श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बसंतु हिंडोल महला ५ ॥ मूलु न बूझै आपु न सूझै भरमि बिआपी अहं मनी ॥१॥ पिता पारब्रहम प्रभ धनी ॥ मोहि निसतारहु निरगुनी ॥१॥ रहाउ ॥ ओपति परलउ प्रभ ते होवै इह बीचारी हरि जनी ॥२॥ नाम प्रभू के जो रंगि राते कलि महि सुखीए से गनी ॥३॥ अवरु उपाउ न कोई सूझै नानक तरीऐ गुर बचनी ॥४॥३॥२१॥ {पन्ना 1186}

पद्अर्थ: मूलु = जगत का मूल प्रभू। आपु = अपना आप। भरमि = भटकना में। बिआपी = फसी हुई। अहंमनी = अहंकार (के कारण)।1।

प्रभ = हे प्रभू! धनी = मालिक। मोहि = मुझे। मोहि निरगुनी = मुझ गुणहीन को।1। रहाउ।

ओपति = उत्पक्ति। परलउ = नाश। ते = से। हरि जनी = हरी के जनों ने।2।

नाम रंगि = नाम के प्यार में। राते = रंगे हुए। कलि महि = मानस जनम में जहाँ बेअंत विकार हमले करते रहते हैं। से = वे मनुष्य (बहुवचन)। गनी = गनीं, मैं गिनता हूँ।3।

तरीअै = पार लांघा जा सकता है। बचनी = बचनों से।4।

अर्थ: हे मेरे पिता पारब्रहम! हे मेरे मालिक प्रभू! मुझ गुणहीन को (संसार-समुंद्र से) पार लंघा।1। रहाउ।

हे भाई! अहंकार के कारण (जीव की बुद्धि माया की खातिर) दौड़-भाग में फसी रहती है, (तभी जीव अपने) मूल-प्रभू के साथ सांझ नहीं डालता, और अपने आप को भी नहीं समझता।1।

हे भाई! संत-जनों ने तो यही विचार किया है कि जगत की उत्पक्ति और जगत का विनाश परमात्मा के हुकम अनुसार ही होता है।2।

हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम के प्यार-रंग में रंगे रहते हैं, मैं तो उनको ही सुखी जीवन वाले समझता हूँ।3।

हे नानक! (कह- हे भाई!) गुरू के बचनों पर चल कर ही संसार-समुंद्र से पार लांघा जा सकता है। कोई और तरीका नहीं सूझता (जिसकी मदद से पार हुआ जा सके)।4।3।21।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु बसंतु हिंडोल महला ९ ॥ साधो इहु तनु मिथिआ जानउ ॥ या भीतरि जो रामु बसतु है साचो ताहि पछानो ॥१॥ रहाउ ॥ इहु जगु है स्मपति सुपने की देखि कहा ऐडानो ॥ संगि तिहारै कछू न चालै ताहि कहा लपटानो ॥१॥ उसतति निंदा दोऊ परहरि हरि कीरति उरि आनो ॥ जन नानक सभ ही मै पूरन एक पुरख भगवानो ॥२॥१॥ {पन्ना 1186}

नोट: यह शबद 'बसंत' और 'हिंडोल' दोनों मिश्रित रागों में गाए जाने हैं।

पद्अर्थ: साधो = हे संत जनो! मिथिआ = नाशवंत। तनु = शरीर। जानो = समझो। या भीतरि = इस (शरीर) में। बसतु है = बसता है। साचो = सदा कायम रहने वाला। ताहि = उस (परमात्मा) को।1।

संपति = संपक्ति, धन। संपति सुपने की = वह धन जो मनुष्य कई बार सपने में पा लेता है पर असलियत में नहीं होता। देखि = देख के। कहा = कहाँ? क्यों? अैडानो = अकड़ता है, अहंकार करता है। संगि तिहारै = तेरे साथ। चालै = चलता। ताहि = उस (धन) के साथ। लपटानो = चिपका हुआ है।1।

उसतति = (मनुष्य की) खुशामद। निंदा = चुगली। परहरि = दूर कर, छोड़ दे। कीरति = सिफत सालाह। उरि = हृदय में। आनो = लाओ, बसाओ। पूरनु = व्यापक।2।

अर्थ: हे संत जनो! इस शरीर को नाशवंत समझो। इस शरीर में जो पदार्थ बस रहा है, (सिर्फ) उसको सदा कायम रहने वाला जानो।1। रहाउ।

हे भाई! यह जगत उस धन के समान ही है जो सपने में मिल जाता है (और, जागते ही खत्म हो जाता है) (इस जगत को धन को) देख के अहंकार क्यों करता है? यहाँ कोई भी चीज़ (अंत समय में) तेरे साथ नहीं जा सकती। फिर इससे क्यों चिपका हुआ है?।1।

हे भाई! किसी की खुशामद किसी की निंदा- ये दोनों काम छोड़ दे। सिर्फ परमात्मा की सिफत-सालाह (अपने) हृदय में बसाओ। हे दास नानक! (कह- हे भाई!) सिर्फ वह भगवान पुरख ही (सलाहने-योग्य है जो) सब जीवों में व्यापक है।2।1।

बसंतु महला ९ ॥ पापी हीऐ मै कामु बसाइ ॥ मनु चंचलु या ते गहिओ न जाइ ॥१॥ रहाउ ॥ जोगी जंगम अरु संनिआस ॥ सभ ही परि डारी इह फास ॥१॥ जिहि जिहि हरि को नामु सम्हारि ॥ ते भव सागर उतरे पारि ॥२॥ जन नानक हरि की सरनाइ ॥ दीजै नामु रहै गुन गाइ ॥३॥२॥ {पन्ना 1186}

पद्अर्थ: पापी कामु = पापों में फसाने वाली काम वासना। हीअै मै = (मनुष्य के) हृदय में। बसाइ = टिका रहता है। या ते = इस कारण। गहिओ न जाइ = पकड़ा नहीं जा सकता।1। रहाउ।

जंगम = शिव उपासक साधू जो अपने सिर पर मोर के पँख बाँध के टल्लियाँ बजाते हुए दर-दर माँगते फिरते हैं। अरु = और। परि = ऊपर। डारी = डाली हुई, फेंकी हुई। फास = फंदा, फाही।1।

दीजै = दें। रहै गाइ = गाता रहे।3।

अर्थ: हे भाई! पापों में फसाने वाली काम-वासना (मनुष्य के) हृदय में टिकी रहती है, इस वास्ते (मनुष्य का) चंचल मन काबू में नहीं आ सकता।1। रहाउ।

हे भाई! जोगी जंगम और सन्यासी (जो अपनी तरफ़ से माया का) त्याग कर गए हैं- इस सबके ऊपर ही (माया ने काम-वासना का) यह फंदा फेंका हुआ है।1।

हे भाई! जिस जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसाया है, वे सभी संसार-समुंद्र (के विकारों) से पार लांघ जाते हैं।2।

हे नानक! परमात्मा का दास परमात्मा की शरण पड़ा रहता है (परमात्मा के दर पर वह अरजोई करता रहता है- हे प्रभू! अपने दास को अपना) नाम दे (ताकि तेरा दास तेरे) गुण गाता रहे (इस तरह वह कामादिक विकारों की मार से बचा रहता है)।3।2।

बसंतु महला ९ ॥ माई मै धनु पाइओ हरि नामु ॥ मनु मेरो धावन ते छूटिओ करि बैठो बिसरामु ॥१॥ रहाउ ॥ माइआ ममता तन ते भागी उपजिओ निरमल गिआनु ॥ लोभ मोह एह परसि न साकै गही भगति भगवान ॥१॥ जनम जनम का संसा चूका रतनु नामु जब पाइआ ॥ त्रिसना सकल बिनासी मन ते निज सुख माहि समाइआ ॥२॥ जा कउ होत दइआलु किरपा निधि सो गोबिंद गुन गावै ॥ कहु नानक इह बिधि की स्मपै कोऊ गुरमुखि पावै ॥३॥३॥ {पन्ना 1186}

पद्अर्थ: माई = हे माँ! पाइओ = (गुरू से) पा लिया है। धावन ते = (माया की खातिर) दौड़ भाग करने से। छूटिओ = बच गया है। करि = कर के। बिसरामु = ठिकाना। करि बिसरामु = नाम धन में ठिकाना बना के।1। रहाउ।

माइआ ममता = माया की ममता, माया इकट्ठी करने की लालसा। तन ते = (मेरे) शरीर से। निरमल गिआनु = निर्मल प्रभू का ज्ञान, शुद्ध-स्वरूप परमात्मा के साथ जान पहचान। परसि न साकै = (मुझे) छू नहीं सकते, मेरे नजदीक नहीं फटकते, मेरे पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते। गही = पकड़ी।1।

संसा = सहम, संशय। चूका = समाप्त हो गया। रतनु नामु = अमूल्य हरी नाम। जब = जब से। मन ते = मन से। निज = अपना, अपने साथ सदा बने रहने वाला।2।

जा कउ = जिस (मनुष्य) पर। दइआलु = दयावान। किरपा निधि = कृपा का खजाना प्रभू। सो = वह मनुष्य (एक वचन)। गावै = गाता है। संपै = धन। इह बिधि की संपै = इस तरह का धन। कोऊ = कोई विरला ही। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के।3।

अर्थ: हे (मेरी) माँ! (जब का गुरू की शरण पड़ कर) मैंने नाम-धन हासिल किया है, मेरा मन (माया की खातिर) दौड़-भाग करने से बच गया है, (अब मेरा मन नाम-धन में) ठिकाना बना के बैठ गया है।1। रहाउ।

हे मेरी माँ! (गुरू की किरपा से मेरे अंदर) शुद्ध-स्वरूप-परमात्मा के साथ गहरी सांझ बन गई है (जिसके कारण) मेरे शरीर में से माया जोड़ने की (धन एकत्र करने की) लालसा दूर हो गई है। (जब से मैंने) भगवान की भक्ति हृदय में बसाई है लोभ और मोह ये मेरे ऊपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते।1।

हे मेरी माँ! जब से (गुरू की कृपा से) मैंने परमात्मा का अमूल्य नाम पाया है, मेरा जन्मों-जन्मांतरों का सहम दूर हो गया है; मेरे मन में से सारी तृष्णा समाप्त हो गई है, अब मैं उस आनंद में टिका रहता हूँ जो सदा मेरे साथ बना रहने वाला है।2।

हे माँ! कृपा का खजाना गोबिंद जिस मनुष्य पर दयावान होता है, वह मनुष्य उसके गुण गाता रहता है। हे नानक! कह- (हे माँ!) कोई विरला मनुष्य इस किस्म का धन गुरू के सन्मुख रह के हासिल करता है।3।3।

बसंतु महला ९ ॥ मन कहा बिसारिओ राम नामु ॥ तनु बिनसै जम सिउ परै कामु ॥१॥ रहाउ ॥ इहु जगु धूए का पहार ॥ तै साचा मानिआ किह बिचारि ॥१॥ धनु दारा स्मपति ग्रेह ॥ कछु संगि न चालै समझ लेह ॥२॥ इक भगति नाराइन होइ संगि ॥ कहु नानक भजु तिह एक रंगि ॥३॥४॥ {पन्ना 1186-1187}

पद्अर्थ: मन = हे मन! कहा = कहाँ? क्यों? तनु = शरीर। बिनसै = नाश होता है। जम सिउ = जमों से। कामु = काम, वास्ता। परे = पड़ता है।1। रहाउ।

पहार = पहाड़। तै = तू। साचा = सदा कायम रहने वाला। मानिआ = मान लिया है। किह बिचारि = क्या विचार के? क्या समझ के?।1।

दारा = स्त्री। संपति = धन पदार्थ। ग्रेह = गृह, घर। संगि = साथ। कछु = कोई भी चीज़।2।

इक = सिर्फ। कहु = कह। नानक = हे नानक! भजु तिह = उस परमात्मा का भजन कर। ऐक रंगि = एक के प्यार में (जुड़ के)।3।

अर्थ: हे मन! तू परमात्मा का नाम क्यों भुलाए बैठा है? (जब) शरीर नाश हो जाता है, (तब परमात्मा के नाम के बिना) जमों से वास्ता पड़ता है।1। रहाउ।

हे मन! यह संसार (तो, मानो) धूएँ का पहाड़ है (जिसको हवा का एक बुल्ला उड़ा के ले जाता है)। हे मन! तू क्या समझ के (इस जगत को) सदा कायम रहने वाला माने बैठा है?।1।

हे मन! (अच्छी तरह समझ ले कि) धन, स्त्री, जयदाद, घर- इनमें से कोई भी चीज़ (मौत के वक्त जीव के) साथ नहीं जाती।2।

हे नानक! कह- (हे भाई!) सिर्फ परमात्मा की भक्ति ही मनुष्य के साथ रहती है (इसलिए) सिर्फ परमात्मा के प्यार में (टिक के) उसका भजन किया कर।3।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh