श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1185

बसंतु महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ देखु फूल फूल फूले ॥ अहं तिआगि तिआगे ॥ चरन कमल पागे ॥ तुम मिलहु प्रभ सभागे ॥ हरि चेति मन मेरे ॥ रहाउ ॥ सघन बासु कूले ॥ इकि रहे सूकि कठूले ॥ बसंत रुति आई ॥ परफूलता रहे ॥१॥ अब कलू आइओ रे ॥ इकु नामु बोवहु बोवहु ॥ अन रूति नाही नाही ॥ मतु भरमि भूलहु भूलहु ॥ गुर मिले हरि पाए ॥ जिसु मसतकि है लेखा ॥ मन रुति नाम रे ॥ गुन कहे नानक हरि हरे हरि हरे ॥२॥१८॥ {पन्ना 1185}

पद्अर्थ: देखु = (अंदर झाँक के) देख। फूल फूल फूले = फूल ही फूल खिले हुए हैं, खिड़ाव ही खिड़ाव है, उमंग उल्लास ही उल्लास है। अहं = अहंकार। तिआगि = त्याग के। पागे = चिपका रह। सभागे = हे भाग्यशाली (मन)! मन = हे मन!।1। रहाउ।

सघन = घनी छाया वाले। बासु = सुगंधी। कमले = नरम, कोमल। इकि = ('इक' का बहुवचन) कई। रहे सूकि = सूखे रहते हैं। कठूले = (सूखी) काठ जैसे कठोर। बसंत रुति = खेड़े वाली ऋतु, मनुष्य जनम जिस में आत्मिक जीवन की उमंग प्राप्त की जा सकती है। परफूलता रहो = (जो मनुष्य नाम जपता है वह) प्रफुल्लित रहता है, खिला रहता है।1।

अब = अब (मनुष्य जनम मिलने पर)। कलू = काल, समय, नाम बीजने का वक्त। रे = हे भाई! अन = अन्य, कोई और। अन रुति नाही = (मनुष्य जनम के बिना नाम बीजने का) और कोई समय नहीं। मतु = कहीं ऐसा ना हो। भरमि = (माया की) भटकना में पड़ कर। मतु भूलहु = मत कहीं गलत रास्ते पड़ जाओ, कुमार्ग ना पड़ जाना। गुर मिले = गुर मिलि, गुरू को मिल के (ही)। जिसु मसतकि = जिस (मनुष्य) के माथे पर। लेखा = (नाम की प्राप्ति का) लेख। मन = हे मन! कहे = उचारता है।2।

अर्थ: हे मेरे मन! (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर, अहम् दूर कर, (फिर) देख (तेरे अंदर) फूल ही फूल खिले हुए हैं (तेरे अंदर आत्मिक प्रफुल्लता है)। हे भाग्यशाली मन! प्रभू के सुंदर चरणों से चिपका रह, प्रभू के साथ जुड़ा रह। हे मेरे मन! परमात्मा को याद करता रह। रहाउ।

हे मेरे मन! जब बसंत की ऋतु आती है, (तब वृक्ष तरावट से) घनी छाया वाले, सुगंधि वाले और कोमल हो जाते हैं, पर कई वृक्ष ऐसे भी हैं जो (बसंत के आने पर भी) सूखे रहते हैं, और सूखे काष्ठ की तरह कठोर रहते हैं (इस तरह, हे मन! चाहे आत्मिक जीवन की उमंग प्राप्त कर सकने वाली मनुष्य-जीवन की ऋतु तेरे ऊपर आई है, फिर भी जो भाग्यशाली मनुष्य हरी-नाम जपता है, वही) खिला रह सकता है।1।

हे मेरे मन! अब मनुष्य-जन्म मिलने पर (नाम बोने का) समय तुझे मिला हुआ है। (अपने हृदय के खेत में) सिर्फ हरी-नाम बीज, सिर्फ हरी-नाम बो। (मनुष्य-जीवन के बिना) किसी और जन्म में परमात्मा का नाम नहीं बोया जा सकेगा। हे मेरे मन! देखना, (माया की) दौड़-भाग में पड़ के कहीं गलत राह पर ना पड़ जाना। हे मन! (ये मानस-जनम ही) नाम-बीजने का समय है। (पर, हे मन!) गुरू को मिल के ही हरी-नाम प्राप्त किया जा सकता है। हे नानक! जिस मनुष्य के माथे पर (धुर से ही नाम की प्राप्ति का) लेख उघड़ता है वह मनुष्य ही सदा परमात्मा के गुण उचारता है।2।18।

बसंतु महला ५ घरु २ हिंडोल    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ होइ इकत्र मिलहु मेरे भाई दुबिधा दूरि करहु लिव लाइ ॥ हरि नामै के होवहु जोड़ी गुरमुखि बैसहु सफा विछाइ ॥१॥ इन्ह बिधि पासा ढालहु बीर ॥ गुरमुखि नामु जपहु दिनु राती अंत कालि नह लागै पीर ॥१॥ रहाउ ॥ करम धरम तुम्ह चउपड़ि साजहु सतु करहु तुम्ह सारी ॥ कामु क्रोधु लोभु मोहु जीतहु ऐसी खेल हरि पिआरी ॥२॥ उठि इसनानु करहु परभाते सोए हरि आराधे ॥ बिखड़े दाउ लंघावै मेरा सतिगुरु सुख सहज सेती घरि जाते ॥३॥ हरि आपे खेलै आपे देखै हरि आपे रचनु रचाइआ ॥ जन नानक गुरमुखि जो नरु खेलै सो जिणि बाजी घरि आइआ ॥४॥१॥१९॥ {पन्ना 1185}

पद्अर्थ: होइ इकत्र = (साध-संगति में) इकट्ठे हो के। भाई = हे भाई! दुबिधा = मेर तेर, भेदभाव, दोचिक्तापन। लिव लाइ = (प्रभू चरणों में) सुरति जोड़ के। जोड़ी = जोटीदार, साथी। होवहु जोड़ी = साथी बने रहो। हरि नामे के जोड़ी = हरी नाम सिमरन की चौपड़ खेलने वाले साथी। गुरमुखि = गुरू से, गुरू की शरण पड़ कर। सफा विछाइ = सफा बिछा के, चौपड़ वाला कपड़ा बिछा के। गुरमुखि सफा विछाइ = गुरू की शरण पड़े रहना = ये कपड़ा बिछा के। बैसहु = बैठो।1।

इन बिधि = इस तरीके से। पासा ढालहु = पासा फेंको। अंत कालि = आखिरी वक्त। पीर = पीड़ा।1। रहाउ।

करम धरम = धरम के कर्म, नेक काम। साजहु = बनाओ। सतु = ऊँचा आचरण। सारी = नर्द। अैसी = ऐसी।2।

उठि = उठ के। परभाते = प्रभात के समय, अमृत बेला में। इसनानु = हरी नाम में आत्मिक स्नान। सोऐ = सोए हुए भी। बिखड़े = मुश्किल। लंघावै = पार करा देता है, जिता देता है। सहज = आत्मिक अडोलता। सेती = साथ। घरि = स्वै स्वरूप में, प्रभू चरणों में।3।

आपे = स्वयं ही। खेलै = जगत खेल खेलता है। रचनु रचाइआ = रचना रची है। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। जिणि = जीत के।4।

अर्थ: हे वीर! (अर्थात, हे भाई!) गुरू की शरण पड़ कर दिन-रात परमात्मा का नाम जपा करो, इस तरह (इस जीवन-खेल में) दाँव चलाओ (पासा फेंको)। (यदि इस तरह ये खेल खेलते रहोगे तो) जिंदगी के आखिरी समय में (जमों का) दुख नहीं सताएगा।1। रहाउ।

हे मेरे वीर! इकट्ठे हो के साध-संगति में बैठा करो, (वहाँ प्रभू चरणों में) सुरति जोड़ के (अपने मन में से) मेर-तेर मिटाया करो। गुरू की शरण पड़े रहना- यह चौपड़ का कपड़ा बिछा के मन को टिकाया करो, (साध-संगति में) हरी-नाम सिमरन का चौपड़ खेलने वाले साथी बना करो।1।

हे मेरे वीर! नेक काम करने को तुम चौपड़ की खेल बनाओ, ऊँचे आचरण को नरद बनाओ। (इस नरद की बरकति से) तुम (अपने अंदर से) काम को क्रोध को लोभ को और मोह को वश में करो। हे वीर! ऐसी ही खेल परमात्मा को भाती है (पसंद आती है)।2।

हे मेरे वीर! अमृत बेला में उठ के (नाम-जल में) डुबकी लगाया करो, सोए हुए भी परमात्मा की आराधना में जुड़े रहो। (जो मनुष्य यह उद्यम करते हैं उन्हें) प्यारा गुरू (कामादिक वैरियों से मुकाबले के) मुश्किल पैतड़ों में कामयाब कर देता है, वे मनुष्य आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद से प्रभू-चरणों में टिके रहते हैं।3।

हे दास नानक! (कह- हे वीर!) परमात्मा स्वयं ही जगत-खेल खेलता है, स्वयं ही यह जगत खेल देखता है। प्रभू ने स्वयं ही ये रचना रची हुई है। यहाँ जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर (कामादिक के मुकाबले की जीवन-खेल) खेलता है, वह यह बाजी जीत के प्रभू-दर पर पहुँचता है।4।1।19।

नोट: शीर्षक के अनुसार यह शबद और इसके आगे के दोनों शबद बसंत और हिंडोल दोनों रागों में गाए जाने की हिदायत है। यह शीर्षक ध्यान से देखना। इसी तरह का ही शीर्षक है बाणी 'ओअंकारु' का। जैसे यहाँ 'बसंत' और 'हिंडोल' के शब्द इकट्ठे हैं, वैसे ही वहाँ 'रामकली' और 'दखणी' दोनों इकट्ठे हैं। बाणी का नाम सिर्फ 'ओअंकारु' है।

बसंतु महला ५ हिंडोल ॥ तेरी कुदरति तूहै जाणहि अउरु न दूजा जाणै ॥ जिस नो क्रिपा करहि मेरे पिआरे सोई तुझै पछाणै ॥१॥ तेरिआ भगता कउ बलिहारा ॥ थानु सुहावा सदा प्रभ तेरा रंग तेरे आपारा ॥१॥ रहाउ ॥ तेरी सेवा तुझ ते होवै अउरु न दूजा करता ॥ भगतु तेरा सोई तुधु भावै जिस नो तू रंगु धरता ॥२॥ तू वड दाता तू वड दाना अउरु नही को दूजा ॥ तू समरथु सुआमी मेरा हउ किआ जाणा तेरी पूजा ॥३॥ तेरा महलु अगोचरु मेरे पिआरे बिखमु तेरा है भाणा ॥ कहु नानक ढहि पइआ दुआरै रखि लेवहु मुगध अजाणा ॥४॥२॥२०॥ {पन्ना 1185-1186}

पद्अर्थ: तू है = तू ही। जाणहि = (तू) जानता है। जाणै = जानता है। करहि = (तू) करता है। सोई = वही मनुष्य।1।

जिस नो: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है।

कउ = को। बलिहारा = सदके। सुहावा = सुंदर, सुहाना। प्रभ = हे प्रभू! रंग = खेल तमाशे। आपारा = बेअंत।1। रहाउ।

सेवा = भक्ति। तुझ ते = तुझसे, तेरी प्रेरणा से। तुधु भावै = (जो) तुझे अच्छा लगता है। रंगु = प्रेम रंग।2।

दाना = समझदार। को = कोई। समरथु = सब ताकतों का मालिक। किआ जाणा = मैं क्या जानता हूँ?।3।

महलु = ठिकाना। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान इन्द्रियां) जीवों की ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे। बिखमु = मुश्किल। भाणा = रजा। दुआरै = (तेरे) दर पर। मुगध = मूर्ख। अजाणा = अंजान।4।

अर्थ: हे प्रभू! मैं तेरे भक्तों से सदा सदके जाता हूँ। (उनकी ही कृपा से तेरे दर पर पहुँचा जा सकता है)। हे प्रभू! जहाँ तू बसता है वह जगह हमेशा सुंदर है, बेअंत हैं तेरे रंग-तमाशे।1। रहाउ।

हे प्रभू! तेरी कुदरति (ताकत) तू स्वयं ही जानता है, कोई और (तेरी समर्था को) नहीं समझ सकता। हे मेरे प्यारे प्रभू! जिस मनुष्य पर तू (स्वयं) मेहर करता है, वही तेरे साथ सांझ डालता है।1।

हे प्रभू! तेरी भक्ति तेरी प्रेरणा से ही हो सकती है, (तेरी प्रेरणा के बिना) कोई भी अन्य प्राणी (तेरी भगती) नहीं कर सकता। तेरा भक्त (भी) वही मनुष्य (बनता है जो) तुझे प्यारा लगता है जिस (के मन) को तू (अपने प्यार का) रंग चढ़ाता है।2।

हे प्रभू! तू (सबसे) बड़ा दातार है, तू (सबसे) बड़ा समझदार है (तेरे बराबर का) कोई अन्य दूसरा नहीं है। तू सब ताकतों का मालिक है, तू मेरा पति है, मैं तेरी भक्ति करनी नहीं जानता (तू स्वयं ही मेहर करे, तो कर सकता हॅूँ)।3।

हे मेरे प्यारे प्रभू! जहाँ तू बसता है वह ठिकाना हम जीवों की ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच से परे है, तेरी रजा में चलना बड़ा मुश्किल काम है। हे नानक! कह- (हे प्रभू!) मैं तेरे दर पर गिर गया हूँ, मुझ मूर्ख को मुझ अंजान को (तू स्वयं हाथ दे के) बचा ले।4।2।0।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh