श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बसंतु हिंडोल महला ४ घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ राम नामु रतन कोठड़ी गड़ मंदरि एक लुकानी ॥ सतिगुरु मिलै त खोजीऐ मिलि जोती जोति समानी ॥१॥ माधो साधू जन देहु मिलाइ ॥ देखत दरसु पाप सभि नासहि पवित्र परम पदु पाइ ॥१॥ रहाउ ॥ पंच चोर मिलि लागे नगरीआ राम नाम धनु हिरिआ ॥ गुरमति खोज परे तब पकरे धनु साबतु रासि उबरिआ ॥२॥ पाखंड भरम उपाव करि थाके रिद अंतरि माइआ माइआ ॥ साधू पुरखु पुरखपति पाइआ अगिआन अंधेरु गवाइआ ॥३॥ जगंनाथ जगदीस गुसाई करि किरपा साधु मिलावै ॥ नानक सांति होवै मन अंतरि नित हिरदै हरि गुण गावै ॥४॥१॥३॥ {पन्ना 1178}

पद्अर्थ: रतन = श्रेष्ठ आत्मिक गुण। कोठड़ी = सुंदर सा कोठा, सुंदर सा खजाना। रतन कोठड़ी = श्रेष्ठ आत्मिक गुणों का सुंदर सा खजाना। गढ़ = किला। मंदरि = मन्दिर में। गढ़ मंदरि = शरीर किले में, शरीर मन्दिर में। लुकानी = छुपी हुई है, गुप्त है। खोजीअै = खोज की जा सकती है। मिलि = (गुरू को) मिल के। जोती = प्रभू की ज्योति में।1।

माधो = हे माया के पति! हे प्रभू! साधू = गुरू। सभि = सारे। नासहि = दूर हो जाते हैं। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। पाइ = प्राप्त कर लेता है।1। रहाउ।

पंच चोर = कामादिक पाँच चोर। लागे = लगे हुए हैं, सेंध लगा रहे हैं। हिरिआ = चुरा लिया है। खोज = खुरा, निशान। पकरे = पकड़े जाते हैं। उबरिआ = बच जाता है।2।

उपाव = (शब्द 'उपाउ' का बहुवचन) प्रयास। रिद = हृदय। पुरख पति = सब मनुष्यों का पति, सब मनुष्यों से श्रेष्ठ। अगिआन = आत्मिक जीवन से बेसमझी।3।

जगंनाथ = जगत का नाथ। जगदीस = जगत का ईश्वर। गुसाई = धरती का पति। साधू = गुरू। अंतरि = अंदर, में। हिरदै = हृदय में। गावै = गाता है।4।

अर्थ: हे माया के पति प्रभू! (मुझे) दास को गुरू मिला दे। गुरू के दर्शन करते हुए सारे पाप नाश हो जाते हैं। (जो मनुष्य गुरू के दर्शन करता है, वह) पवित्र और सबसे ऊँचा दर्जा हासिल कर लेता है।1। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा का नाम श्रेष्ठ आत्मिक गुणों का सुंदर सा खजाना है, यह खजाना शरीर-किले में शरीर-मन्दिर में गुप्त पड़ा रहता है। जब (मनुष्य को) गुरू मिलता है तब (उस खजाने की) तलाश की जा सकती है। (गुरू को) मिल के मनुष्य की जिंद परमात्मा की ज्योति में लीन हो जाती है।1।

हे भाई! (मनुष्य के इस शरीर-) नगर में (कामादिक) पाँच चोर के मिल के सेंध लगाए रखते हैं, और (मनुष्य के अंदर से) परमात्मा का नाम-धन चुरा लेते हैं। जब कोई मनुष्य गुरू की मति ले के इनका खुरा-निशान ढूँढता है तब (ये चोर) पकड़े जाते हैं, और उस मनुष्य का नाम-धन नाम-राशि सारे का सारा बच जाता है।2।

हे भाई! धर्म का दिखावा करने वाले और वहमों-भरमों वाले उपाय करके (मनुष्य) थक जाते हैं उनके हृदय में सदा माया (की तृष्णा ही टिकी रहती है)। पर जिस मनुष्य को श्रेष्ठ पुरख गुरू मिल जाता है, वह मनुष्य अपने अंदर से आत्मिक जीवन के प्रति बेसमझी का अंधकार दूर कर लेता है।3।

हे नानक! जगत का नाथ, जगत का मालिक, जगत का पति मेहर करके जिस मनुष्य को गुरू मिलाता है, उस मनुष्य के मन में आत्मिक अडोलता बनी रहती है, वह मनुष्य अपने हृदय में सदा परमात्मा के गुण गाता रहता है।4।1।3।

नोट: शीर्षक के अनुसार यह शबद बसंत और हिंडोल दोनों मिश्रित रागों में गाए जाने हैं।

बसंतु महला ४ हिंडोल ॥ तुम्ह वड पुरख वड अगम गुसाई हम कीरे किरम तुमनछे ॥ हरि दीन दइआल करहु प्रभ किरपा गुर सतिगुर चरण हम बनछे ॥१॥ गोबिंद जीउ सतसंगति मेलि करि क्रिपछे ॥ जनम जनम के किलविख मलु भरिआ मिलि संगति करि प्रभ हनछे ॥१॥ रहाउ ॥ तुम्हरा जनु जाति अविजाता हरि जपिओ पतित पवीछे ॥ हरि कीओ सगल भवन ते ऊपरि हरि सोभा हरि प्रभ दिनछे ॥२॥ जाति अजाति कोई प्रभ धिआवै सभि पूरे मानस तिनछे ॥ से धंनि वडे वड पूरे हरि जन जिन्ह हरि धारिओ हरि उरछे ॥३॥ हम ढींढे ढीम बहुतु अति भारी हरि धारि क्रिपा प्रभ मिलछे ॥ जन नानक गुरु पाइआ हरि तूठे हम कीए पतित पवीछे ॥४॥२॥४॥ {पन्ना 1178}

पद्अर्थ: पुरखु = सर्व व्यापक। अगम = अपहुँच। गुसाई = धरती का पति। कीरे = कीड़े। किरम = छोटे छोटे कीड़े, कृमि। तुमनछे = तेरे (पैदा किए हुए)। दीन दइआल = हे दीनों पर दया करने वाले! बनछे = बांछे, चाहत रखते हैं।1।

मेलि = मिला। क्रिपछे = कृपा। किलविख = पाप। मिलि = मेलि, मिला के (साधारणतया 'मिलि' का अर्थ है 'मिल के')। हनछे = हच्छे, पवित्र जीवन वाले।1। रहाउ।

जाति अविजाता = ऊँची जाति का चाहे नीच जाति का। पतित = विकारों में गिरा हुआ। पवीछे = पवित्र। पतित पवीछे = विकारियों को पवित्र करने वाला। ते = से। सगल भवन ते = सारे भवनों से। ऊपरि = ऊँचा। दिनछे = दी। सोभा = शोभा, महिमा, वडिआई।2।

अजाति = नीच जाति। सभि मानस = सारे मनोरथ। तिनछे = उनके। पूरे = पूर्ण करता है। सो = वह (बहुवचन)। धंनि = धन्य, भाग्यशाली। पूरे = गुणों से सम्पूर्ण। उरछे = हृदय में।3।

ढींढ = नीच। ढीम = मिट्टी का ढेला। मिलछे = मिल। प्रभ = हे प्रभू! तूठे = दयावान हुए।4।

अर्थ: हे गोबिंद जी! (मेरे पर) मेहर कर (मुझे साध-) संगति में मिला। मैं अनेकों जन्मों के पापों की मैल से लिबड़ा हुआ हूँ। हे प्रभू! (मुझे साध-) संगति में मिला के पवित्र जीवन वाला बना।1। रहाउ।

हे प्रभू! तू अपहुँच है, तू जगत का मालिक है, तू सबसे बड़ा पुरख है, हम तेरे पैदा किए हुए तुच्छ से जीव हैं। हे दीनों पर दया करने वाले हरी! हे प्रभू! (मेरे पर) मेहर कर (मुझे गुरू मिला) मैं गुरू सतिगुरू के चरणों (की धूड़) की तमन्ना रखता हूँ।1।

हे हरी! तेरा सेवक उच्च जाति का हो चाहे नीच जाति का, विकारियों को पवित्र करने वाला तेरा नाम जिसने जपा है, हे हरी! तूने उसको सारे जगत के जीवों से ऊँचा कर दिया। हे प्रभू! तूने उसको (लोक-परलोक की) वडिआई बख्श दी।2।

हे भाई! ऊँची जाति का हो चाहे नीच जाति का, जो जो भी मनुष्य प्रभू का नाम सिमरता है, उनके सारे मनोरथ पूरे हो जाते हैं। हे भाई! प्रभू के जिन सेवकों ने हरी-प्रभू को अपने हृदय में बसा लिया, वे भाग्यशाली हैं, वे सबसे बड़े हैं, वे पूरन पुरख हैं।3।

हे हरी! हम जीव नीच हैं, हम मूर्ख हैं, हम पापों के भार तले दबे हुए हैं। हे हरी! मेहर कर, हमें मिल। हे दास नानक! (कह-) प्रभू दयावान हुआ हमें मिल गया, (गुरू ने) हमें विकारियों को पवित्र बना दिया।4।2।4।

बसंतु हिंडोल महला ४ ॥ मेरा इकु खिनु मनूआ रहि न सकै नित हरि हरि नाम रसि गीधे ॥ जिउ बारिकु रसकि परिओ थनि माता थनि काढे बिलल बिलीधे ॥१॥ गोबिंद जीउ मेरे मन तन नाम हरि बीधे ॥ वडै भागि गुरु सतिगुरु पाइआ विचि काइआ नगर हरि सीधे ॥१॥ रहाउ ॥ जन के सास सास है जेते हरि बिरहि प्रभू हरि बीधे ॥ जिउ जल कमल प्रीति अति भारी बिनु जल देखे सुकलीधे ॥२॥ जन जपिओ नामु निरंजनु नरहरि उपदेसि गुरू हरि प्रीधे ॥ जनम जनम की हउमै मलु निकसी हरि अम्रिति हरि जलि नीधे ॥३॥ हमरे करम न बिचरहु ठाकुर तुम्ह पैज रखहु अपनीधे ॥ हरि भावै सुणि बिनउ बेनती जन नानक सरणि पवीधे ॥४॥३॥५॥ {पन्ना 1178-1179}

पद्अर्थ: मनूआ = अंजान मन। रहि न सकै = धीरज नहीं रख सकता। नाम रसि = नाम के स्वाद में। गीधे = गिझ गया है। बारिकु = छोटा बच्चा। रसकि = स्वाद से। थनि माता = माँ के थन पर। थनि काढे = यदि थन (उसके मुँह से) निकाल लिया जाए। बिलल बिलीधे = विलकने लग जाता है।1।

गोबिंद जीउ = हे गोबिंद जी! (संबोधन)। बीधे = भेद दिए गए हैं। वडै भागि = बड़ी किस्मत से। सीधे = सिद्ध हो गया है, मिल गया है।1। रहाउ।

जेते = जितने भी। है = हैं (बहुवचन)। सास सास = हर सांस के साथ। बिरहि = विरह में, प्यार भरे विछोड़े में। बीधे = भेदे हुए हैं। सुकलीधे = सूख जाता है।2।

निरंजनु = (निर+अंजनु। अंजनु = माया के मोह की कालिख) पवित्र। नरहरि = परमात्मा। उपदेसि गुरू = गुरू के अपने उपदेश से। प्रीधे = परोस रखा, सामने दिखा दिया। निकसी = निकल गई, दूर हो गई। जलि = जल से। अंम्रिति जलि = आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल से। नीधे = नहाए, आत्मिक स्नान किया।3।

हमरे = हम जीवों के। ठाकुर = हे ठाकुर! बिचरहु = विचारो। पैज = इज्जत, लाज। अपनीधे = अपने दास की। हरि = हे हरी! भावै = यदि तुझे ठीक लगे। बिनउ = (विनय) बिनती। पवीधे = पड़ा है।4।

अर्थ: हे गोबिंद जी! हे हरी! (गुरू की मेहर से) मेरा मन मेरा तन तेरे नाम में भेदे गए हैं। हे भाई! बड़ी किस्मत से मुझे गुरू सतिगुरू मिल गया है। (गुरू की कृपा से अब मैंने) अपने शरीर-नगर में ही परमात्मा को पा लिया है।1। रहाउ।

हे भाई! (जब से मुझे गुरू मिला है, तब से) मेरा मन सदा परमात्मा के नाम के स्वाद में मस्त रहता है, अब यह मन एक छिन के वास्ते भी (उस स्वाद के बिना) रह नहीं सकता; जैसे छोटा बच्चा बड़े स्वाद से अपनी माँ के थन से चिपकता है, पर अगर थन (उसके मुँह में से) निकाल लें तो वह विलकने लग जाता है।1।

हे भाई! परमात्मा के भक्त (की उम्र) की जितनी भी सांसें होती हैं, वे सारी परमात्मा के विरह में भेदित रहती हैं। जैसे कमल के फूल और पानी का बहुत ही गहरा प्यार होता है, पानी के दर्शनों के बिना कमल का फूल सूख जाता है (यही हाल होता है भगत-जनों का)।2।

हे भाई! परमात्मा के सेवक परमात्मा का पवित्र नाम (सदा) जपते हैं। गुरू ने (अपने) उपदेश से उनको परमात्मा के सामने (हर जगह बसता) दिखा दिया होता है। (नाम की बरकति से उनके अंदर से) जन्म-जनमांतरों की अहंकार की मैल दूर हो जाती है। वह आत्मिक जीवन देने वाले हरी-नाम-जल में (सदा) स्नान करते रहते हैं।3।

हे मालिक प्रभू! हम जीवों के (अच्छे-बुरे) कर्म ना विचारने; अपने सेवक दास की तुमने खुद इज्जत रखनी। हे दास नानक! (कह-) जैसे तुझे अच्छा लगे मेरी विनती आरज़ू सुन, मैं तेरी शरण पड़ा हूँ।4।3।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh