श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1179 बसंतु हिंडोल महला ४ ॥ मनु खिनु खिनु भरमि भरमि बहु धावै तिलु घरि नही वासा पाईऐ ॥ गुरि अंकसु सबदु दारू सिरि धारिओ घरि मंदरि आणि वसाईऐ ॥१॥ गोबिंद जीउ सतसंगति मेलि हरि धिआईऐ ॥ हउमै रोगु गइआ सुखु पाइआ हरि सहजि समाधि लगाईऐ ॥१॥ रहाउ ॥ घरि रतन लाल बहु माणक लादे मनु भ्रमिआ लहि न सकाईऐ ॥ जिउ ओडा कूपु गुहज खिन काढै तिउ सतिगुरि वसतु लहाईऐ ॥२॥ जिन ऐसा सतिगुरु साधु न पाइआ ते ध्रिगु ध्रिगु नर जीवाईऐ ॥ जनमु पदारथु पुंनि फलु पाइआ कउडी बदलै जाईऐ ॥३॥ मधुसूदन हरि धारि प्रभ किरपा करि किरपा गुरू मिलाईऐ ॥ जन नानक निरबाण पदु पाइआ मिलि साधू हरि गुण गाईऐ ॥४॥४॥६॥ {पन्ना 1179} पद्अर्थ: भरमि भरमि = भटक भटक के। धावै = दौड़ता फिरता है। तिलु = रक्ती भर भी। घरि = घर में, शरीर घर में, एक ठिकाने पर, अडोलता में। वासा = निवास। नह पाईअै = नहीं पाया जा सकता। गुरि = गुरू ने। अंकसु = हाथी को चलाने वाला लोहे का कुंडा जो महावत के हाथ में होता है। दारू = दवा। सिरि = सिर पर। धारिओ = रखा। घरि = घर में। मंदरि = मन्दिर में। आणि = ला के। वसाईअै = बसाया जा सकता है।1। गोबिंद जीउ = हे प्रभू जी! (संबोधन)। मेलि = मिला। धिआईअै = ध्याया जा सकता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाधि = जुड़ी हुई सुरति।1। रहाउ। घरि = हृदय घर में। भ्रमिआ = भटकता रहा। ओडा = सेंघा जो धरती को सूँघ के ही बता देता है कि यहाँ पुराना कूआँ मिट्टी के नीचे दबा हुआ है। कूपु = कूआँ। गुहज = छुपा हुआ। खिन = तुरन्त। सतिगुरि = गुरू से। वसतु = नाम पदार्थ। लहाईअै = पा लेते हैं।2। जिन = (बहुवचन) जिन्होंने। साधु = साधे हुए मन वाला। ते = वह मनुष्य (बहुवचन)। ध्रिगु = धिक्कार योग्य। पुंनि = पुन्य, किए हुए भले कर्मों के कारण। बदलै = की खातिर।3। मधुसूदन = ('मधु' राक्षस को मारने वाला) हे दुष्ट दमन परमात्मा! करि = कर के। निरबाण पदु = वह आत्मिक अवस्था जहाँ कोई वासना छू नहीं सकती, वासना रहित आत्मिक दर्जा। मिलि साधू = गुरू को मिल के।4। अर्थ: हे गोबिंद जी! (मुझे) साध-संगति में मिला। (साध-संगति में मिल के) हे हरी! (तेरा नाम) सिमरा जा सकता है। हे हरी! जो मनुष्य (साध-संगति की बरकति से) आत्मिक अडोलता में सुरति जोड़ता है, उसका अहंकार का रोग दूर हो जाता है, वह आत्मिक आनंद पाता है।1। रहाउ। हे भाई! (मनुष्य का) मन हरेक छिन भटक-भटक के (माया की खातिर) बहुत दौड़ता फिरता है, इस तरह यह रक्ती भर समय के लिए भी अपने शरीर-घर में (स्वै-स्वरूप में) टिक नहीं सकता। (गुरू का) शबद (मन की भटकना दूर करने के लिए) दवाई (है। जैसे महावत हाथी को वश में रखने के लिए लोहे का डंडा अंकुश उसके सिर पर मारता है, वैसे ही) गुरू ने (जिस मनुष्य के) सिर पर अपना शबद-अंकुश रख दिया, उसके मन को हृदय-घर में हृदय-मन्दिर में ला के टिका दिया।1। हे भाई! (हरेक मनुष्य के हृदय-) घर में (परमात्मा की सिफत-सालाह के) अनेकों रत्न-लाल मोती भरे हुए हैं। (पर जब तक) मन (माया की खातिर) भटकता फिरता है, तब तक उनको पाया नहीं जा सकता। हे भाई! जैसे कोई सेंघा (धरती में) दबा हुआ (पुराना) कूआँ तुरंत ढूँढ लेता है, वैसे ही (मनुष्य के अंदर छुपा हुआ) नाम-पदारथ गुरू के माध्यम से मिल जाता है।2। हे भाई! जिन मनुष्यों ने साधे हुए मन वाला ऐसा गुरू नहीं पाया, उन मनुष्यों का जीना सदा धिक्कार-योग्य ही होता है (वे सदा ऐसे काम ही करते रहते हैं कि उनको जगत में फिटकारें पड़ती रहती हैं)। हे भाई! (ऐसे मनुष्यों ने) कीमती मनुष्य जनम पिछली की नेक कमाई के फल के कारण पा तो लिया, पर अब वह जनम कौड़ी के मोल (व्यर्थ गवाए) जा रहा है।3। हे दुष्ट-दमन हरी! हे प्रभू! (मेरे पर) मेहर कर। कृपा करके (मुझे) गुरू से मिला। हे दास नानक! (कह- जो मनुष्य) गुरू को मिल के परमात्मा के गुण गाता है, वह मनुष्य ऐसी आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है जहाँ कोई वासना छू नहीं सकती।4।4।6। बसंतु हिंडोल महला ४ ॥ आवण जाणु भइआ दुखु बिखिआ देह मनमुख सुंञी सुंञु ॥ राम नामु खिनु पलु नही चेतिआ जमि पकरे कालि सलुंञु ॥१॥ गोबिंद जीउ बिखु हउमै ममता मुंञु ॥ सतसंगति गुर की हरि पिआरी मिलि संगति हरि रसु भुंञु ॥१॥ रहाउ ॥ सतसंगति साध दइआ करि मेलहु सरणागति साधू पंञु ॥ हम डुबदे पाथर काढि लेहु प्रभ तुम्ह दीन दइआल दुख भंञु ॥२॥ हरि उसतति धारहु रिद अंतरि सुआमी सतसंगति मिलि बुधि लंञु ॥ हरि नामै हम प्रीति लगानी हम हरि विटहु घुमि वंञु ॥३॥ जन के पूरि मनोरथ हरि प्रभ हरि नामु देवहु हरि लंञु ॥ जन नानक मनि तनि अनदु भइआ है गुरि मंत्रु दीओ हरि भंञु ॥४॥५॥७॥१२॥१८॥७॥३७॥ {पन्ना 1179} पद्अर्थ: आवण जाणु = जनम मरण का चक्कर। बिखिआ = माया (के मोह के कारण)। देह = शरीर। मनमुख देह = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य का शरीर। सुंञी = सूनी, (काया नाम के) बग़ैर। सुंञु = (नाम से) बग़ैर खालीपन। जमि = जम ने। कालि = काल ने, मौत ने, आत्मिक मौत ने। सलुंञु = केसों समेत, केसों से।1। गोबिंद जीउ = हे गोबिंद जी! (संबोधन)। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला जहर। ममता = अपनत्व। मुंञु = दूर कर। मिलि = मिल के। भुंञु = मैं भुंचूँ, मैं भोगूँ।1। रहाउ। सत संगति साध = गुरू की सत्संगति। करि = कर के। साधू = गुरू। पंञु = मैं पड़ा रहूँ। प्रभ = हे प्रभू! दुख भंञु = दुख भंजु, दुखों का नाश करने वाला।2। उसतति = सिफत सालाह। रिद अंतरि = (मेरे) हृदय में। सुआमी = हे स्वामी! बुधि = (मेरी) बुद्धि। लंञु = रौशन हो जाए। हरि नामै = हरी नाम में। विटहु = से। घुमि वंञु = मैं सदके जाता हूँ।3। पूरि = पूरे कर। हरि प्रभ = हे हरी! हे प्रभू! लंञु = (आत्मिक) रौशनी। मनि = मन में। तनि = तन में। गुरि = गुरू ने। हरि भंञु = हरी भजन, हरी नाम।4। अर्थ: हे (मेरे) गोबिंद जी! (मेरे अंदर से आत्मिक मौत लाने वाली) अहंकार और ममता का जहर दूर कर। हे हरी! साध-संगति तेरी प्यारी है गुरू की प्यारी है। (मेहर कर) मैं साध-संगति में मिल के तेरे नाम का रस लेता रहूँ।1। रहाउ। हे भाई! माया (के मोह) के कारण अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों का जनम-मरण का चक्कर बना रहता है उन्हें कलेश बना रहता है, उनका शरीर नाम से वंचित रहता है, उनके अंदर नाम की शुन्यता बनी रहती है। वे मनुष्य परमात्मा का नाम एक छिन के लिए भी एक पल के लिए भी याद नहीं करते। आत्मिक मौत ने हर वक्त उनको सिर से पकड़ा हुआ होता है।1। हे प्रभू! मेहर कर के (मुझे) गुरू की सत्संगति में मिलाए रख, मैं गुरू की शरण (सदा) पड़ा रहूँ। हे प्रभू! (पापों से भारी) पत्थर (हो चुके) हम जीवों को (पापों में) डूब रहों को निकाल ले। हे प्रभू जी! तुम दीनों पर दया करने वाले हो, तुम हमारे दुख नाश करने वाले हो।2। हे हरी! हे स्वामी! (अपनी) सिफत-सालाह (मेरे) हृदय में बसाए रख। (मेहर कर) तेरी साध-संगति में मिल के (मेरी) बुद्धि (तेरे नाम की रौशनी से) रौशन हो जाए। हे भाई! परमात्मा के नाम में मेरी प्रीति बन गई है, मैं (अब) परमात्मा से (सदा) सदके जाता हूँ।3। हे हरी! हे प्रभू! (मुझ) सेवक के मनोरथ पूरे कर, मुझे अपना नाम बख्श, (तेरा नाम ही मेरे वास्ते) प्रकाश (है)। हे दास नानक! (कह- जिस मनुष्य को) गुरू ने परमात्मा का नाम-मंत्र बख्शा है, उसके मन में उसके तन में आत्मिक उमंग बन गई।4।5।7।37। वेरवा शबदों का: |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |