श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1184 बसंतु महला ५ घरु १ इक तुके ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सगल इछा जपि पुंनीआ ॥ प्रभि मेले चिरी विछुंनिआ ॥१॥ तुम रवहु गोबिंदै रवण जोगु ॥ जितु रविऐ सुख सहज भोगु ॥१॥ रहाउ ॥ करि किरपा नदरि निहालिआ ॥ अपणा दासु आपि सम्हालिआ ॥२॥ सेज सुहावी रसि बनी ॥ आइ मिले प्रभ सुख धनी ॥३॥ मेरा गुणु अवगणु न बीचारिआ ॥ प्रभ नानक चरण पूजारिआ ॥४॥१॥१४॥ {पन्ना 1184} पद्अर्थ: सगल = सारी। जपि = (प्रभू का नाम) जप के। पुंनीआ = पूरी हो जाती हैं। प्रभि = प्रभू ने। मेले = मिल लिए। चिरी विछुंनिआ = चिर से विछुड़े हुओं को।1। रवहु = सिमरो। गोबिंदै = गोबिंद (के नाम) को। रवण जोगु = सिमरने योग्य को। जितु = जिससे। जितु रविअै = जिसका सिमरन करने से, अगर उसका सिमरन किया जाए। सुख सहज भोगु = आत्मिक अडोलता के सुखों का स्वाद।1। रहाउ। करि = कर के। नदरि = मेहर की निगाह से। निहालिआ = देखा। समालिआ = संभाल की।2। सेज = हृदय सेज। सुहावी = सुंदर। रसि = (मिलाप के) स्वाद से। सुख धनी = सुखों के मालिक।3। पूजारिआ = पूजारी बना लिया।4। अर्थ: हे भाई! तुम सिमरने योग्य गोबिंद का नाम सिमरा करो। अगर (उसका नाम) सिमरा जाए, तो आत्मिक अडोलता के सुखों का स्वाद (प्राप्त होता है)।1। रहाउ। हे भाई! (जिन्होंने सिमरन किया, उनका) चिर के विछुड़े हुओं को (भी) प्रभू ने (अपने चरणों के साथ) मिला लिया, (परमात्मा का नाम) जप के उनकी सारी मुरादें पूरी हो गई।1। हे भाई! प्रभू ने अपने दास की (सदा) स्वयं संभाल की है। कृपा करके (प्रभू ने अपने दास को सदा) मेहर भरी निगाह से देखा है।2। हे भाई! सुखों के मालिक प्रभू जी (जिस मनुष्य को) आ के मिल लेते हैं, (प्रभू-मिलाप के) स्वाद से उनकी हृदय-सेज सोहानी बन जाती है।3। हे नानक! (कह- हे भाई!) प्रभू ने मेरा कोई गुण नहीं बिचारा, कोई अवगुण नहीं विचारा, (मेहर कर के उसने मुझे) अपने चरणों का पुजारी बना लिया है।4।1।14। बसंतु महला ५ ॥ किलबिख बिनसे गाइ गुना ॥ अनदिन उपजी सहज धुना ॥१॥ मनु मउलिओ हरि चरन संगि ॥ करि किरपा साधू जन भेटे नित रातौ हरि नाम रंगि ॥१॥ रहाउ ॥ करि किरपा प्रगटे गुोपाल ॥ लड़ि लाइ उधारे दीन दइआल ॥२॥ इहु मनु होआ साध धूरि ॥ नित देखै सुआमी हजूरि ॥३॥ काम क्रोध त्रिसना गई ॥ नानक प्रभ किरपा भई ॥४॥२॥१५॥ {पन्ना 1184} पद्अर्थ: किलबिख = पाप। गाइ = गा के। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सहज धुना = आत्मिक अडोलता की रौंअ।1। मउलिओ = खिल उठता है, पुल्कित हो जाता है। करि = कर के। साधू = गुरू। भेटे = मिलाता है। रातो = रंगा रहता है। रंगि = रंग में।1। रहाउ। गुोपाल: अक्षर 'ग' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। असल शब्द है 'गोपाल', यहां 'गुपाल' पढ़ना है। लड़ि = पल्ले से। लाइ = लगा के। उधारे = (संसार समुंद्र से) पार लंघाता है।2। साध धूरि = गुरू चरणों की धूड़। देखै = देखता है (एक वचन)। हजूरि = अंग संग, हाजर नाजर।3। नानक = हे नानक!।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा मेहर करके जिस सेवक को गुरू मिलाता है, वह सेवक सदा हरी-नाम रंग में रंगा जाता है, उस सेवक का मन प्रभू के चरणों में (जुड़ के) आत्मिक जीवन वाला हो जाता है।1। रहाउ। हे भाई! (कोई भी मनुष्य हो, परमात्मा के) गुण गा-गा के उसके सारे पाप नाश हो जाते हैं, उसके अंदर हर वक्त आत्मिक अडोलता की रौंअ पैदा हुई रहती है।1। हे भाई! मेहर कर के गोपाल-प्रभू (जिस मनुष्य के हृदय में) प्रगट होता है, दीनों पर दया करने वाला प्रभू उसको अपने पल्ले से लगा के (संसार-समुंद्र से) पार लंघा देता है।2। हे भाई! जिस मनुष्य का ये मन गुरू के चरणों की धूड़ बनता है, वह मनुष्य स्वामी प्रभू को सदा अपने अंग-संग बसता देखता है।3। हे नानक! ( कह- हे भाई!) जिस मनुष्य पर प्रभू की मेहर होती है (उसके अंदर से) काम-क्रोध-तृष्णा (आदिक विकार) दूर हो जाते हैं।4।2।15। बसंतु महला ५ ॥ रोग मिटाए प्रभू आपि ॥ बालक राखे अपने कर थापि ॥१॥ सांति सहज ग्रिहि सद बसंतु ॥ गुर पूरे की सरणी आए कलिआण रूप जपि हरि हरि मंतु ॥१॥ रहाउ ॥ सोग संताप कटे प्रभि आपि ॥ गुर अपुने कउ नित नित जापि ॥२॥ जो जनु तेरा जपे नाउ ॥ सभि फल पाए निहचल गुण गाउ ॥३॥ नानक भगता भली रीति ॥ सुखदाता जपदे नीत नीति ॥४॥३॥१६॥ {पन्ना 1184} पद्अर्थ: मिटाऐ = मिटाता है। बालक = (बहुवचन) बच्चों को। राखे = रक्षा करता है। कर = हाथ (बहुवचन)। थापि = स्थापित करके, थाप दे के। कर थापि = हाथों से थापना दे के।1। सहज = आत्मिक अडोलता। ग्रिहि = (हृदय-) घर में। सद बसंतु = सदा कायम रहने वाली उमंग। कलिआण रूप हरि मंतु = सुख स्वरूप परमात्मा का नाम मंत्र। जपि = जप के।1। रहाउ। सोग = चिंता फिक्र। संताप = दुख कलेश। प्रभि = प्रभू ने। कउ = को। जापि = जपा कर।2। जपै = जपता है। सभि = सारे। निहचल गुण गाउ = सदा कायम रहने वाले गुणों का गायन (करके)।3। रीति = मर्यादा।4। अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य) पूरे गुरू की शरण आते हैं, सुख-स्वरूप परमात्मा का नाम-मंत्र जप के (उनके हृदय-) घर में आत्मिक अडोलता वाली शांति बनी रहती है, सदा कायम रहने वाली उमंग बनी रहती है।1। रहाउ। हे भाई! (जो मनुष्य पूरे गुरू की शरण आते हैं) परमात्मा स्वयं (उनके सारे) रोग मिटा देता है, उन बच्चों को अपने हाथों से थापणा दे के उनकी रक्षा करता है (जिस तरह माता-पिता अपने बच्चों की संभाल करते हैं)।1। प्रभू आप ही चिन्ता व दुख मिटा देता है। अपने गुरू को रोज-रोज याद करना चाहिये।2। हे भाई! जो मनुष्य तेरा नाम जपता है, वह मनुष्य तेरे सदा कायम रहने वाले गुणों का गायन कर के सारे फल प्राप्त कर लेता है।3। हे नानक! भगत-जनों की ये सुंदर जीवन-मर्यादा है, कि वे सदा ही सुखों के देने वाले परमात्मा का नाम जपते रहते हैं।4।3।16। बसंतु महला ५ ॥ हुकमु करि कीन्हे निहाल ॥ अपने सेवक कउ भइआ दइआलु ॥१॥ गुरि पूरै सभु पूरा कीआ ॥ अम्रित नामु रिद महि दीआ ॥१॥ रहाउ ॥ करमु धरमु मेरा कछु न बीचारिओ ॥ बाह पकरि भवजलु निसतारिओ ॥२॥ प्रभि काटि मैलु निरमल करे ॥ गुर पूरे की सरणी परे ॥३॥ आपि करहि आपि करणैहारे ॥ करि किरपा नानक उधारे ॥४॥४॥१७॥ {पन्ना 1184-1185} पद्अर्थ: हुकम करि = हुकम दे के। निहाल = प्रसन्न चिक्त। सेवक कउ = सेवकों पर। दइआलु = दयालु, दयावान।1। गुरि पूरै = पूरे गुरू ने। सभु = हरेक काम। पूरा कीआ = सिरे चढ़ा दिया। अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला हरी नाम। रिद महि = हृदय में।1। रहाउ। करमु = अच्छा काम। पकरि = पकड़ के। भवजलु = संसार समुंद्र। निसतारिओ = पार लंघा दिया।2। प्रभि = प्रभू ने। काटि = काट के, दूर कर के।3। करहि = तू करता है। करणैहारे = हे सब कुछ कर सकने वाले प्रभू! करि = कर के। उधारे = पार लंघा ले, उद्धार कर दे।4। अर्थ: हे भाई! पूरे गुरू ने आत्मिक जीवन देने वाला हरी-नाम (जिस मनुष्य के) हृदय में बसा दिया, (उस मनुष्य का उसने) हरेक काम सफल कर दिया (उसका सारा जीवन ही सफल हो गया)।1। रहाउ। हे भाई! परमात्मा अपने सेवकों पर (सदा) दयावान होता है, अपने हुकम अनुसार उनको प्रसन्न-चिक्त रखता है।1। हे भाई! (गुरू ने) मेरा (भी) कोई (अच्छा) कर्म नहीं विचारा मेरा कोई धर्म नहीं विचारा, बाँह से पकड़ कर उसने (मुझे) संसार-समुंद्र (के विकारों) से पार लंघा दिया है।2। हे भाई! जो भी मनुष्य पूरे गुरू की शरण पड़ गए, परमात्मा ने (स्वयं उनके अंदर से विकारों की) मैल काट के उनको पवित्र जीवन वाला बना लिया।3। हे सब कुछ कर सकने वाले प्रभू! तू सब कुछ स्वयं ही कर रहा है। मेहर कर के (मुझे) नानक को (संसार-समुंद्र से) पार लंघा ले।4।4।17। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |