरू से मिलाता है)। हे भाई! जिस मनुष्य पर गुरू नानक दयावान हुआ, उसको परमात्मा मिल गया।4।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |